संसारोत्पत्ति :अध्यात्म की दृष्टि में
विश्व की उत्पत्ति, स्थिति एवं लय के आदिकारण का अन्वेषण भौतिकीवेत्ताओं को हमेशा से ही कौतूहल एवं चुनौती उपस्थित करता रहा है। किन्तु यथार्थ में एक ज्ञान-विज्ञान, श्रद्धा-विश्वास, भक्ति-वैराग्यसम्पन्न प्रभुभक्त के लिए यह सम्पूर्ण संसार हस्तामलक सदृश है और वह नारायण की कृपा से नारायण को हीं समस्त जगत एवं जागतिक दृश्य - अदृश्य प्रपंचों का आदिकारण समझता है।
अध्यात्मरामायण एक अद्भुत ग्रंथ है। ज्ञान, भक्ति और वैराग्य जो अज्ञानकल्पित बन्धन को काटने का अचूक शस्त्र है तथा जो भोगरूग्ण शरीर में निवास करने वाली आत्मा के लिये महौषधि तुल्य है, इस ग्रंथरत्न में इस तरह से समन्वित है कि इसका पता हीं नहीं चलता है और पाठक इस दैवी सम्पत्ति से उत्तरोत्तर सम्पन्न होता चला जाता है। इस रामकथारूपी सरितसागर में स्थान स्थान पर महामुनि व्यास की कृपा से अध्यात्मतत्व की अनुपम व्याख्या का मिलना अवगाहन करने वाले भगवान के जिज्ञासु तथा ज्ञानी भक्तों के लिये दुर्लभ ज्ञानरत्न की प्राप्तिस्वरूप हीं है।
अध्यात्मरामायण के अरण्यकांड के तृतीय सर्ग में संसारसृजन की झलक मिलती है। इस सर्ग में तत्वज्ञानमूर्ति मुनिवर अगस्त्य द्वारा जो परमात्मा राम की वंदना की गई है, में संसारोत्पत्ति का तात्विक विश्लेषण है जो तत्वान्वेषी के लिए विशेष प्रयोजन का तो है हीं मोक्षार्थी के लिए भी इसका पठन-पाठन, मनन-अनुशीलन लाभकारी है।
जब सुतीक्ष्ण मुनि की सहायता से भगवान राम सानुजभार्या कुम्भज ऋषि के आश्रम में पधारे तो मुनिश्रेष्ठ ने स्वयं उनका हाथ पकड़ आदरपूर्वक उच्चासन अर्पित किया तथा उनकी वंदना की।
अगस्त्यजी कहते हैं, "हे राम, सृष्टि के आरंभ में आपके अतिरिक्त कुछ भी नहीं था। आपने स्वयं को अनेक करने के निमित्त स्वयं की माया से माया के गुणों को अंगीकार किया। विक्षेप एवं आवरण आपकी मायाशक्ति के हीं कार्य हैं जिससे आप निर्गुण के आवृत होने के फलस्वरूप अव्याकृत उत्पन्न हुआ। आपके द्वारा यह क्षुभित होने से इस अव्याकृत से महतत्व प्रकट हुआ। महतत्व में विक्षेप ने अहंकार उत्पन्न किया जो सत्व, रज एवं तम गुणानुरूप वैकारिक, तैजस और तामस अहंकार कहलाया।
तामस अहंकार में विकार के परिणामस्वरूप शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध तन्मात्रा से क्रमशः शब्दगुण प्रधान आकाश, स्पर्शगुणप्रधान वायु, तेजगुणप्रधान अग्नि, रसप्रधान जल तथा गंधगुणअधिष्ठान पृथ्वीरूपी स्थूलपंचमहाभूत की उत्पत्ति हुई। चूंकि कारण के गुण कार्य में भी कार्य के प्रधानगुण के साथ सूक्ष्म एवं गौणरूपेण विद्यमान रहते हैं, अतः सभी पांचो महाभूत एक दूसरे के प्रधान गुणों को गौणरूपेण अपने स्वयं के प्रधान गुण के साथ धारण किये हुए हैं।
वैकारिक अहंकार का कार्यरूप परिणाम मन एवं इन्द्रियों के अधिष्ठान देवता हैं एवं ज्ञानेन्द्रिय तथा कर्मेन्द्रिय तैजस अहंकार में विकार से उत्पन्न हुए। अर्थात समस्त ज्ञानेन्द्रिय एवं कर्मेन्द्रिय तैजस अहंकार के कार्यरूप हैं।
