जीवात्मा और परमात्मा की एकता(महावाक्य विचार)
परमात्मा की सत्ता सर्वगत है।इस संसार मे समस्त जीवसमुदाय परमात्मा के प्रकाश से हीं आलोकित है।जीव परमात्मा का हीं अंश है। इस अंश को हीं जीवात्मा कहा गया है।श्रुति और स्मृति दोनों यही कहती हैं कि परमात्मा और जीवात्मा सत्वरूपेण एक ही है।परमात्मा और जीवात्मा का यह एक्य अनुभवगम्य है।सरोवर का जल तथा सरोवर के जल से भरा जलपात्र का जल जिस प्रकार सत्वरूपेण एक हीं है उसी प्रकार की एकता परमात्मा और जीवात्मा मे भी है और जो विरोध है वह उपाधिजनित है।परमात्मा की उपाधि माया है तो जीव की उपाधि स्थूलरूपेण उसका शरीर और सूक्ष्मरूपेण अन्तःकरण।यह परमात्मा की माया ही है जिसने उसे वाह्यतः आवृत कर रखा है।उसी प्रकार आत्मा का भोगायतन(उपाधि)उसका शरीर है।चर्मचक्षु से दोनों मे से किसी को नहीं देखा जा सकता है।इस प्रकार दोनो ही इन्द्रियों के अविषय हैं।ऐसे भी इतना तो अनुभव के आधार पर हम सभी कह ही सकते हैं कि चिंगारी हो या भीषण दावानल, दोनो में अग्नितत्व एक ही है।यही बात ईश्वर और जीव के संदर्भ मे है।जो भेद है उसका कारण है जीव का ईश्वर से विलगाव।अब ये जीव ईश्वर से कब बिछुड़ा, कैसे बिछुड़ा, क्यों बिछुड़ा इत्यादि पर विचार करने से श्रेयस्कर यह होगा कि हम इसका चिन्तन करें कि ईश्वर और जीव का पुनर्मिलन कैसे हो।परमात्मा और जीवात्मा का मेल कैसे हो। यह हम सभी अनुभव से जानते हैं कि दो विलग का ही मेल आपस मे सम्भव होता है न कि दो अलग अलग चीजों का। कारण साफ है, दो विलग चीज आपस मे इसलिए मिल पाते हैं क्योंकि विलग होते हुए भी दोनो के गुण और स्वभाव एक होते हैं। यही जीवात्मा और परमात्मा के प्रसंग मे कहना चाहिए।ये दोनो गुण और स्वभाव मे एक हैं इसलिए ये एक दूसरे से विलग हैं अलग नहीं। और जीव की जीवनयात्रा का गन्तव्य उसका परमेश्वर से मिलन ही है जैसे सभी नदियों का गन्तव्य उसका सागर मे समा जाना ही है।ईश्वर अंश जीव अविनाशी।अस्तु।
छान्दोग्य उपनिषद (6/8) के "तत्वमसि" को महावाक्य की प्रतिष्ठा प्राप्त है। विच्छेद वा विग्रह से यह महावाक्य का खंड इस प्रकार होता है। 'तत','त्वम' तथा 'असि',इन पदों के अर्थ हैं: वह(तत) तू(त्वम) है(असि)। वाच्यार्थ मे 'वह' एवं 'तू' क्रमशः ईश्वर और जीव के लिए प्रयुक्त है और यही आशय इसे महावाक्य बनाता है। तथा लक्ष्यार्थ मे यह महावाक्य ईश्वर और जीव की चेतनांश मे अभिन्नता को संकेत मे या कहिये लक्षणा मे प्रतिपादित करता है। संक्षेप मे इतनी विस्तृत एवं गूढ़ व्याख्या!इसका विस्तार ब्रह्म पर्यंत हीं कहना चाहिए।
भला ईश्वर और जीव किस प्रकार एक हो सकते हैं जिसका कि उपरोक्त महावाक्य मे दिग्दर्शन कराया गया है! वैयाकरण को जब किसी पद वा वाक्यार्थ का लक्ष्यार्थ मे व्याख्या करना होता है तो उन्हें लक्षणा की तीन वृत्तियों मे से किसी एक का आश्रय लेना पड़ता है। इन तीन लक्षणा मे एक है जहती लक्षणा जिसमें शब्द के वाच्यार्थ को न लेकर उसका विल्कुल ही नया अर्थ ले लिया जाता है।जैसे गंगायां घोषः। इसका सीधा अर्थ अगर किया जाय तो यही होगा 'गंगा नदी पर पशुशाला है'।क्या नदी पर पशुशाला सम्भव है?नही।इसलिए गंगायां का अर्थ यहां गंगा न होकर गंगातीर लेने से ही संगति बैठती है जो शब्द(गंगायां) का नया अर्थ(गंगातीर)देने से ही अर्थपूर्ण होगा।
