काल का आगमन और भगवान राम का स्वधामगमन(महाप्रयाण)

अयोध्या में दशरथनंदन श्रीराम का शासन स्थापित हो गया। सेवक हनुमान सदैव उनकी सेवा में तत्पर रहते। माता सीता सहित राजा रामचंद्र रत्नमंडित आसन पर विराजमान रामदरबार की शोभा देखते हीं बनती।समस्त अयोध्यावासी अपने भाग्य को सराहते नहीं थकते थे।
किन्तु अब स्वधामगमन का समय भी समीप आता जा रहा था।देवताओं को, देवर्षि नारद को एवं अन्यान्य को दिये वचन प्रभु पूर्ण कर चुके थे। धराधाम पर उनके आने का प्रयोजन सिद्ध हो जाने के अनन्तर देवगण भगवान के वैकुण्ठ लौटने की प्रतीक्षा में थे। एक दिन भगवान के सम्मुख ऋषियों का दल च्यवन ऋषि के नेतृत्व में उपस्थित हो दुष्ट लवणासुर के आतंक से मुक्ति दिलाने की याचना करने लगा। कनिष्ठ शत्रुघ्न यह सुन रहे थे। उन्होंने भगवान से प्रार्थना करते हुए कहा-  "हे राजन! भ्राता श्रीलक्ष्मण युद्ध में बड़ा भारी कार्य कर चुके हैं, महामति भरतजी ने भी नन्दिग्राम में रहकर बहुत कष्ट सहा है, इसलिए लवण को मारने की आज्ञा मुझे हीं दीजिये ताकि मैं भी भगवान के कुछ काम आ सकूं।"
श्रीराम यह सुनकर अभिभूत हो गये। उन्होंने शत्रुदमन को गोद में उठा लिया और उसी समय मथुरा देश (जो लवण राक्षस की नगरी थी) के लिये शत्रुघ्न का राज्याभिषेक कर दिया। लवण राक्षस से मुनि समूह को त्राण दिलाने हेतु भगवान ने उन्हें मथुरा प्रस्थान की आज्ञा दी।
शत्रुघ्न ने लवण राक्षस जो रावण का स्वसृपुत्र ही था, का वध करके मुनियों के कष्टों को दूर कर दिया । मथुरा में अपनी राजधानी का निर्माण कर शत्रुदमन वही रह उस देश पर शासन करने लगे। कालान्तर में उनके  सुबाहु और यूपकेतु नामक दो पुत्र हुए। इसी प्रकार भरतजी के भी दो पुत्र हुए जिनमें एक का नाम पुष्कर और दूसरे का नाम तक्ष था। भगवान की आज्ञा से भरतजी ने पुष्कर को पुष्करावती एवं तक्ष को तक्षशिला का राजा बनाकर उस भूमि को धन-धान्य एवं मित्रमंडल से सम्पन्न कर कर दिया और स्वयं भगवान राम की सेवा में लगने हेतु पुनः अयोध्या आ गये। सुमित्रानंदन लक्ष्मणजी के भी दो पुत्र हुए जिनके नाम क्रमशः अंगद और चित्रकेतु थे। रामानुज लक्ष्मण ने भगवान् राम की आज्ञानुसार अपने दोनों पुत्रों को पश्चिम दिशा के दो प्रदेशों का अधिपति बना दिया। तदनन्तर लक्ष्मण ने स्वयं भी भगवान् राम की सेवा में हीं अपना शेष जीवन व्यतीत करने का निर्णय ले लिया।
राम अयोध्या में अपने मर्यादित आचरण एवं प्रजापालन सम्बंधी कर्तव्यों का निर्वहन त्याग की इस सीमा तक कर चुके थे कि उन्होंने अपनी प्राणवल्लभा भार्या सीता का वियोग फिर से वरण करने का निर्णय ले लिया।  लोकापवाद से प्रेरित होकर भगवान ने एक दिन लक्ष्मण को आदेश दिया कि वे सीता को वन में छोड़ आयें। यह सुन लक्ष्मण हतप्रभ और हताश हो गये। किन्तु यह एक राजा का राज्यादेश था जो उन्हें अनुपालन हेतु प्राप्त हुआ था।