"राम" नाम का मूल्य

आज संसार में प्रत्येक वस्तु के मूल्य का निर्धारण उसके कीमत से होता है न कि कीमत उस वस्तु के मूल्य से तय होती है. हम इतने मूढ़ हो चले हैं कि जो अमूल्य है उसकी भी कीमत लगाने से बाज नहीं आते. संक्षेप में हर चीज के गर्दन में एक प्राइस टैग लगा है.
 व्यक्ति स्वयं को जितना ही rational समझता जाता है उसमें दुनियादारी की समझ बढ़ती जाती है; मन में श्रद्धा-विश्वास के भाव का क्षरण होता जाता है; जीवन के प्रत्येक संव्यवहार में उसकी बुद्धि नफा-नुकसान की गणना से ग्रस्त रहती है. स्वयं को श्रेष्ठ समझने के साथ-साथ वह हर उस व्यक्ति को दया का पात्र समझता है जो भगवान के प्रीत्यर्थ भजन भाव रखता हो.

   खैर विषयांतर होने से पहले मैं यह क्यों लिख रहा हूं उसके बारे में बताना चाहता हूं कि एक कथा है जिसे किसी विरक्त संत ने भाईजी श्रीहनुमानप्रसादजीपोद्दार(कल्याण पत्रिका के आदि संपादक) को सुनाई थी.
       यह कथा कल्याण पत्रिका में प्रकाशित है. इस कथा में वर्णित है कि कैसे किसी जीवात्मा ने
'राम' नाम का मूल्य जानने की चेष्टा की थी जिसे उस जीव ने अपने सांसारिक जीवन में मात्र एक बार परवश होकर उच्चारण मात्र किया था; श्रद्धा, भक्ति और विश्वास की बात तो दूर. 
कथा चाहे कल्पित हो पर 'राम' नाम की महिमा का दिग्दर्शन तो करा ही जाती है जो श्रद्धालु के लिए तो सत्य है किन्तु बुद्धिजीवियों(intellectuals) के लिए शायद हास-परिहास अथवा उपहास की विषयवस्तु.अस्तु.
               इसी कथा को भगवान श्रीराम के प्रीत्यर्थ अपने शब्दों में कहने/लिखने का प्रयत्न मैंने किया है. प्रभु श्रीराम से प्रार्थना है कि वे मुझे ऐसा करने का सामर्थ्य प्रदान करें.
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        दो भाई थे.थे तो सहोदर किंतु दोनों के स्वभाव में बड़ा हीं अंतर था. बड़ा भाई कम पढ़ा-लिखा था. स्वभाव से सरल और साधुसेवी था. गांव में जब भी कोई साधु महात्मा का पदार्पण होता तो वह उन्हें भोजन कराने के लिए अपने घर ले आता और उन्हें दानादि से सम्मानपूर्वक विदा करता. उसके इस स्वभाव से परिचित हो उसके यहां साधु-संतों का आना- जाना लगा रहता था. कभी-कभी तो संतो की क‌ई मंडली भी एक साथ पहुंच जाती किंतु इससे वह प्रसन्न हीं होता एवं यथोचित दान-सम्मान के साथ उन्हें विदा करता. अपने इस सरल स्वभाव के चलते कभी-कभी ठगा भी जाता किंतु इसकी वह कोई परवाह नहीं करता. ईश्वर की कृपा से दोनों भाई जो साथ हीं थे,को इतनी जमीन जायदाद विरासत में मिली थी जिससे ये सारे खर्च चलते रहने में कोई परेशानी नहीं थी.
इसके विपरीत छोटा भाई शहर से पढ़ कर आया था.स्वयं को प्रगतिशील समझता था.उसे भगवानादि पर कोई विश्वास नहीं था. बड़े भाई द्वारा साधु-संतों की सेवा करना उसे बहुत अखरता किंतु इसका सीधा विरोध करना कुछ ठीक नहीं समझता. बड़े भाई के कार्यकलाप से वह भीतर ही भीतर कुढ़ता रहता था. उसे ये सारे साधु-संत समाज पर बोझ मालूम पड़ते. साधु-संतों को वह समाज का अनुत्पादक वर्ग समझता था जो उसके भाई सरीखे लोगों के अंधविश्वास से पोषित है. घर आते साधु-संतों के वह पास भी नहीं फटकता उल्टे जब भी ऐसा कोई कार्यक्रम होता वह घर से बाहर निकल जाता.
