श्रीसीताराम विवाह : धनुष यज्ञ पर एक छोटी सी चर्चा.

महाराज जनक द्वारा अपनी पुत्री सीता के विवाह हेतु आयोजित स्वयंवर समारोह नानादेशीय आगंतुक राज-समाज से खचाखच भरा था. गाल बजाने वाले सारे राजा पराभव को प्राप्त हो चुके थे. सम्पूर्ण नृप समाज नीचे सिर झुकाए अपने स्थान पर बैठ चुका था. 
धनुष को तोड़ने की बात तो दूर शिवजी के उस पिनाक धनुष को भूमि से तिल भर भी वे छुड़ा न सके; पहले अकेले फिर सब मिलकर भी. इधर रावण और बाणासुर भी धनुष को देख चुपके से निकल गये.
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संताप और रोष से भरे जनक कहने लगे-मैं समझ गया.ये धरती अब वीर विहीन हो गई है. मेरी पुत्री से विवाह की कामना लिए मनुष्य रूप धारण कर देवता तथा राक्षस पर्यंत इस स्वयंवर में सम्मिलित हुए. द्वीप-द्वीप का नृप समाज मेरी लक्ष्मीरूपा पुत्री से विवाह की कामना लिए अपने भाग्य आजमाने के लिए यहां आया. 

किंतु यह मेरे लिए आश्चर्य एवं क्षोभ दोनों का विषय है कि इन बड़े-बड़े रणबीर एवं रणधीर राजाओं में कोई भी धनुष तोड़ने की बात तो दूर उसे भूमि से तिल भर भी न छुड़ा सका! 

 समय रहते मुझे इसका यदि किंचित भान मात्र हो जाता कि अब यह धरती वीर विहीन हो चुकी है तो मैं ऐसी प्रतिज्ञा कर अपनी जग हॅंसाई कदापि नहीं कराता. 

जनक विलाप करते हुए बोले-
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तजहु आस निज निज गृह जाहू।
लिखा न बिधि बैदेहि बिबाहू ।।
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लगता है कि ब्रह्मा ने मेरी पुत्री के भाग्य में विवाह लिखा हीं नहीं है.
अब क्या करें; मेरी बेटी को कुॅंवारी हीं रहना पड़ेगा. मेरी बेटी का किसी तरह ब्याह हो जाए इसके लिए मैं अपनी प्रतिज्ञा नहीं तोड़ सकता.
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      जनक के ऐसे कटु वचन लक्ष्मण के लिए असहनीय था. वे क्रोध से भर ग‌ए;तुनक कर बोल उठे-जिस समाज में कोई रघुवंशी हो और विशेषकर वहाॅं जहाॅं साक्षात् रघुकुलमणि श्रीराम स्वयं उपस्थित हों, वहाॅं ऐसे वचन महाराज जनक को बोलना नहीं चाहिए.
  सभी लोग सुन लें- हूॅंह! ये पुराना धनुष! हे रघुकुलमणि श्रीराम!आप यदि आज्ञा दें तो मैं खेल-खेल में हीं इस धनुष को लेकर सौ योजन तक दौड़ता हुआ इसे कमल की डंडी की तरह बीच से तोड़ कर फेंक दूॅं. ऐसा यदि मैं न कर सकूॅं तो उपस्थित इस सम्पूर्ण समाज के समक्ष यह शपथ करता हूॅं कि आजीवन किसी भी धनुष-बाण को हाथ तक न लगाउॅंगा.
सिंहकिशोर लक्ष्मण की बात सुनकर सभी सहम गए.
श्रीराम ने लक्ष्मण को हाथ पकड़कर अपने पास बिठा लिया.
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महाराज जनक का कारुणिक विलाप महामुनि विश्वामित्र को देखा न गया.
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महर्षि विश्वामित्र राम की ओर देखते हुए बोले- राम! उठो;धनुष को तोड़ कर महाराज जनक के संताप को दूर करो वत्स!
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उठहु राम भंजहु भव चापा।मेटहु तात जनक परितापा।।
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गुरु विश्वामित्र की आज्ञा पाकर प्रभु श्रीराम बिना किसी हर्ष-विषाद के उठे और वहां पहुंचे जहां धनुष अपने टूट जाने के लिए उनकी प्रतीक्षा कर रहा था. 
सभी एकटक श्रीराम के उठने से लेकर धनुष के पास पहुंचने और तोड़ने की सांसें रोके प्रतीक्षा कर रहे थे और अपने-अपने इष्ट का स्मरण करते हुए यह मना रहे थे कि राम उस धनुष को तोड़ सकें और जनकनन्दिनी सीता का विवाह हो जाए. अब तक सभी राजाओं ने उन्हें निराश हीं किया था.

