ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति

ऐसे अनगिनत लोग हैं जो ईश्वर की सत्ता को नकारते हैं.उन विद्वानों का मानना होता है कि प्रकृति हीं सब कुछ है. जो कुछ भी दिखता है या नहीं भी दिखता है,वह सभी प्रकृति का हीं नानाविध परिवर्तित रूप है. 
किंतु यह आंशिक रूप से हीं सही है.
प्रकृति की यही जो परिवर्तनकारिणी शक्ति है तथा उस शक्ति का जो अधिष्ठान है, वही ईश्वर है. 
उपरोक्त को भगवद्गीता इस श्लोक में 'शाखाचंद्रन्याय' से प्रतिपादित किया गया है.
ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्ररूढ़ानि मायया।।
भावार्थ-ईश्वर सभी के हृदय में विराजमान है. सभी का मतलब सभी- हाॅं!जड़ और चेतन दोनों.
वे ईश्वर हीं हमें आपको और अन्य सभी को यंत्रवत अपनी इच्छा से (जिसे उपरोक्त श्लोक में माया कहा गया है) अपने अदृश्य हाथों से घुमा-घुमाकर नचा रहे हैं.

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चलिए यह तो हुई शास्त्रोक्त बातें. कुछ अनुभव की बात भी कर लेते हैं जो हमारा आपका और सभी का अनुभव है और यह अनुभव कोई नया नहीं है.
अनुभव कहता है कि हमारे जीवन में सब कुछ वैसा नहीं होता जैसा कि हम-आप चाहते हैं चाहे आपके पास पुरंदर की शक्ति क्यों न हो.इसका अर्थ यह हुआ कि आपकी इच्छा से ऊपर भी किसी की इच्छा है जो आपकी इच्छा से वरिष्ठ एवं बलिष्ठ है.
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यदि हम अपने ज्ञान चक्षुओं को सक्रिय कर जीवन जीने का प्रयत्न करें तो हम सहज हीं पाते हैं कि अपने जीवन में हम सभी को अपने से श्रेष्ठ लोगों का प्रायः क़दम-क़दम अथवा समय-समय पर या कालांतर में हीं सही, दर्शन होता हीं रहता है. 
भले उसे हम मूढ़ता से या अहं वश दरगुज़र कर देते हों,यह दूसरी बात हुई.
कहने का आशय है कि इस जग में आपसे श्रेष्ठ व्यक्ति या उसकी सत्ता सदैव विद्यमान है, यदि आपको इसका अनुभव नहीं हुआ है तो आप मूर्ख हैं, मूढ़ हैं या निदान आपने उसका साक्षात्कार नहीं किया है.
और यदि आपको इसका अनुभव हुआ है तो आप इस सत्य का भी अनुभव देर सवेर कर लेते हैं या कर लेंगे कि उस श्रेष्ठ व्यक्ति/सत्ता से भी कोई श्रेष्ठतर व्यक्ति/सत्ता इसी समाज में/देश में या संसार में उसी क्षण विद्यमान है.
मतलब सदैव कोई है जो आपसे श्रेष्ठ है, बलवान है, धनवान है, गुणवान है, ज्ञानवान है, शक्तिमान है या कहिए उत्तम है.
यदि यह सत्य है (जो कि है हीं) तो उस उत्तम से भी कोई उत्तम है,उससे भी कोई उत्तम है,उससे भी कोई उत्तम है,उससे भी कोई उत्तम है, उससे भी कोई उत्तम है—--
और इस उत्तमोत्तमता का अंतिम सोपान पर आसीन व्यक्ति (जिसे व्यक्ति कहिए तो भगवान अथवा सत्ता कहिए तो ब्रह्म)जिसे हम-आप देख-सोच या visualize नहीं पा रहे हैं वही तो "पुरूषोत्तम" है!
बात भी अनहोनी नहीं है-
"कार्य" "कारण"को कैसे जान सकता है? हम सभी उसके "कार्य" हीं तो है!
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       पुनः भगवद्गीता का हीं एक श्लोक का आश्रय लेकर अपनी बात को समाप्त करते हैं-
यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम्।।
अर्जुन! जो कुछ भी इस जगत में विभूतियुक्त अर्थात् ऐश्वर्य युक्त, कांतियुक्त और शक्तियुक्त है,उसको तू मेरे हीं तेज के अंशमात्र से उत्पन्न जान; वे सभी मेरी अंशमात्र में अभिव्यक्ति से अधिक नहीं है.
     राजीव रंजन प्रभाकर
        २९.१०.२०२३.

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