बड़ा भाई ये सब समझ बहुत दुखी रहता था. कभी-कभी अवसर पाकर वह उसे समझाने की कोशिश भी करता. किंतु छोटा बड़े को बिल्कुल ही मूढ़बुद्धि समझता. बड़े की भक्ति और आस्था सम्बंधी बातों का उस पर कोई असर नहीं होता. जब भी कभी ऐसी बातें होती वह अंग्रेजी की कोई किताब लेकर उसे उलटने-पलटने लगता मानो जो भी बातें हो रही है वह मूर्खतापूर्ण प्रलाप हो.
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        एक बार की बात है गांव में एक महात्मा का मंडली सहित आगमन हुआ. महात्मा के पास पहुंच बड़े भाई ने उन्हें मंडली सहित अपने यहां भोजन के लिए आमंत्रित किया. बात-बात में बड़े भाई ने महात्मा को अपने छोटे भाई के बारे बताया कि उसका अनुज कदाचित अंग्रेजी शिक्षा के अधीन न केवल नास्तिक की तरह व्यवहार करता है बल्कि धार्मिक मान्यता के साथ-साथ देवी-देवताओं का भी उपहास और मजाक उड़ाया करता है. वह उसके स्वभाव से बहुत दुःखी रहता है.
सारी बात जान महात्मा जी ने पता नहीं क्यों ऐसा कहा-" ठीक है! तुम मंडली को भोजन के लिए उस समय बुलाना जब तुम्हारा भाई घर पर रहे. और एक बाजा भी हम मंडली को मुहैया करा दो. मंडली तुम्हारे यहां बाजा बजाते जायेगी और भोजन के पश्चात बाजा बजाते लौटेंगी."
यकायक घर पर संतो की मंडली को बाजा बजाते पहुंचा देख छोटे को बाहर निकलने का अवसर न मिल सका. खिन्न और क्रोधित होकर उसने स्वयं को एक कमरे में बंद कर लिया और साधु-संतों के जाने की प्रतीक्षा करने लगा.
ये देख महात्माजी ने भी उस कमरे की बाहर से कुंडी लगा दी. फिर संतमंडली ने भोजन किया.
जब भोजन समाप्त हुआ तो संत मंडली फिर बाजा बजाते जाने लगी किंतु महात्माजी वहीं कमरे के सामने चुपचाप खड़े हो गए. 
जब बाजे वाली आवाज धीरे-धीरे दूर होते चली गई तो छोटे को लगा कि चलो झंझट टला; ये लोग गये. अब निकलता हूं.
उसने अंदर की कुंडी को खोल दरवाजा खोलना चाहा किन्तु दरवाजा बाहर से बंद रहने से नहीं खुला.उसने लगभग चीखते हुए कहा-दरवाजा किसने बाहर से बंद कर दिया है? जल्दी दरवाजा खोलो. इन पाखंडियों ने नाक में दम कर दिया है.अब बहुत हुआ दोनों भाइयों में बंटवारा अब हो हीं जाना चाहिए. छोटा अंटशंट अंग्रेजी में बके जा रहा था.
बाहर खड़े महात्माजी ने बाहर की कुंडी हटा दी.जैसे ही छोटा कमरे से निकला महात्मा ने उसका हाथ पकड़ लिया.
गुस्से में उसने महात्मा जी से अपना हाथ छुड़ाने की कोशिश करते हुए कहा- हट! छोड़ मेरा हाथ. मेरे भाई के पास ही जा.वहीं तुम्हारी दाल गलने वाली है,मेरे पास नहीं.पाखंडी कहीं के; चल भाग यहां से! 
  महात्माजी ने हंसकर कहा- बेटा! मैं ऐसे हाथ नहीं छोड़ने वाला. पहले तूं एक बार 'राम' बोल.
छोटा- मैं नहीं बोलूंगा तूं क्या कर लेगा?
महात्मा ने फिर हंसते कहा- फिर मैं भी हाथ नहीं छोड़ने वाला.बेटा तूं छुड़ा कर देख ले!
ब्रह्मचारी महात्मा के तेज तथा बाहुबल के सामने छोटा लाख कोशिश के बावजूद अपना हाथ छुड़ाने में कामयाब नहीं हो पा रहा था. 
