कर्मफल एवं पुनर्जन्म का सिद्धांत

भारतीय धर्मविषयक विमर्श कर्मफल एवं पुनर्जन्म के सिद्धांत पर आधारित है। सनातन धर्मावलम्बियों का  कर्मफल तथा पुनर्जन्म में अटूट विश्वास होता है। सभी सनातन धर्मशास्त्र इसका अनुमोदन भी करते हैं। मनुष्य जन्म को कर्मलेख आधारित कर्मफल का फलीभूतीकरण माना गया है। व्यक्ति में यह दृढ़ विश्वास सनातन काल से ही व्याप्त है कि मनुष्य अपने जीवनकाल में जो भी शुभ अशुभ कर्म करता है उसी के अनुरूप फल भोगने हेतु उसे दूसरा जन्म लेना पड़ता है। यह दूसरा जन्म आवश्यक नहीं कि मनुष्य योनि में हीं हो। विधाता द्वारा इसका निर्धारण हमारे वर्तमान जीवन में किये गये कर्म के आधार पर भी होता है। कर्म की गति बहुत गहन है तथा साधारणतया समझ की परिधि से परे है जब तक कि उस पर सूक्ष्मता से विचार न किया जाए। इसीलिए विवेकशील मनुष्य इस  मीमांसा में स्वयं को समर्थ न पाकर इस विश्वास के वशीभूत होकर यथासाध्य यह प्रयत्न करते हैं कि उसके द्वारा किया गया कर्म इस कोटि का गर्हित कर्म न हो कि उसका फल भोगने हेतु उसका अगला जन्म किसी तिर्यक योनि में हो जाय।
यह हम सभी अनुभव से जान सकते हैं कि कर्म बंधनकारक होता है। आप कोई भी कर्म करें और इसका फल प्राप्त न हो यह असम्भव है। अब चाहे वह कर्म शुभ हो या अशुभ। यह अनुभव सिद्ध मान्यता है कि शुभकर्म का फल शुभ तथा अशुभ का अशुभ होता है।
गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है -
   कर्म प्रधान विश्व करि राखा जो जस करहिं सो तस फल चाखा।
      इस प्रकार यह कर्मफल का सिद्धांत अपेल है।
किन्तु यह शुभाशुभ कर्म का फल कर्ता को कब मिलेगा, कितना मिलेगा, एकमुश्त मिलेगा या विभिन्न चरणों में मिलेगा, किस रूप में मिलेगा, इस जन्म में मिलेगा या अगले जन्म या जन्मों में ये सभी विधाता के अधीन है।
इस प्रसंग में महाभारत में यह कथा है कि कुरूक्षेत्र में अर्जुन के वाणवर्षा से विन्धे पितामह भीष्म सरशय्या पर पड़े असीम कष्ट से कराह रहे थे तब उन्होंने भगवान से यह निवेदन किया कि वे उन पर कृपा कर यह बतायें जो उन्हें कौन से अशुभ कर्म के दण्डस्वरूप यह कष्ट भोगना पड़ रहा है क्योंकि भीष्म कहते हैं कि  उन्हें अपने विगत बहत्तर जन्मों के कर्म का स्मरण है तथा इन सभी जन्मों में जहां तक उनकी जानकारी है उन्होंने ऐसा कोई गर्हित कर्म नहीं किया है जिसका फल यह असहनीय पीड़ा की प्राप्ति हो। भीष्म कहते हैं कि हे माधव मुझे यह कृपा करके बताइए कि मुझे मेरे किस अपकर्म का दण्ड मिल रहा है क्योंकि मैने अपनी सर्वोत्तम जानकारी के अनुसार सभी जन्मों में क्षत्रियोचित धर्म का हीं पालन किया है।
उत्तर में भगवान विचार कर कहते हैं कि पितामह आपको अपने विगत बहत्तर जन्मों का स्मरण जो है वह बिलकुल सही है तथा यह भी सत्य है कि इन सभी जन्मों में आपने ऐसा कोई गर्हित कर्म नहीं किया है जिसका फल आपको वर्तमान में असीम पीड़ा के रूप में भोगना पड़ रहा है। पितामह आपकी वर्तमान पीड़ा का कारण जो मैने अपने योगबल से जाना है वो ये है कि आपने अपने तिहत्तरवें पूर्वजन्म में अकारण हीं एक बिच्छू को कांटे से बिन्धते रहे और आनंदित होते रहे जब कि बिच्छू दर्द से छटपटाता रहा और आप बलांध इसकी वो अवस्था देख मूढ़तावश सुखी एवं आनंदित होते रहे। आपके वर्तमान कष्ट का हेतु आपका वही पूर्वकृत कर्म है जो प्रारब्धवश आपको भोगकर हीं आपकी मृत्यु होगी भले ही आपको वरदानस्वरूप ईच्छामृत्यु प्राप्त है किन्तु इससे आपके कष्ट में कोई अंतर नहीं होने को है।
ये है कर्म की महिमा। इसलिये कहते हैं कि मनुष्य को अपना कर्म अत्यंत सावधानीपूर्वक करना चाहिए।