व्यथितमना लक्ष्मणजी माता सीता को वन में छोड़ आये।उस समय मां सीता के गर्भ में भगवान राम के परम तेजस्वी पुत्र पल रहे थे। महर्षि वाल्मीकि ने सादर सीताजी को अपने आश्रम में पधारने का आग्रह कर स्वयं को कृतार्थ किया।माता सीता को मुनिपत्नी अपनी पुत्री की भांति व्यवहार कर परमार्थ संचय कर रहीं थी। भूत, भविष्य और वर्तमान के ज्ञाता और द्रष्टा महामुनि वाल्मीकि के लिए कुछ भी अबूझ नहीं था। यह सब भगवान की लीला है जिसका हेतु उन्हें योगबल से ज्ञात था।कालान्तर में महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में हीं माता सीता ने कुश और लव दो जुड़वें किन्तु परम दिव्य एवं तेजस्वी बालक को जन्म दिया। दोनों बालक महर्षि के संरक्षण में पल बढ़ कर शस्त्र एवं शास्त्रों में निष्णात हुए।
समय आने पर महर्षि वाल्मीकि ने भरे राजप्रासाद में भगवान की भार्या माता सीता को उपस्थित कराकर भगवान राम सहित समस्त अयोध्यावासी को सम्बोधित करते हुए कहा,"हे राम! मैं महर्षि वाल्मीकि प्रचेता का दसवां पुत्र हूं। मैने जीवन में कभी मिथ्याभाषण किया हो मुझे इसका स्मरण नहीं है। मिथिलेशकुमारी में यदि कोई दोष हो तो मैने सहस्त्र वर्षों तक जो यज्ञ तप किया है वो निष्फल हो जाय। निष्कलंका भूमिजा जनकनंदिनी सीता तुम्हारी भार्या है, वह सदा से हीं पवित्र हैं। ये दोनों अलौकिक गुण सम्पन्न बालकद्वय कुश और लव जिनके रामायण गायन वादन से जो तुम और तुम्हारी समस्त सभा विमुग्ध है और कोई नहीं तुम्हारे हीं पुत्र हैं।"
राम यह सब सुन अत्यंत दुखी हुए। उन्होंने महर्षि से कहा-" हे मुनिश्रेष्ठ! आपने जो बातें कहीं हैं वह सदा एवं सर्वदा से सत्य हैं और मैं ये जानता भी हूं। हे सुव्रत! आपसे कुछ भी छिपा नहीं है जो हुआ है उसका क्या कारण है तथा अभी जो होगा उसे भी मुनिवर आप जानते हैं। मैने कभी जनकनंदिनी सीता पर स्वप्न में भी संदेह नहीं किया है।" प्रभु के ये गूढ़ वचन महर्षि वाल्मीकि के अतिरिक्त कोई भी नही समझ पाये।
तदनन्तर इसी यज्ञशाला में महर्षि वाल्मीकि के साथ आयी माता सीता ने शपथ के साथ यह प्रण लिया कि यदि वे दशरथनंदन श्रीराम के अतिरिक्त किन्ही अन्यपुरूष का मन से भी चिन्तन नहीं करतीं तो धरणी देवी उन्हें आश्रय दें।इसके तुरंत बाद ही भूमितल से अति अद्भुत परम दिव्य सिंहासन प्रकट हुआ और माता सीता उस पर आसीन हो सभी के समक्ष देखते-देखते भूमिगत हो गयी। आकाश से पुष्प वर्षा हो रही थी।मनुष्य, देवता, यक्ष, किन्नर, विद्याधर मोहित थे।अयोध्यावासी श्रीलक्ष्मी के चले जाने से श्रीहीन हो चुके थे। सभी पश्चाताप की अग्नि से दग्ध थे। इस घटना को देख वे सभी स्तब्ध एवं किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये। वे अपनी माता को खो चुके थे। हा अज्ञान! अविद्या तेरी गति अबूझ है। क्या से क्या हो गया। कुछ लोगों की शंका का निवारण की परिणति इस रूप में होगा इसकी उन्होंने कल्पना तक नहीं की थी। लोकापवाद लोकपश्चाताप में परिवर्तित हो गया।