अंत में विवश हो कर उसे 'राम' बोलना पड़ा.
जैसे ही छोटे ने 'राम' बोला महात्माजी ने उसका हाथ छोड़ते हुए और हंस कर अपनी आंखें नचाते हुए कहा-"बेटा! राम बोला है. इसे बेचना नहीं!"
बात आई गई हो गई. सिवा इसके कि भाईयों में अब बंटवारा हो चुका था. बड़ा अब और आजादी से साधु-संतों की सेवा करता और छोटा अपने तरीके से आजाद जीवन जीने लगा. लेकिन छोटे की आजादख्याली ने बहुत सारे ऐसे कार्यकलापों को जन्म दे दिया जो मर्यादानुकूल नहीं थे. लेकिन उस पर चर्चा करना इस कहानी का अभीष्ट नहीं है.
समय बीतता गया तथा समय के अनुसार दोनों भाइयों का देहांत हो गया. पहले बड़े भाई का और बाद में उतने ही वर्ष बाद छोटे का जितना कि वह बड़े से छोटा था.
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 यमराज के दरबार में जब देहांत के पश्चात छोटे के पाप पुण्य का हिसाब चल रहा था तो लेखपाल भगवान चित्रगुप्त ने कहा- इस जीवात्मा ने धरा धाम पर कोई ऐसा पुण्य कार्य किया हो सो लेजर देखने से पता नहीं चलता सिवा इसके कि इसकी जिह्वा से एक बार किसी महात्मा के सम्मुख 'राम' नाम का उच्चारण हुआ है वो भी बाध्य होकर जबरदस्ती. बांकि धरती पर इसके अन्य जो कर्म कारित हुए हैं उसके लिए तो यहां के कोड के अनुसार दंड का हीं विधान बनता है.
ये सुन यमराज ने 'राम' नाम शब्द उच्चारण करने वाले के प्रति मन ही मन श्रद्धा प्रकट करते कहा- जीव! धरती पर तूने एक बार 'राम' शब्द का उच्चारण किया है इस 'राम' नाम के बदले जो चाहो सो ले लो; उसके बाद तुम्हें पापों का फल भोगना होगा.
यह सुन जीव को उस महात्मा की बात याद आ गई.उसने यमराज से कहा-"मैं राम नाम को बेचना तो नहीं चाहता लेकिन तुम पहले ये बताओ कि मेरे इस 'राम' नाम उच्चारण का क्या मूल्य है. 
जीवात्मा की धराधाम पर सीखी rational बुद्धि यहां भी बखूबी काम कर रही थी.
यह सुन यमराज सोच में पड़ गये. राम नाम का मूल्य आंकने में वे असमर्थ थे. उसने जीव से कहा- चलते हैं देवराज इन्द्र के पास; उन्हीं से राम नाम का मूल्य क्या होता है; पूछते हैं.
 उस जीव ने कहा-मैं यों नहीं जाता. मेरे लिए एक पालकी मंगाई जाय और उसमें कहारों के साथ आप भी लगें.
जीव ने मन ही मन सोचा कि 'राम नाम का मूल्य जब ये नहीं बता सकते तो अवश्य ही वह बहुत बड़ी चीज है और इसकी परीक्षा इसी से हो जाएगी यमराज मेरी पालकी ढ़ोने वाले कहार बनते हैं या नहीं.'
उसकी बात सुनकर यमराज सकुचाए तो सही किंतु अगले ही पल सारे पापों का तुरंत नाश कर देने वाले और मन बुद्धि से अतीत फलदाता भगवन्नाम के लेनेवाले की पालकी उठाना अपने लिए सौभाग्य समझ वे पालकी में लग गए.
     पालकी पहुंची स्वर्ग. यमराज को पालकी में लगा देख देवराज चकरा गए. पीछे जब बात मालूम हुई तो उन्होंने भी राम नाम का मूल्य बता पाने में अपनी असमर्थता जताई.
उन्होंने आगे कहा- हो सकता है पितामह ब्रह्माजी को राम नाम का मूल्य पता हो. चलिए उन्हीं से पूछते हैं.
जीव ने फिर कहा- मैं वैसे वहां नहीं जानेवाला. आप भी पालकी में लगो तभी जाउंगा.