हे राम, ये समस्त पंचमहाभूत, मन तथा इन्द्रियां स्वयमेव शरीर का निर्माण करने में सर्वथा असमर्थ थे। आप शक्तिमान में निहित शक्ति से प्रेरित होकर हीं कार्य, कर्म और स्वभाववश कार्य कारण भाव से ये आपस में मिल सके जिसके फलस्वरूप व्यष्टि-समष्टि पिण्ड और ब्रह्माण्ड की रचना हिरण्यगर्भ (सूत्रात्मा)में हुई। कई सहस्त्र वर्षों तक यह ब्रह्माण्ड यूं ही पड़ा रहा और इसे फोड़कर विराटपुरूष निकला जिसके अधोभाग में अर्थात् चरण से कटिपर्यंत पाताल सहित भूतल के नीचे के सभी लोक स्थित हैं।
मर्मज्ञ कहते हैं कि विराटपुरूष के तलुए में पाताल, पंजे में रसातल, एंड़ियों में महातल , पिंडली में तलातल , घुटनों में सुतल , जंघा में वितल एवं कमर में अतल की कल्पना की गई है।
विराटपुरूष के कटि के उर्ध्व भाग में ब्रह्मा के निवास सत्यलोक सहित सातों स्वर्ग की स्थिति है। विराटपुरूष का कटिप्रदेश भूलोक है। उसकी नाभि में भुवर्लोक, ह्रदय में स्वर्लोक, वक्षःस्थलपर महर्लोक, गले में जनलोक, दोनों स्तनों में तपोलोक और मस्तक में ब्रह्मा का नित्यनिवास सत्यलोक है।
हे राम, आपके द्वारा सृजित तथा लोक और वेदविश्रुत चातुर्वर्ण उस विराटपुरूष की मुख, भुजाओं , जंघाओं एवं चरणों में प्रतिष्ठित है।
हे स्वयंभो, जिस प्रकार मकड़ी अपने मुख से तंतुओं को निकाल महीन से महीन किन्तु सुगठित एवं सुसज्जित तंतुजाल का निर्माण करती है तथा कालक्रम में उस तंतुरचना को स्वयं उदरस्थ कर उसे स्वयं में हीं विलीन कर लेती है उसी प्रकार इस सृष्टि को भी प्रभु आपने खेल खेल में हीं स्वयं की सामग्री से स्वयं रचा है तथा विज्ञ इसे हीं मायाजाल कहते हैं। काल, कर्म और स्वभाववश उस मायाजाल को आप स्वयं में हीं लीन कर लेते हैं जिसे विज्ञजन लय कहते हैं। उत्पत्ति, स्थिति एवं लय को प्रभु आप क्रम से चलाते रहते हैं। आपके ज्ञानी भक्त इसे हीं सृष्टि-चक्र कहते हैं।
समस्त दृश्य-अदृश्य, स्थावर-जंगम, चलाचल, चराचर, चेतन-अचेतन जगत, सूक्ष्म-स्थूल-कारण शरीर इसी विराटपुरूष के अंगोपांग हैं।"
अर्थात् ये पर्वत, समुद्र, नदी, वृक्ष, लता, वन, अंडज, स्वेदज, उद्भिज एवं जरायुज सभी इस विराटपुरूष के विराटशरीर के अंगप्रत्यंग हैं। कहते हैं कि ऋषि अगस्त्य ने हीं भगवान राम को गौतमीकूल के सन्निकट पंचवटी में पर्णकुटी का निर्माण कर शेष वनवासावधि वहीं व्यतीत करने का सुझाव दिया।अस्तु।
सृष्टिरचना सम्बंधी विराटपौरूषेय सिद्धान्त का विस्तार से वर्णन श्रीमद्भागवत के द्वितीय स्कंध के पंचम अध्याय में मिलता है तथा विराटपुरूष की विभूतियों का विस्तृत विवरण इसके छठे अध्याय में है। इन्हीं ग्रंथरत्नों का आश्रय लेकर यहां इस प्रसंग में कुछ लिखने का प्रयास किया गया है जो विद्वान तथा विद्यावान दोनों की दृष्टि में सर्वथा अपर्याप्त हीं कहा जाना चाहिए।
किन्तु एक बात कहने की इच्छा होती है कि विश्वोत्पत्ति का यह अध्यात्मसम्मत विराटपौरूषेय सिद्धान्त कइयों की दृष्टि में भले हीं विज्ञानसम्मत न हो लेकिन सृष्टि रचना का विज्ञानसम्मत सिद्धान्त भी क्या मान्यता पर आधारित नहीं है? क्या वैज्ञानिकों का ब्रह्मांड की उत्पत्तिविषयक कथित बहुमान्य बिगबैंग सिद्धान्त बिना मान्यता की शरण लिये प्रतिपादित है? अंतर मात्र यही है कि इसे हम वैज्ञानिक मान्यता कह आदर देते हैं और वहीं आध्यात्मिक मान्यता को जड़ता से जोड़ने की कोशिश करते हैं।
शेष नारायणेच्छा।
राजीव रंजन प्रभाकर
श्रावण शुक्ल, एकादशी
सम्वत २०७५
22.08.2018
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