कहा जाय तो लोकापवाद  मात्र एक मिस था, उद्देश्य लीलासंवरण के प्रयोजनार्थ मायामनुष्यतन रामनामधारी हरि के स्वधामगमन के पूर्व हीं अपनी चिच्छक्ति आदिशक्ति भार्या को पहले ही अपने धाम में भेजना था। इस संदर्भ में माता सीता का भगवान राम के साथ संवाद  अध्यात्मरामायण के उत्तरकांड के चतुर्थ सर्ग में वर्णित है। माता सीता भगवान से कहती हैं कि देवताओं ने उनसे एकान्त में प्रार्थना करते हुए निवेदन किया कि मैं जब तक वैकुण्ठ में नहीं जाती तब तक भगवान स्वयं भी भूमितल पर हीं रहेंगे।इसलिये उन्होंने मुझे शीघ्र वैकुण्ठ लौटने का निवेदन किया है। उनका कहना था कि जिस कार्य के लिए भगवान ने मनुष्य शरीर धारण किया वह प्रयोजन अब पूरा हो चुका है।
सो हे! कमलनयन मेरे लिए क्या आज्ञा है? माता सीता   ने विनयपूर्वक भगवान से ये निवेदित किया।
कहते हैं कि भगवान की चिच्छक्ति भार्या सीता का भगवान द्वारा परित्याग और तदनन्तर माता का भूमि प्रवेश भगवान के स्वधामगमन को सम्भव बनाने के लिए सीताजी का देवताओं को दिए आश्वासन के अवदानस्वरूप है।
भूमिजा सीता के भूमि में समा जाने के बाद  मनुष्योचित विलाप संताप के बाद भगवान सभी भोगों से विरक्त अपना समय अब एकान्त सेवन, आत्मचिन्तन एवं मनन में व्यतीत करते।
एक समय वह भी आया जब काल मुनिवेष धारण कर भगवान राम के दरबार में आया। इस तथ्य से अनभिज्ञ कि मुनिवेष में साक्षात काल हीं हैं जो भगवान से मिला देने हेतु लक्ष्मण से अनुरोध कर रहे थे;रामानुज उक्त मुनिवेषधारी को लेकर श्रीराम से भेंट कराने हेतु भगवान की सेवा में उपस्थित हुए।
श्रीराम बोले, "हे मुने! आपके दर्शनमात्र से इस सभा में जो एकबारगी शांति और निःशब्दता का आवरण प्रतिष्ठित हो गया है उसका मर्म तो मुनिवर आप हीं जानते हैं, सम्प्रति यह दास आपकी क्या सेवा कर सकता है?हे मुनि! आज्ञा दीजिए।"
"हे राम! मैं आपसे एकान्त में कुछ निवेदन करना चाहता हूं जहां मेरे तथा आपके अतिरिक्त तीसरा कोई न हो। यदि मेरे तथा आपके मध्य होने वाले वार्तालाप में कोई तीसरा व्यवधान बनकर आयेगा तो आपको उसका वध करना होगा क्योंकि बात हीं ऐसी है "-मुनिवेष में काल का भगवान से यह कहना हुआ। यह सुन भगवान ने कहा- " हे मुने! आप निश्चिंत हो अपनी बात कहें। मेरे आपसे इस गोपनीय वार्ता के मध्य यदि कोई तीसरा आयेगा तो वह निश्चय ही मेरे द्वारा मारा जायेगा।" पुनः भगवान लक्ष्मण से बोले,"लक्ष्मण! तुम द्वार पर हीं रहो और मेरा यही आदेश है कि कोई भी अभी यहां नहीं आयेगा जब तक मेरी ये एकान्त वार्ता मुनि के साथ सम्पन्न नहीं हो जाती।"