 यही हुआ. एक तरफ से देवराज और दूसरी तरफ से यमराज ने पालकी उठाया और ब्रह्माजी के दरबार ब्रह्मलोक पहुंचे. एक तरफ से देवलोकेश तथा दूसरी ओर यमलोकेश को एक अदना सा जीव की पालकी के दोनों ओर जुता देख ब्रह्माजी घोर आश्चर्य में पड़ ग‌ए.
उनसे भी जब राम नाम का मूल्य पूछा गया तो वे भी कुछ नहीं बता पाए.उनकी भी बुद्धि कुंठित थी. 
लेकिन उन्होंने दोनों लोकेशों से कहा- मेरा सुझाव होगा कि हमलोग हरि के अनन्य भक्त देवाधिदेव महादेव से 'राम' नाम का मूल्य पूछें. मेरे विचार से 'राम' नाम का मूल्य आंकने के वही सच्चे अधिकारी हैं. चलिए उन्हीं से पूछते हैं.
देवराज और यमराज दोनों को ब्रह्माजी की बात जंच गई. 
किंतु जीव ने कहा- ब्रह्माजी भी चलना चाहते हैं सो अच्छी बात है किन्तु उन्हें भी मेरी पालकी में लगना होगा तभी मुझे वहां ले जाया जाय.
  अगत्या ब्रह्माजी भी उस पालकी में लगे. वे सभी जीव को पालकी में ढ़ोकर कैलास पहुंचे. शांतरस से परिपूर्ण भगवान शिव भी यह दृश्य देख अत्यंत कौतूहल से भर ग‌ए. 
मामले से जब शिव अवगत हुए तो उन्होंने कहा- देखिए! राम नाम का वास्तविक मूल्य तो मैं भी नहीं जानता. मैं तो 'राम' नाम का निरंतर जप करते रहने से जीव को अंतकाल में भगवान की प्राप्ति हो जाय इस निमित्त "राम" मंत्र देने मात्र का अधिकारी भर हो सका हूं. बांकि इसका वास्तविक मूल्य क्या है इसका मुझे भी कोई अनुमान नहीं. ये तो सर्वलोकेश्वर वैकुंठवासी हरि ही बता पाएंगे. चलिए उन्हीं से पूछते हैं. 
जीव ने कहा- जब नहीं मालूम तो फिर आप भी पालकी में लगिए!
यही हुआ. यमराज, देवराज,चतुरानन एवं पंचानन सभी पालकी में लगकर जीव को पालकी में बिठा वैकुंठ पहुंचे. इन सभी को कहार बने देख भगवान विष्णु हंस पड़े.पालकी वहां दिव्य भूमि पर रख दी गई.भगवान ने सबको आदरपूर्वक बैठाया. भगवान विष्णु ने कहा-आपलोग पालकी में बैठे महाभाग जीवात्मा को उठाकर मेरी गोद में बैठा दीजिए.देवताओं ने वैसा ही किया. 
तदनन्तर भगवान विष्णु के पूछने पर भगवान शंकर ने कहा- "इसने एक बार परिस्थिति से बाध्य होकर 'राम' नाम लिया था.राम नाम का मूल्य इसने जानना चाहा,पर हमलोगों में से कोई राम नाम का मूल्य बताने में समर्थ नहीं था.इसीलिए हमलोग इस जीव की इच्छानुसार पालकी में लगकर उपस्थित हुए हैं.अब आप ही बताइए कि राम नाम का मूल्य क्या होना चाहिए?"
भगवान विष्णु ने मुस्कुराते हुए कहा-"आप सरीखे महान देव इसकी पालकी ढ़ोकर यहां तक लाए और आपलोगों ने इसे मेरी गोद में बैठाया.अब यह मेरी गोद का नित्य अधिकारी हो गया.राम नाम का पूरा मूल्य तो नहीं बताया जा सकता,पर आप इसी से मूल्य का कुछ अनुमान लगा सकते हैं.आपलोग अब लौट जाइए."
एक बार लिए हुए राम नाम का भगवान विष्णु के द्वारा इस प्रकार महान मूल्याभास पाकर शंकरादि देवता लौट गए.
  तभी तो गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं-
      राम न सकहिं नाम गुन गाई.
राजीव रंजन प्रभाकर
२८.११.२०२१.

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