लोक शिकायत निवारण अधिकार अधिनियम, 2015 - एक परिचय
लोक प्रशासन की कुशलता सामान्यतया इस पर निर्भर है कि यह किस प्रकार अपने दायित्वों का निर्वहन कितनी संवेदनशीलता, तत्परता एवं गुणवत्ता के साथ करने में सक्षम है। इसकी कुशलता की आदर्श स्थिति यही हो सकती है कि इसके दायित्व निष्पादन के विरुद्ध किसी आमजन को किसी तरह की कोई शिकायत न हो। कहने की आवश्यकता नहीं है कि ये आदर्श स्थिति व्यवहार में नहीं हो सकती।
माननीय मुख्यमंत्री के नेतृत्व में अपना राज्य बिहार कई मामलों में अग्रणी सोच का परिचायक सिद्ध हुआ है। सबसे पहले अपने हीं राज्य में शासन द्वारा प्रशासनिक शुचिता एवं पारदर्शिता को सुनिश्चित करने हेतु सभी लोक सेवकों के लिए अपनी चल अचल सम्पत्ति की प्रतिवर्ष घोषणा किया जाना अनिवार्य किया गया जिसका कि अनुसरण पीछे के वर्षों में केन्द्र की सरकार ने भी किया। इस प्रदेश में जिला प्रशासन द्वारा प्रदान की जाने वाली सेवाओं के तहत कई सेवाएं जिसका कि आमजन से सीधा सरोकार होता है, को अधिनियमित कर एक निश्चित समय सीमा में उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी अधिकारियों को दी गई। यह अधिनियम लोक सेवाओं का अधिकार अधिनियम 2011 के रुप में अस्तित्व में आते हीं अपनी प्रभावी भूमिका अदा कर रहा है। इसके अन्तर्गत अब अधिकारियों की ये जिम्मेदारी बन गयी है कि वे इस अधिनियम के तहत अधिसूचित सेवाओं यथा, जाति प्रमाण पत्र, आवासीय प्रमाण पत्र, आय प्रमाण पत्र, ड्राइविंग लाइसेंस, भूमि का दाखिल खारिज इत्यादि आवेदक को निर्धारित समयसीमा में उपलब्ध करायें। इससे प्रशासनिक लेटलतीफी पर लगाम तो लगा ही साथ हीं प्रशासन के पेशेवराना क्षमता में भी उल्लेखनीय वृद्धि हुई है।
इसी कड़ी में लोक शिकायत निवारण अधिकार अधिनियम को भी देखने की जरूरत है जिसमें लोक शिकायत के समाधान की प्रक्रिया को अधिनियम का दर्जा माननीय मुख्यमंत्री की पहल पर प्राप्त होना सम्भव हुआ। यह अधिनियम 5 जून 2016 से प्रभावी है। यह राज्य के आम नागरिक को यह अधिकार प्रदान करता है कि राज्य सरकार के अधीनस्थ सभी विभागों तथा उसके अन्तर्गत क्षेत्रीय कार्यालयों के विरूद्घ यदि उन्हें कोई ऐसी शिकायत है जो कि इस अधिनियम में निवारण के निमित्त सूचीबद्ध है तो राज्य का आम नागरिक या नागरिकों का समूह परिवादी के रूप में अपने उक्त शिकायत को परिवाद के रूप में इस अधिनियम के तहत लोक शिकायत निवारण पदाधिकारी के समक्ष दायर कर सकेगा। परिवाद के दायर होने के पश्चात् लोक शिकायत निवारण पदाधिकारी अर्ध-न्यायिक प्रक्रिया के तहत सम्बंधित लोकप्राधिकार को नोटिस जारी कर परिवाद विषयक मामले की सुनवाई करेगा तथा सुनवाई के दौरान पाये गये तथ्यों के आलोक में परिवाद के निवारणार्थ एक निश्चित समयावधि(60 दिन) के अंदर आवश्यक विनिश्चय पारित कर परिवाद का निवारण सम्बंधित लोक प्राधिकार से करा सकेगा।
यही नहीं, परिवाद के निवारण या विनिश्चयन से असंतुष्ट होने की स्थिति में परिवादी को ये अधिकार है कि वे एक निश्चित समयसीमा (60 दिन) के भीतर प्रथम अपील तथा प्रथम अपील में पारित आदेश से व्यथित होने से पुनः 60 दिन के अंदर द्वितीय अपील सक्षम प्राधिकार के समक्ष दायर कर सकते हैं।