इस प्रकार यह कहना सही है कि कर्म बंधनकारक है और यह बंध हीं पुनर्जन्म का हेतु है। इसलिए यह अनिवार्य है कि इस कर्मरूपी बंधन से मुक्त हुआ जाय तब हीं इस जन्म मृत्यु रूपी चक्र जिसे आवागमन चक्र भी कहते हैं, से पिंड छूट सकता है।
क्या ये पिंड छुड़ाना बहुत जरूरी है? अगर जरुरी नहीं है तो चौरासी लाख योनियों में भटकते रहिए। इसी को संसृतिक्लेश कहा गया है। मान लीजिए कि आप एक ऐसे मायावी भवन में किसी कारण से आ गये हों जिसका प्रत्येक कमरे का निकासद्वार किसी दूसरी कोठरी का प्रवेशविवर हो तब क्या आप नहीं चाहेंगे कि आप जल्द से जल्द इस भूलभुलैया से बाहर आकर मुक्ताकाश में सांस लें। हां अगर कोई संज्ञाशून्य है तब बात दूसरी है। यही बात संसार के सापेक्ष भी है।  पूर्वजन्मकृत पुण्यकर्म के परिपाकवश यदि आपका ज्ञान आपको इस तरह से प्रेरित करता है कि आप कर्मबंध से मुक्त होना चाहते हैं तो निश्चित रूप से अपने कर्म को स्वरूप से त्याग करने की बजाय आप कर्मफल के प्रति अपनी आसक्ति का त्याग करें। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान के द्वारा बलपूर्वक यही बात बार बार कहा गया है।
अब प्रश्न यह उठता है कि यदि कर्मफल का सिद्धांत जब अटल है तो कोई भगवान को क्यों भजे? प्रश्न दिखने में निर्दोष है किन्तु विवेचन से आत्मप्रवंचक हीं सिद्ध होता है। यही प्रश्न मैने अपने पूजनीय ज्येष्ठ भ्राता से किया था। उन्होंने तुरंत इसका जो उत्तर दिया वह यह कि भगवान तो नहीं कहते हैं कि आप उनको भजे हीं न हीं इसके लिए भगवान का कोई आपसे आग्रह है। भगवान ऐसा आग्रह अपने प्रिय भक्त से हीं करते हैं जैसाकि उन्होंने अर्जुन के लिए किया जिससे अर्जुन का मोहजनित अज्ञान का नाश हुआ और वह कर्तव्यकर्म को राग-द्वेष से निर्लिप्त होकर करने को प्रेरित हुआ।
भगवान को हम स्वयं स्फुरणावश भजते हैं। प्रभु का स्मरण, भजन, कीर्तन, पूजन, पादसेवन इत्यादि से अंतःकरण शुद्ध होता है, विशेषकर चित्त की शुद्धि से राग-द्वेष का नाश होता है जिससे कर्मफल के प्रति आसक्ति नष्ट हो जाती है और कर्मबंधन ढ़ीला पड़ता जाता है एवं मनुष्य इसके सतत अभ्यास से अंततः कर्मपाश से मुक्त हो संसृति(पुनर्जन्म)क्लेश से उबर जाता है।
मेरे ज्येष्ठ भ्राता ने एक दूसरी बात भी कही, वो ये कि भगवान यदि प्रसन्न होते हैं तो कर्मफल जनित दोष या भवितव्य को स्वप्न में भी घटित करा शमित कर देते हैं। वे क्या नहीं कर सकते हैं?
    कर्तुम अकर्तुम अन्यथाकर्तुम समर्थः नाम ईश्वरः
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान कहते हैं कि मनुष्य अन्तकाल में जिस जिस भी भाव का स्मरण करते हुए शरीर छोड़ता है, वह उस अन्तकाल के भाव से सदा भावित होता हुआ उस-उसको हीं प्राप्त होता है अर्थात् उस उस योनि में हीं चला जाता है।
इससे यह पता चल जाता है कि विभिन्न प्रकार के योनि में  कोई जीव क्यों जन्म लेता है। इसका हेतु हमारा कर्मजन्य आसक्ति हीं है जो अन्तकाल में भी पाये जाने के कारण उक्त भाव का कार्यरूप दूसरे जन्म में विद्यमान रहता है। इसीलिए भगवान अपने भक्त से कहते हैं कि मुझे तुम अपना कर्तव्य कर्म करते हुए सतत स्मरण कर। इससे तुम निस्संदेह मुझे हीं प्राप्त होगा।
इसके होते हुए भी यदि ईश्वर का स्मरण, भजन करने की आवश्यकता किसी को महसूस न हो तो इसकी कोई बाध्यता भी नहीं है किन्तु आग्रह मात्र इतना है कि वह जो भी करे कर्तव्यबोध से करे।
     स्वे स्वे कर्मण्यभिरत संसिद्धि लभते नरः।

         राजीव रंजन प्रभाकर
             29.08.2018
     

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