मुनि बोले, हे राम! मैं आपका ही ज्येष्ठ पुत्र काल हूं। मुझे ब्रह्माजी ने एक संवाद लेकर आपकी सेवा में भेजा है। हे ईश! ब्रह्माजी ने मुझसे कहा है कि मैं आपसे उनका ये संवाद कहूँ कि वैसे तो भगवान जिस प्रयोजन के लिए इस मर्त्यलोक में आपने नरवेष धारण किया वो सभी सिद्ध हो गये हैं तथापि यदि प्रभो इस भूतल पर कुछ और प्रयोजन शेष रह गये हों जिसका ज्ञान किसी अन्य को क्यों कर हो तो उसे शीघ्र सम्पादित कर प्रभु वैकुण्ठ को प्रत्यागत होइये, देवगण आपकी अधीरता से प्रतीक्षा कर रहे हैं।"
" सो प्रभु विचारिये तथा मेरे लिए क्या आज्ञा है जिसे मैं शिरोधार्य कर सकूं" - मुनिरुपधारी काल ने भगवान से पुनः कहा।
काल के मुख से ये बचन सुन स्मितवक्त्र भगवान बोले," मैने तुम्हारी सब बातें सुन लीं। मेरा अवतार तीनों लोकों का कार्य करने के लिए हीं हुआ करता है। तुम्हारा कल्याण हो, अब मैं जहां से आया था वहीं पुनः चला जाऊंगा;इसमें कुछ सोच विचार नहीं करना है।"
यह वार्तालाप हो हीं रहा था कि मुनिवर दुर्वासाजी का अचानक राजद्वार पर आगमन हुआ। उन्होंने तत्काल रघुनाथजी से मिलने की इच्छा जताई। लक्ष्मणजी ने उनसे विनम्रतापूर्वक कहा-"राजा रामचंद्र एक अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य में लगे हैं इसलिए मुनिवर कृपया  मुझे हीं अपने आगमन का प्रयोजन बता दें। जब राजा राम उक्त कार्य से निवृत होंगे तो मैं स्वयं मुनिवर के आगमन एवं उद्देश्य के विषय में भगवान को निवेदित कर दूँगा।"
लक्ष्मण के मुख से यह वचन सुनना था कि मुनि दुर्वासा क्रोध से इतने कुपित हो गये कि उन्होंने लक्ष्मण से कहा, "यदि तुम इसी क्षण मुझे राम से भेंट नहीं कराते हो तो मैं तत्काल शाप देकर तुम्हारे इस रघुवंश का समूल नाश कर दूंगा। तुमने क्या मुझे परशुराम समझ रखा है जो तुझसे लड़ेगा ;मेरा शाप हीं तुम्हारे सहित तुम्हारे वंश को निर्मूल करने के लिए पर्याप्त है।"
क्रोधताम्राक्ष मुनि दुर्वासा की यह वाणी सुनकर लक्ष्मण हतबुद्धि हो गये। उन्होंने विचार किया कि इस तरह क्रोधज्वर से पीड़ित मुनि के शाप से वंश के समूल नाश होने से तो अच्छा है कि राजा राम के आदेश की अवज्ञा कर उन्हें इसी समय मुनि के आगमन की सूचना दे दी जाय। इससे अधिक से अधिक उनकी हीं प्राणहानि है, परन्तु रघुवंश तो नाश होने से बच जायेगा।
लक्ष्मण तत्क्षण वहां गये जहां श्रीराम पूर्वागंतुक मुनि से वार्तालाप कर रहे थे और मुनि दुर्वासा के आगमन का समाचार सुनाया।भगवान ने मुनि को विदा कर मुनि दुर्वासा को अपने पास आदरपूर्वक लिवा लाने हेतु लक्ष्मण को आज्ञा दी।
मुनि दुर्वासा के आने पर भगवान ने दण्डवत हो मुनि की अगवानी की। आदर के साथ उच्चासन पर प्रतिष्ठित किया। तदनन्तर मुनि को अपने आगमन का  प्रयोजन प्रकट करने के लिये निवेदित किया, 'मुनिश्रेष्ठ! आपके दर्शन पाकर मेरे सहित सम्पूर्ण साकेतवासी धन्य हुए। मुनिवर आज्ञा दीजिए मैं आपकी क्या सेवा करूं?'