लोक शिकायत निवारण पदाधिकारी के रूप में बिहार प्रशासनिक सेवा के पदाधिकारियों की तैनाती पूरे प्रदेश में सभी अनुमंडल तथा जिला स्तर पर की गई है जहां लोक प्राधिकार के रूप में परिवाद से सम्बंधित क्रमशः अनुमंडल पदाधिकारी, जिला पदाधिकारी के नियंत्रणाधीन पदाधिकारी को लोक प्राधिकार की हैसियत से लोक शिकायत निवारण पदाधिकारी के समक्ष सुनवाई में उपस्थित होकर परिवाद के बाबत वस्तुस्थिति स्पष्ट करते हुए इसका निवारण करना होता है। इसके अतिरिक्त सरकार के प्रत्येक विभाग में विभागीय स्तर पर भी लोक शिकायत निवारण पदाधिकारी को तैनात किया गया है जो विभागीय स्तर पर निवारण होने योग्य मामले जो परिवाद के रूप में दायर होते हैं, की सुनवाई कर उसका निवारण लोक प्राधिकार से कराते हैं।
यहां यह भी उल्लेख किया जाना आवश्यक है कि परिवाद के तहत वही शिकायत इस अधिनियम के तहत दायर होने एवं निवारण योग्य माना गया है जो राज्य सरकार द्वारा राज्य में चलाई जा रही किसी योजना, कार्यक्रम या सेवा के सम्बन्ध में कोई फायदा या अनुतोष मांगने , या ऐसा फायदा या अनुतोष प्रदान करने में विफलता या विलम्ब या किसी लोक प्राधिकार के कृत्यकरण में विफलता से संबंधित हो। किन्तु यह भी स्पष्ट करना जरूरी है कि इस अधिनियम के तहत वैसे परिवाद लोक शिकायत निवारण पदाधिकारी के समक्ष सुनवाई हेतु नहीं लाये जा सकते हैं जो किसी लोक सेवक, चाहे वह सेवारत हो या सेवानिवृत्त, के सेवा मामलों से सम्बन्धित हो या किसी ऐसे मामले से ताल्लुक रखता हो जिसमें किसी न्यायालय या अधिकरण की अधिकारिता हो। इसी तरह सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 के अधीन कोई मामला तथा बिहार लोक सेवा के अधिकार अधिनियम, 2011 के अधीन अधिसूचित सेवाओं से सम्बन्धित शिकायत की भी इस अधिनियम के तहत परिवाद के रूप में सुनवाई नहीं की जा सकती है।
निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि ऐसी शिकायत जिसके लिए पहले से ही अधिनियम विशेष(सूचना का अधिकार या लोक सेवा का अधिकार) या प्राधिकरण विशेष इसके निराकरण हेतु मौजूद है अथवा शिकायत से संबंधित परिवादी का मामला किसी न्यायालय में पहले से विचाराधीन है तो फिर इसकी सुनवाई इस अधिनियम के तहत किये जाने का कोई औचित्य नहीं है, इसीलिए ऐसी शिकायतें परिवाद के रूप में इस अधिनियम में शामिल नहीं की गई है ताकि कोई भ्रम एवं अधिकारिता में व्यतिक्रम/टकराव से बचा जा सके और इनसे इतर प्रकृति के परिवादों का निवारण भी सम्भव हो सके।
इन सारे आपवादिक प्रावधान के होते हुए भी इस अधिनियम की उपयोगिता को किसी भी तरह से कम आंकने की कोशिश करना सच से मुंह मोड़ना होगा और सच यह है कि मात्र दो वर्षों में पूरे प्रदेश में लगभग 4 लाख मामले परिवाद के रूप में दायर हो चुके हैं जिसका निष्पादन भी अधिकांशतः हो गया है। यह इस अधिनियम की उपयोगिता को तथा राज्य की जनता का इस अधिनियम प्रचालित व्यवस्था पर विश्वास को हीं प्रमाणित करता है कि पूरे प्रदेश में प्रतिदिन हजारों की संख्या में परिवाद दायर होते हैं। यदि इसके तहत परिवाद का संतुष्टिपूर्ण निवारण नहीं होता तो इतने परिवाद दायर हीं नहीं होते।