'तत्वमसि' के प्रसंग मे भी 'तत' एवं 'त्वम' पद के वाच्यार्थ 'ईश्वर' और 'जीव' का सर्वथा त्याग कर देने से उन दोनो की चेतनता का भी त्याग हो जाता है और चूंकि चेतनता की एकता ही अभीष्ट है; इसलिए जहतीलक्षणा से इन पदों के अर्थ की एकता नहीं हो सकती है।
अजहतीलक्षणा मे वाच्यार्थ का त्याग न करके उसके साथ अन्य अर्थ भी ग्रहण किया जाता है।जैसे 'काकेभ्यो दधि रक्ष्यताम'(कौओं से दही की रक्षा करो) इस वाक्य का अभिप्राय केवल कौओं से दही की रक्षा कराना ही नही है बल्कि उसके साथ कुत्ता, बिल्ली तथा अन्य जीवों से सुरक्षित रखना भी है।यहां 'तत'और 'त्वम' पद के वाच्यार्थ मे विरोध है, फिर अन्य अर्थ को सम्मिलित करने से वह विरोध तो दूर होगा ही नहीं, इसलिये अजहतीलक्षणा से भी इनकी एकता सिद्ध नहीं हो सकती।
इन दोनों के सिवा जहां कुछ अर्थ रखा जाता है और कुछ छोड़ा जाता है, वह जहत्यजहती(भागत्याग)लक्षणा होती है। इसी लक्षणा वृत्ति से 'तत' और 'त्वम' पद के वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ की एकता अर्थात ईश्वर और जीव की एकता सिद्ध की जा सकती है। यदि हम तत पद के वाच्य ईश्वर के समस्त गुणसमुदाय मे से उसकी व्यापकता, सर्वसमर्थता, सर्वज्ञता, परोक्षता आदि का त्याग कर दे तथा उसी प्रकार जीव के गुणसमुच्चय मे से उसकी अल्पज्ञता, न्यूनता आदि को निकाल दें तो ईश्वर और जीव दोनों मे जो गुण अवशेष रूप से विद्यमान पाया जायेगा वह उनकी चेतनता है।यह चेतनता ही है जो विश्लेषण से उभयनिष्ठ है। इस महावाक्य से ईश्वर और जीव की इसी एकता का दर्शन कराया गया है जो जहत्यजहती (अजहल्लक्षणा) के आधार पर व्याख्या किये जाने से हस्तामलक सदृश स्पष्ट है।
इस प्रकार तत्वदर्शी महावाक्य 'तत्वमसि' मे ईश्वर और जीव की चेतनांश मे एकता का दर्शन करते हैं। 'सोsयम' मे सन्निहित पद 'सः'तथा 'अयम' के अर्थ की एकता की संगति भी तब ही बैठती है जब सः(वह) पद की परोक्षता का त्याग कर दिया जाय तथा साथ ही अयम पद से कहे जाने वाले पदार्थ की अपरोक्षता का त्याग कर दिया जाय तब जो अवशेष रहता है वही 'सः' और 'अयम'की एकता को संकेत कर सकता है अन्यथा नहीं। यह भागत्याग लक्षणा आधारित व्याख्या से ही सम्भव है।
इस महावाक्य के लक्ष्यार्थ को आचार्य शंकर जैसे ब्रह्म विद्याविषारद ने मुमुक्षुओं के सुलभबोध के प्रयोजनार्थ रचित विवेक-चूड़ामणि मे प्रतिपादित किया कि तत्वमसि से ब्रह्म(परमात्मा) और आत्मा(जीवात्मा) के एकत्व का हीं बोध होता है ठीक उसी प्रकार जैसे सूर्य और खद्योत, राजा और सेवक, समुद्र और कूप तथा सुमेरु और परमाणु परस्पर विपरीतार्थक होते हुए भी लक्ष्यार्थ मे उनकी आपस मे एकता है।दोनों मे जो विरोध है उसका कारण उसकी उपाधि है और यह उपाधि कुछ वास्तविक नहीं है।ईश्वर की उपाधि महतत्वादि की कारणरूपा माया है और जीव की उपाधि कार्यरूप पंचकोश है।
इन उपाधियों का बाध हो जाने पर परमात्मा और जीवात्मा स्वतः एकाकार हो जाता है जिस प्रकार राजा की उपाधि राज्य और सैनिक की उपाधि तलवार(या ढ़ाल)का बाध कर दिया जाय तो फिर न कोई राजा है और न ही कोई सैनिक, दोनों ही मनुष्य।
तत्वमसि का वास्तविक तत्वबोध इस अविद्याजनित उपाधि का बाध होने पर हीं सम्भव है।ऐसा तब होगा जब ज्ञानखड्ग से ईश्वर की उपाधि माया और जीव की उपाधि जो उसका सूक्ष्म,स्थूल और कारण शरीर होता है, मे आसक्ति का छेदन कर उसे त्याग दिया जाय।
राजीव रंजन प्रभाकर
20.12.2018
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