दुर्वासा ने कहा, "राजन! मैं सहस्र वर्षों की तपस्या के पश्चात सद्यः तुम्हारे पास हीं आया हूँ और इस समय मुझे बड़े जोर की भूख लगी है। तुम्हारे पाकशाला में अभी जो बना है वही मेरा इस समय अत्यंत प्रिय भोजन है, मुझे शीघ्र भोजन कराओ।"
भोजन करने के उपरांत मुनि दुर्वासा ने अयोध्या से प्रस्थान किया। जाते समय उन्होंने लक्ष्मण को देखा; लक्ष्मण प्रसन्नमन से उन्हें द्वार तक विदा करने आये।
जब सभी जा चुके थे, लक्ष्मण ने देखा कि राजा राम उदासमना दीन चित्त से नीचे को मुख किये बैठे हैं, लक्ष्मण तुरंत तार गये कि इसका कारण उनकी मेरे द्वारा की गई अवहेलना है। लक्ष्मण ने कहा-"हे रघुनंदन! मेरे लिए संताप न कीजिए, मुझे शीघ्र हीं मार डालिये।काल की कदाचित् गति ऐसी ही है जो मैंने आपकी प्रतिज्ञा भंग कर दी और यह उचित ही है कि दण्डस्वरुप आप मेरा वध कर दें।"
राजा का चित्त चंचल हो उठा। कैसे वे लक्ष्मण का वध करें।  यदि वे लक्ष्मण को नहीं मारते हैं तो उनकी प्रतिज्ञा भंग होती है। बड़ी हीं विचित्र दुविधा है। समाधान गुरू वशिष्ठ ने किया। उन्होंने कहा, '' राजन आप लक्ष्मण को त्याग दीजिए। सत्पुरुष की दृष्टि में त्याग और वध के बीच कोई अंतर नहीं है।"
रघुनाथजी ने सभा में कुलगुरू वशिष्ठ के ये धर्मार्थयुक्त और निर्दोष वचन सुनकर तुरंत ही लक्ष्मण से कहा-" लक्ष्मण तुम्हारी जहां इच्छा हो वहां जाओ, जिसमें धर्म में संशय उपस्थित न हो।"
लक्ष्मण वहां से डबडबाये नेत्र के साथ सरयू तट पर गये। भगवान द्वारा त्याग दिये जाने के बाद अब जीने का कोई अर्थ नहीं रह गया था। सरयू के पवित्र जल से आचमन करने के अनन्तर उन्होंने हाथ जोड़ अपने नवों इन्द्रियगोलकों को रोककर प्राणों को ब्रह्मरंध्र में स्थिर किया और चित्त में परमधाम का ध्यान किया। आकाश से देवगण पुष्पों की वर्षा करने लगे। इसी समय इन्द्र किसी भी देवता को न दिखायी देते हुए उन्हें सशरीर लेकर स्वर्गलोक में चले आये।
लक्ष्मणजी को त्याग देने पर रघुनाथजी अत्यंत दुःखातुर और विह्वल हो गये। उन्होंने उसी समय निर्णय लिया कि वे भी भरत को राजतिलक कर लक्ष्मण के मार्ग का अनुसरण करेंगे। रामजी का यह निर्णय जान भरतजी मूर्छित हो गये। चेत होने पर वे भगवान के चरण पकड़ कर बोले, "स्वामी इस सेवक पर दया कीजिए, आपके बिना इस भूलोक पर अब मैं जीवित नहीं रह सकता। पहले ही मेरी स्वामीभक्ति में कुछ दोष था जो मैं आपके सान्निध्य से वंचित रहा। मैं भी आप जहां जायेंगे साथ चलूंगा। कुश और लव सब प्रकार से योग्य हो चुके हैं। उन्हें राज सौंप हम दोनो प्रस्थान करें जहां स्वामी की आज्ञा हो।"