इससे यह सहज हीं अनुमान लगाया जा सकता है कि यह अधिनियम आम जनों के लिए कितना उपयोगी है तथा जैसे जैसे राज्य की आमजनता में इसका प्रचार प्रसार होता जा रहा है इसकी उपयोगिता में भी लगातार वृद्धि महसूस की जा रही है।
इस अधिनियम के तहत राज्य की जनता को अपनी शिकायत के निवारण कराने का अधिकार प्रदान किया गया है। यह स्वयं में अत्यंत महत्वपूर्ण है। हम यह भी अनुभव से जानते हैं कि पहले किस प्रकार कोई व्यक्ति अपनी समस्या लेकर उसके समाधान हेतु किसी पदाधिकारी के समक्ष या उसके कार्यालय में याचक की मुद्रा में जाता था जहां पदाधिकारी उसकी समस्या को मात्र सुन भर लेने पर ऐसा व्यवहार करते थे मानो कोई बहुत बड़ा उपकार उस व्यक्ति के ऊपर कर दिया गया हो। वह व्यक्ति भी इतने मात्र से स्वयं को अनुग्रहित समझ लेता था, समाधान के लिए तो उसे अब से कार्यालय के बाबू की परिक्रमा करना शेष है हीं। "आज पदाधिकारी टूर पर हैं कल आइये, आज जो फाइल करते हैं वे छुट्टी पर हैं, कब आयेंगे, ये नहीं पता, कैसे पता चलेगा, देखिये इतना हमको फालतू टाईम नहीं है जो हम आप पर बर्बाद करें। जाइये साहब से पूछिये इत्यादि।" मतलब ये कि वह दौड़ता रहे। कोई नहीं जानता कि उसका काम कब होगा अथवा होगा भी या नहीं। हां यदि व्यक्ति रसूखदार है या दबंग है या ऊंची पहुंच वाला है तो साहब सहित सभी बाबू उसके सामने आते हीं द्रविड़प्राणायाम की मुद्रा में सेवा प्रदान करने के लिए आतुर हो जाता है जिसके बाबत एक सामान्य नागरिक अभी अभी फटकार खा चुका है।
इस अधिनियम के प्रभावी होने से परिस्थिति बदल गयी है। आज राज्य की जनता अधिकारपूर्वक अपने शिकायत का निवारण लोक शिकायत निवारण पदाधिकारी के समक्ष इंटरनेट के जरिए कहीं से भी परिवाद दायर कर करा सकती है।परिवाद के निष्पादन और निवारण हेतु लोक शिकायत निवारण पदाधिकारी को सिविल प्रक्रिया संहिता की वे सभी शक्तियां प्राप्त है जो एक सिविल न्यायालय को शपथ पर साक्ष्य लेने, सम्मन जारी करने, कागजात को मंगाने इत्यादि के लिए कोड द्वारा प्रदत्त है। और यदि वह परिवाद पर लोक शिकायत निवारण पदाधिकारी के विनिश्चयन से असंतुष्ट है तो अधिनियम में उक्त विनिश्चय के विरूद्ध प्रथम एवं द्वितीय अपील का भी प्रावधान किया गया है। कहने का तात्पर्य है कि परिवाद के निवारण में कोई खामी, लापरवाही अथवा शिथिलता के संदर्भ में परिवादी न केवल अपीलवाद के माध्यम से विषय वस्तु पर पारित विनिश्चय में त्रुटि को अपीलीय प्राधिकार के संज्ञान में लाकर उनसे यथोचित आदेश पारित करने हेतु अनुरोध कर सकेगा बल्कि यदि सक्षम अपीलीय प्राधिकार(द्वितीय अपीलीय प्राधिकार) का यह समाधान हो जाता है कि लोक प्राधिकार या लोक शिकायत निवारण पदाधिकारी या प्रथम अपीलीय प्राधिकार अपने अधिनियमित दायित्वों के निर्वहन में बिना पर्याप्त एवं युक्तियुक्त कारण के विफल रहा है तो वैसी स्थिति में उस पर 500 रू. से लेकर 5000 रू. तक का दण्ड अधिरोपित किया जा सकता है जो दंडित पदाधिकारी के वेतन से वसूलनीय है। किन्तु इस अधिनियम में भी नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत को अनदेखा नहीं किया गया है। दंड अधिरोपित करने के पूर्व उस व्यक्ति को जिस पर शास्ति अधिरोपित किया जाना प्रस्तावित हो, सुने जाने का युक्तियुक्त अवसर प्रदान किया जायेगा।