श्रीराम को धनुष की तरफ आते देख राजमहिषी सुनयना बोल उठी-अरे!महाराज को कोई समझाता क्यों नहीं है? लगता है सबकी मति मारी गई है. महाराज जनक तो ज्ञानी हैं वे मुनिवर विश्वामित्र को क्यों नहीं समझा कर कह रहे हैं कि धनुष तोड़ना इन बालकों के बूते की बात नहीं है.बड़े-बड़े शूरवीर हारकर बैठ ग‌ए हैं; यहां तक रावण और बाणासुर धनुष को देखते हीं चुपके से निकल गये.धनुष तोड़ना बच्चों का कोई खेल है!
अरे कोई है जो महाराज जनक से जाकर कहे कि वे महर्षि विश्वामित्र को विनयपूर्वक समझा कर कह दें कि मुनिवर! रहने दीजिए. बालक को ऐसा असाध्य परिश्रम करने की आज्ञा न दीजिए.
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परन्तु आश्चर्य !
लेत चढ़ावत खैंचत गाढ़े। काहुॅं न लखा देख सबु ठाढ़ें।।
तेहि छन राम मध्य धनु तोरा।भरे भुवन धुनि घोर कठोरा ।।
कोई भी भगवान श्रीराम को धनुष को लेते,चढाते और जोर से खींचते हुए नहीं देख सका अर्थात् ये तीनों काम इतनी फुर्ती से हुए कि धनुष को कब उठाया,कब चढ़ाया और कब खींचा,इसका किसी को पता हीं नहीं चला; सबने श्रीराम को खड़े देखा और उसी क्षण श्रीराम ने धनुष को बीच से तोड़ डाला.
भयंकर कठोर ध्वनि से सभी लोक भर गये.
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 तीनों लोक (धरती,आकाश और पाताल) सभी प्राण धारियों के कर्णविदीर्ण करने वाले घोर एवं कठोर शब्द नाद से गूंज उठे. 
सूर्य के घोड़े मार्ग छोड़कर चलने लगे.चारो दिशाओं के हाथी(दिग्गज) चिंघाड़ने लगे, धरती डोलने लगी,शेष, वाराह और कच्छप कलमला उठे.देवता राक्षस और मुनि कानों पर हाथ रखकर सब व्याकुल होकर विचारने लगे.
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गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं -जब सबको यह निश्चय हो गया कि श्रीरामजी ने धनुष को तोड़ डाला,तब सब 'श्रीरामचन्द्र की जय' बोलने लगे.
                      
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महाराज जनक विश्वामित्र के चरणों में गिर पड़े; बोले- मुनिवर! आपकी कृपा से मैं आज कृतार्थ हुआ. आपने आज एक बेटी के बाप की लाज रख ली.अब आगे मेरे लिए क्या आज्ञा है?
विश्वामित्र जी बोले- महाराज जनक! वैसे तो धनुष के टूटने के साथ हीं आपकी दुलारी सीता का विवाह श्रीराम के साथ हो गया तथापि अब हे राजन!अब आप अपनी वंश परम्परा एवं लौकिक व्यवहार के अनुसार वैवाहिक समारोह की तैयारी कीजिए और महाराज दशरथ को दूत भेज यह शुभ संदेश सुना‌कर उन्हें सुख पहुॅंचाइए तथा उन्हें 
बारात लेकर जनकपुर आने हेतु सादर आमंत्रित करें.
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             ~(रामचरितमानस से)
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                                        एक प्रयासात्मक प्रस्तुति. 
                           राजीव रंजन प्रभाकर.
          विवाह पंचमी की सादर शुभकामना.🙏🌺🌹

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