भरतजी के मन एवं भाव की पवित्रता ने प्रभु को इस हेतु राजी कर लिया। कुश और लव को अयोध्या पालन का दायित्व सौंप रघुनाथजी ने शत्रुघ्न को इस समाचार से अवगत कराने हेतु दूत भेज दिया। दूत के माध्यम से सभी समाचार जान शत्रुदमन अत्यंत व्याकुल हो उठे। उन्होंने तुरंत ही अपने दोनों पुत्रों को बुलाकर उन्हें अपना राज सौंप दिया और स्वयं बिना देरी किये बड़ी शीघ्रता से रघुनाथजी के दर्शन के लिए अयोध्या को चल पड़े।
अयोध्या पहुंच शत्रुघ्नजी ने देखा राम दरबार में बड़ा ही विलक्षण दृश्य उपस्थित है। अयोध्या की प्रजा भगवान राम से अनुनय विनय के साथ कह रही है - "हे नाथ! हमलोगों को अनाथ छोड़ आप मत जाइये। आप जहां जा रहे हैं हम भी जायेंगे। हे स्वामी! वनगमन के समय आपने सभी प्रजा को समझा बुझा कर लौटा दिया था। अबकी बार हमें निराश नहीं करें प्रभो। हे राम! हमारे ह्रदय में आपका अनुगमन करने का हीं दृढ़ विचार है।"
भाव की दृढ़ता हीं सब कुछ है।अर्थ से लेकर परमार्थ चिन्तन हो; भाव की दृढ़ता हीं प्रधान है।
रघुनाथजी एक क्षण मौन रहे फिर बोले," बहुत अच्छा, ऐसा हीं करो।"
तदनन्तर शत्रुघ्नजी बोले," हे, कमलनयन! मैं अपना राज्य दोनों पुत्रों को सौंप आया हूँ; हे राजन्! अब मैने भी आप ही का अनुगमन करने का निश्चय कर लिया है। मैं आपका भक्त हूँ;अतः आपको मुझे छोड़ना नहीं चाहिये।" शत्रुघ्नजी का दृढ़ निश्चय जान श्रीरघुनाथजी ने कहा, 'तुम आज दोपहर के समय तैयार रहो'।
इसी समय सुग्रीव सहित सभी वानर, भालू तथा रीछ भी श्रीरघुनाथजी का अनुगमन करने आ गये। भक्त को भगवान के कार्यक्रम का ज्ञान स्वयमेव हो जाता है।विभीषणपर्यंत अयोध्या पहुंच गये। बड़ा ही अद्भुत दृश्य था। सभी प्रभु के साथ जाने का बालहठ कर रहे थे।
भगवान विभीषण से बोले, "लंकापति! मेरी इच्छा है कि आप यहीं भूलोक में रह अपने प्रजापालन सम्बंधी कर्तव्यों का निर्वहन मुझे स्मरण करते हुए करें।" विभीषण को मानना पड़ा।
सुग्रीव बोले, 'प्रभु! मैं अंगद को किष्किंधा सौंप आया हूँ। मैं भी आपका अनुगमन करूंगा।'
भगवान बोले,'जैसी तुम्हारी इच्छा।' पुनः भगवान रीछराज जामवन्त की तरफ मुड़े और बोले-'रीछराज जामवन्त! तुम द्वापर के अंत तक रहो। किसी कारणवश मेरे साथ तुम्हारा युद्ध होगा।'
फिर भगवान हनुमानजी से बोले - "हे मारूते! तुम चिरकाल तक जीवित रहो और जहां-जहां मेरे भक्त मेरा स्मरण करें वहां तुम सूक्ष्मरुप से विराजकर उनकी सहायता करो।"