इस अधिनियम की दूसरी महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसके तहत परिवादी को परिवाद दायर करने में किसी प्रकार का कोर्ट फीस का भुगतान नहीं करना होता है। उल्लेखनीय है कि दीवानी न्यायालयों में बिना कोर्ट फीस के मामला चल हीं नहीं सकता है और वह खारिज हो जायेगा। साथ हीं इस अधिनियम के तहत सुनवाई में परिवादी को किसी वकील या अधिवक्ता के माध्यम से अपनी बात को नहीं रखना है। परिवादी या उनके साथ आये उनका निकट सम्बंधी लोक शिकायत निवारण पदाधिकारी के समक्ष सुनवाई में सारी बातें स्वयं रखता है। उसे किसी अधिवक्ता की इस हेतु सेवा लेने की जरूरत नहीं है।
इस अधिनियम के तहत परिवाद के निष्पादन की एक और खासियत है जो सिविल न्यायालय में वादों के निष्पादन से अलग किस्म का है। सिविल न्यायालय में यदि वादी स्वयं या वकालतन सुनवाई की तिथियों पर लगातार गैर हाजिर रहता है तो उसका मुकदमा अदमपैरवी के बिना पर न्यायालय से खारिज कर दिया जाता है। किन्तु लोक शिकायत निवारण अधिकार अधिनियम के तहत दायर परिवाद को परिवादी के सुनवाई में गैर हाजिर रहने को आधार बना उसके परिवाद को खारिज नहीं किया जा सकता है। लोक शिकायत निवारण पदाधिकारी को परिवाद में अंकित विषयवस्तु पर लोक प्राधिकार का पक्ष जानकर तथा तत्सबंधी प्रतिवेदन प्राप्त कर गुण दोष की विवेचना उपरांत परिवाद का विनिश्चय करना है भले हीं परिवादी सुनवाई में कभी भी उपस्थित न हुए हों। इसके अतिरिक्त परिवाद का निर्धारित समय सीमा के भीतर निष्पादन का अधिनियम में प्रावधान कर लोक प्राधिकार को लोक शिकायत के निराकरण के प्रति संवेदनशील तथा जवाबदेह बनाया गया है। स्मरण रहे कि अभी तक सिविल न्यायालय में किसी वाद के निष्पादन की समय सीमा तय नहीं है।
अधिनियम के संदर्भ में उपरोक्त प्रकार से वर्णन करने का अभिप्राय यही है कि यह स्पष्ट हो जाय कि सरकार ने इस अधिनियम को बनाकर राज्य की जनता को सस्ता एवं सुलभ न्याय एक निश्चित समय सीमा में उपलब्ध कराने की दिशा में एक बेहद कारगर कदम उठाया है। यह भी कहना उचित है कि न्यायिक प्रणाली के उन सभी दुर्गुणों से इस अधिनियम को बचाने का प्रयास किया गया है जो न्यायिक पद्धति को लोक सुलभता से विचलित करती है। हमें यह ध्यान देना होगा कि कोई काम न होने या लंबित रहने के कारण आमजन को इसके लिए उच्च न्यायालय की शरण तक में जाना पड़ता था। यद्यपि न्यायालय लोग अन्य राहत जिसका अधिनियम से निवारण सम्भव नहीं है, के लिए जायेंगे हीं किन्तु यह भी सत्य है कि इस अधिनियम के लागू होने से उच्च न्यायालय के समय में बचत होगा तथा गुरूत्तर महत्ता वाले मामले के निष्पादन का ज्यादा समय मिलेगा एवं इस तरह न्यायालय के कार्यबोझ में कमी आना चाहिए।
ऐसा नहीं है कि इस अधिनियम से राज्य की जनता की शिकायत पूरी तरह से दूर हो जायेगी किन्तु इतना तो निश्चित है कि परिवाद निवारण की यह प्रणाली अधिनियम संरक्षित होने से आमजन को नौकरशाही के लेटलतीफी एवं मनमानेपन को नियंत्रित करने का हथियार मिल चुका है जिसे वे भविष्य में और धारदार बनाने की मांग शासन से कर सकते हैं।
राजीव रंजन प्रभाकर
जिला लोक शिकायत निवारण पदाधिकारी,
दरभंगा
11.08.2018
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