रघुनंदन अब जल्दी करो!

 पुरूषोत्तम श्रीराम रावण से युद्ध किये जा रहे थे.रावण पर निरंतर बाणवर्षा से भी उसका कुछ विशेष बिगड़ नहीं पा रहा था. एक से एक कालसदृश बाण को रावण या तो अपने पराक्रम से शिथिल किये दे रहा था या फिर प्रतिकारक अस्त्र से उसे निस्तेज कर देता. 
श्रीराम महामुनि विश्वामित्र के संरक्षण में सीखे प्रत्येक युद्धास्त्र का क्रम से रावण पर प्रयोग किये जा रहे थे और रावण था कि उन सभी बाणो को अपने बज्रसदृश उरपटल पर बिना किसी विशेष श्रम के सहन कर ले रहा था. यहां तक कि जब श्रीराम ने उसके सिर को धर से अलग कर दिया तब भी उसके शरीर से नये-नये सिर निकल कर उसे पूर्व की भांति अट्टहास करने में सक्षम बना देते और वह श्रीराम पर जोर-जोर से हंसता. रणक्षेत्र में राक्षसेंद्र की जिगीषा देखते ही बनती थी. वह भी तब जब वह अपने भाई कुम्भकर्ण और प्रियपुत्र बारिदनाद को खो चुका था और राक्षस पक्ष के वज्रदंष्ट्र,अकम्पन,प्रस्हस्त,महापार्श्व,देवान्तक,त्रिशिरा,निकुम्भ,अतिकाय,मकराक्ष सहित समस्त वीर पहले ही काल के ग्रास बन चुके थे. 
           सचमुच वह अत्यंत बलशाली था और विरंचि से वर पाकर घमंडी भी. ऐसे सामान्यतः जो थोड़े भी बलशाली होते हैं वे प्रायः आज भी घमंडी ही पाये जाते हैं, फिर रावण तो रावण ही था जिसका अर्थ ही दूसरे को रूलाना होता है.
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श्रीराम अपने निषंग से सायक निकाल-निकाल रावण के विरुद्ध संधान करते जाते और स्थिति यह थी कि महामायावी रावण कभी अंतर्धान होकर तो कभी बिजली की गति से रथ को श्रीराम की ओर दौड़ाता वह उनके सम्मुख अट्टहास करता आ प्रकट होता.
              रणोउद्योग एक तरह से अंतहीन मालूम पड़ता जा रहा था. श्रीराम थक से गये. उनके ललाट पर उभर आई चिंता की लकीरें तथा सरसंधान जनित श्रम से उत्पन्न स्वेदबिंदु ने उनके मुखमंडल को रणक्षेत्र में अत्यधिक अरूण और आकर्षक बना दिया था.
              इस युद्ध को देखने आए समस्त देव एवं मुनिगण में से ऋषि अगस्त्य श्रीराम के मनोभाव को तार गये.वे समझ गये कि श्रीराम किंचित परेशान हैं.
उन्होंने श्रीराम से कहा-" सबके हृदय में रमण करने वाले श्रीराम! समस्त शक्ति, साधन तथा शौर्य से सम्पन्न रहते हुए भी यदि हृदय खेदखिन्न हीं रहे और अभीष्ट सिद्ध न हो रहा हो तो हमसभी को भगवान सूर्यनारायण का हीं सहारा बचता है; तुम उनकी आराधना कर उन्हें प्रसन्न कर लो फिर रावण तो क्या तुम सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड पर विजय प्राप्त कर लोगे.
                 हरे घोड़े पर सवार विवस्वान भगवान सूर्यदेव हीं सम्पूर्ण विश्व को अपनी अक्षय उर्जा से संचालित करते हैं.
         तुम्हें उनका आशीर्वाद अवश्य प्राप्त करना चाहिए. फिर उनके पुत्र सूर्यनंदन सुग्रीव भी तुम्हारी तरफ से युद्ध में सेनापति का दायित्व सम्हाल रहे हैं. 
                 तुम अवश्य ही विजय प्राप्त करोगे.इसके लिए मैं तुम्हें एक स्त्रोत बतलाता हूं. इसे आदित्य हृदय स्तोत्र कहते हैं. तुम इस रणक्षेत्र में ही इस स्त्रोत का स्तवन करो विजयश्री स्वयं तुम्हारे अभिनंदन को पास आ जायेगी."
     इतना कह अगस्त्य मुनि ने मौन धारण कर लिया.
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श्रीराम ने सोचा; मुनिवर ठीक कह रहे हैं.अब तक मेरी कोई युक्ति इसीलिए काम नहीं आ रही क्योंकि मैंने समस्त उर्जा के केंद्र भगवान भास्कर का ध्यान हीं नहीं किया.
             उन्होंने मुनि के बताए इस आदित्य हृदय स्तोत्र से भगवान भास्कर का उत्साह और भक्ति भाव से श्रद्धापूर्वक स्तवन किया. 
                हरित अश्वारूढ़ अदितिपुत्र (आदित्य) भगवान भास्कर उसी क्षण प्रसन्न हो प्रकट हो गए और उन्होंने श्रीराम से मुस्कुराते हुए कहा- "पुरूषोत्तम श्रीराम! यही सही समय है जब तुम रावण का वध कर सकोगे; क्योंकि प्रत्येक की मृत्यु का एक निश्चित समय होता है और यदि वह उससे अनाहत निकल जाता है तो वह अमर हो जाता है. मैं तुम्हें यही बताने आया हूं.
             रघुनंदन अब जल्दी करो!"
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बाल्मीकि रामायण में इस प्रकरण का उल्लेख है. प्रस्तुत लेखन में मैंने अपनी तरफ से कुछ जोड़ दिया है ताकि छठ पर्व के अवसर पर मैं भी भगवान सूर्यदेव की महिमा को अपनी लेखनी से कुछ बखान करने में सक्षम हो सकूं. 
यह भी उल्लेखनीय है कि आदिकवि वाल्मीकि ने अपने इस आर्ष ग्रंथ में जिस श्रीराम का चरित्र-चित्रण किया है वह श्रीराम अलौकिक शक्ति एवं गुणसम्पन्न मनुष्य थे.
 आदित्य हृदय स्तोत्र वाल्मीकि रामायण के युद्धकांड के सर्ग १०५ में वर्णित है जिसे श्रद्धालु देख सकते हैं. कहा जाता है कि जब देवोपासना के समस्त उपाय से भी कामना की पूर्ति न हो पा रही हो तो व्यक्ति आदित्य हृदय स्तोत्र का मनोयोग से पाठ करे इससे वह श्री एवं शक्ति दोनों से सम्पन्न हो जाता है.
        भगवान श्रीरामचन्द्र ऐसा करने के लिए हमें भी प्रेरित करें.
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                                      राजीव रंजन प्रभाकर.
             ११.११.२०२१.(कार्तिक शुक्ल षष्ठी;छठ पूजा)

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