नियत मुहूर्त के आगमन के साथ ही भगवान ने राजप्रासाद से प्रस्थान किया।सम्पूर्ण साकेतवासी उनके पीछे-पीछे चल रहे थे। शस्त्र और शास्त्र, धनुष और वाण मूर्तिमान होकर आगे-आगे चल रहे थे। भगवान के वायीं तरफ श्वेत कमल धारण किये श्रीलक्ष्मी और दायीं तरफ रक्तकमल लिए पृथ्वीदेवी चल रहीं थीं। भरतजी एवं शत्रुदमन भगवान के पदचिन्हों को बचाते हुए उनका अनुगमन कर रहे थे। सरयू तट पर पहुंच भगवान ने पवित्र सरयूजल का स्पर्श किया और चरणों से उनकी परिक्रमा की। उसी समय वहां पितामह ब्रह्माजी तथा अन्य समस्त देवता, ऋषि और सिद्धगण आये।
ब्रह्माजी हाथ जोड़ कर भगवान की स्तुति करने लगे। पितामह ब्रह्माजी की प्रार्थना से महातेजोमय भगवान राम सब देवताओं के देखते-देखते उनकी दृष्टि को चुराते हुए चक्रादि आयुधों से युक्त चतुर्भुजरुप हो गये। लक्ष्मणजी अद्भुत रूप धारण कर भगवान की शय्यारूप शेषनाग हो गये तथा कैकयीपुत्र भरत और लवणान्तक शत्रुघ्न दिव्य चक्र और शंख हो गये। सीताजी तो पहले ही लक्ष्मीजी हो गयी थीं। भगवान राम पुराणपुरूष विष्णुभगवान ही हैं। वे भाइयों सहित अपने पूर्वशरीर से तेजोमय दिव्यस्वरूपवाले हो गये। भगवान विष्णु की कृपा से समस्त वानरादि जो उनके साथ उनके अनुगमनार्थ आये थे, अनायास हीं जल स्पर्श कर के शरीर छोड़ने लगे। वे रीछ और वानरादि जिस-जिस अंश से उत्पन्न हुए थे उस उस देवता के पूर्वरूप को हीं प्राप्त हो गये। वानरराज सुग्रीव सूर्य के वीर्य से उत्पन्न हुए थे, अतः वे सूर्य में हीं लीन हो गये। तदनन्तर अयोध्यावासी सरयू नदी का जल स्पर्श कर अनायास हीं मनुष्य देहत्याग कर दिव्यदेह धारण कर उनकी सेवा में उपस्थित दिव्यज्योति से चालित विमान पर सवार हो सान्तानिक लोक में पहुंच गये। सांतानिक लोक के बारे में स्वयं ब्रह्माजी ने भगवान को बताया कि यह लोक ब्रह्मलोक से भी दिव्य तथा विचित्र भोगों से सम्पन्न है। जो देशवासी यह सब कौतुक देखने मात्र आये थे वे भी श्रीरामचंद्रजी का तत्समय दिव्यदर्शन कर संसार की आसक्ति छोड़ परमेश्वर भगवान विष्णु का स्मरण करते हुए जल स्पर्श कर अनायास स्वर्ग को चले गये।
अध्यात्मरामायण के उत्तरकांड के सप्तम, अष्टम तथा नवम सर्गादि पर आधारित भगवान के स्वधामगमन का यह जो वर्णन है वह सदोष हीं है, इसे मैं सहर्ष हाथ जोड़ कर स्वीकारता हूँ क्योंकि इसका एकमात्र उद्देश्य अपने अंतःकरण की शुद्धि तथा वाह्य करण(लेखनी) को कुछ काल के लिए ही सही भगवान की सेवा में अर्पित करना था।
राजीव रंजन प्रभाकर
25.12.2018.

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