स्मरणीय, मननीय एवं करणीय
हम सभी भगवान के समक्ष विनीत भाव से उनकी पूजा, अर्चना, वंदना अपने अभीष्ट की प्राप्ति तथा अनिष्ट के निवारण हेतु प्रकट या अप्रकट भाव से करते हीं रहते हैं। सभी के अभीष्ट अलग अलग होते हैं। कोई उन्हें अर्थ के लिए दीनभाव से भजता है तो कोई आर्तभाव से अपने कष्ट के निवारण के लिये भगवान का कृपाकांक्षी है। भगवान के कतिपय भक्त भगवान की लीलाविग्रह एवं उनकी विभूतियों के बारे में अशेष जिज्ञासा रखते हैं एवं भगवान के विरले भक्त हीं उनके तत्वज्ञान से अभिसिक्त रहते हैं। ऐसे ही भक्तों को श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान ने क्रमशः अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु एवं ज्ञानी कहकर सभी को उदार तक कह दिया है। ये है भगवान की दृष्टि में अपने भक्तों का स्थान एवं सम्मान क्योंकि आगे तो उन्होंने ज्ञानी को अपना साक्षात स्वरूप हीं कह दिया।
श्रीमद्भगवद्गीता के सप्तम अध्याय पर हमने यह निवेदित किया है जिसमें वर्णित है-
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ।।
(7/17)
उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव में मतम्।
आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्।।
(7/18)
किन्तु सभी प्रकार के भक्त के लिये कर्म करने की अनिवार्यता है हीं क्योंकि भगवान ने स्वयं हीं ये स्पष्ट कर दिया है कि बिना कर्म के शरीरनिर्वाह भी सम्भव नहीं है।
नियत कुरू कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः।।
(3/8)
इसलिए भगवान ने कर्म को स्वरूप से त्यागने के बजाय कर्तव्य कर्म राग द्वेष रहित करने एवं इस प्रकार कर्मफल के प्रति आसक्ति को त्यागने हेतु अभ्यास करने को कहा है।
मेरे विचार से इस अभ्यास का आरम्भ इस तरह किया जा सकता है-
1. ऐसा स्वभाव विकसित किया जाय कि हम कोई भी कार्य भगवान का स्मरण कर के हीं करें। अगर यह आदत में शामिल कर लिया जाय कि हम प्रत्येक छोटा बड़ा अथवा दैनंदिन कार्य भी भगवान का स्मरण कर प्रारंभ करें तो धीरे धीरे उक्त कार्य में अहंता का भाव क्षीण होता जाता है।
2. आप अपनी सफलता का श्रेय कभी भी स्वयं न लें। यदि ऐसा स्पष्ट दीखता भी हो तब भी नहीं। इस प्रकार मिली सफलता या सिद्धि को अकर्ता भाव से देखें। यह भाव उदित करने का हो कि उनकी हीं कृपा से कोई कार्य आपका सिद्ध हुआ है, नहीं तो आपसे यह कदापि सम्भव नहीं था। इससे अहंकार का क्षय सुनिश्चित होता है। भगवान को धन्यवाद देने का अवसर खोजते रहना है। और विचार करके देखा जाय तो यह अवसर सदैव उपलब्ध है। यह भगवान की कृपा हीं है कि हमारा श्वास प्रश्वास चल रहा है वरना हम हैं हीं क्या? यह मज्जा, अस्थि, मेद, मांस, रक्त, चर्म और त्वचा निर्मित स्थूल शरीर का मोल हीं क्या है और श्वासविहीन शरीर से किसी को लगाव हीं क्या रह जाता है। यह समस्त सम्बन्ध किसी प्याऊ पर जलपात्र भरने को आये जनसमूहतुल्य हीं है जिनका कुछ समय बाद आपस में बिछुड़ना तय है।
3. ऐसा भाव विकसित किया जाय कि मेरा कुछ भी नहीं है। जो भी वर्तमान में मेरे पास है वह उनका हीं है, उनकी जब मर्जी होगी वे उसे हमसे लेकर किसी दूसरे को दे सकते हैं। ये धन, सम्पत्ति, सगा-सम्बन्ध, देह-गेह उपभोग-उपयोग सब उन्हीं की कृपा से निबह रहा है। इसके मिलने और बिछुड़ने पर सिर्फ और सिर्फ प्रभु का स्मरण करना है। अगर हम किसी लौकिक सुख सुविधा से वंचित हैं तो हमें विचलित नहीं होना है।हमें वह इसलिए प्राप्त नहीं है क्योंकि ईश्वर की दृष्टि में वह हमारे लिए आवश्यक नहीं है। भगवान हमारी आवश्यकता/जरूरत को जानते हैं इसलिए उनकी व्यवस्था पर संतोष करना सीखें। भगवान अवस्था के अनुसार व्यवस्था करते हैं। नारदजी के चाहने पर भी उन्होंने नारदजी की इच्छा पूरी नहीं की जबकि मुनिवर उनके अनन्य भक्त थे। अतःऐसा भाव दृढ़ किया जाय कि यदि सम्यक उद्योग के उपरांत भी सफलता प्राप्त नहीं हो रही है तो यह भी ईश्वर की हीं योजना है कि आप सफल न हों और इसमें आपका हीं कल्याण है।
4. यदि आप स्वयं को सज्जन मानते हैं तो वैसा व्यवहार करना सीखें। बहुत कुछ इस पर निर्भर करता है कि आप पहले स्वयं को मानते क्या हैं। अगर आप मान लेते हैं तो वैसा देर सवेरे बन भी जाते हैं। अगर कोई अधिकारी बन गया है तो वह स्वांग से हीं सही अधिकारी जैसा रौब जमाना सीख लेता है, उसी तरह का हाव भाव करना सीख जाता है। धीरे धीरे यही स्वांग उसका स्थायी भाव बन जाता है। उसी प्रकार भक्ति का भी स्वांग से हीं सही, निरंतर अभ्यास करने से स्वांग शरणागति में परिवर्तित हो जाता है।
5. एकबार जब शरणागति का भाव प्राप्त हो जाता है तो उसके जगत को देखने का तरीका बदल बदल जाता है। उसे जड़ चेतन सर्वत्र में भगवान के हीं दर्शन होने लगते हैं।
इसे हारे को हरिनाम नहीं कहिए, यह 'वासुदेव सर्वम्' का सिद्धांत है। ऐसी दृष्टि हो जाय तो कुछ कहना और करना शेष नहीं रह जाता। सब कुछ उनकी कृपाकटाक्ष से चलते रहता है, बदलते रहता है, सजते रहता है, संवरते रहता है, बिगड़ते रहता है, बनते रहता है।
राजीव रंजन प्रभाकर
31.08.2018
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