किसान और राजनीति

भारत की अर्थव्यवस्था कृषि आधारित है, यह हम सभी जानते हैं। आज खेती किसानी अलाभकर हो चला है।अलाभकर यह पहले भी था पर पहले यह कदाचित इतना त्रासद नहीं था जितना आज है।इसका कारण आज की राजनीति है। आज किसान की स्थिति पर चर्चा राजनीतिक विमर्श के केन्द्र में है, इस विमर्श का फायदा किसान को कम राजनेताओं को ज्यादा मिल रहा है। कई राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में किसानों के ऋण माफी को मुद्दा बनाया गया और चुनाव जीते भी गये। पता चला है कि सरकार बनते हीं ऋण माफी की घोषणा भी हो गयी है। राजनीति तो अब इस मामले में इस हद तक जा पहुंची है कि केन्द्र भी ऋण माफ करे नहीं तो प्रधानमंत्री को सोने नहीं देना है, अस्तु।
क्या ये ऋण माफी पहली बार हुआ है? इससे पूर्व हुये ऋण माफी से किसानों की दशा में सुधार हो गया जिस क्रम में और ऋण का माफ होना अपरिहार्य हो गया? प्रश्न यह है कि क्या इन सारे कवायद से किसान का भला हो जाता है? या हो जायेगा? मंशा किसान की स्थिति में सुधार लाना कम सत्ता पर कब्जा करना ज्यादा है। मुहरा बेचारा किसान बना है जिसके नाम पर ये राजनीति हो रही है। माफ कीजिए मैं किसान विरोधी नहीं हूं, मात्र इतना कहना है कि ऋणग्रस्तता एक रोग है जिसका निदान ऋणमाफी नहीं है।
क्या यह कभी सोचा गया है कि इस ऋण माफी का फायदा किसानों का कौन सा वर्ग उठाता है? किसानों में ऐसे वर्ग अभिजात्य वर्ग है जिसे ऋण अदायगी की पर्याप्त क्षमता होती है। तमाम राजनीतिक पार्टियों मे ऐसे बड़े कृषक सत्ता समीकरणों में किसी न किसी स्थान पर फिट बैठे हैं और उसे प्रभावित करते हैं।तभी तो कतिपय पार्टियां उन्हें लेकर दिल्ली के राजमार्ग पर ले आती हैं। वरना छोटे और मझोले किसान की क्या हैसियत कि वे दिल्ली में एक दिन भी गुजार सके।
सरकार को उन किसानों के विषय में सोचना होगा जो बैंक से कर्ज नहीं लेते हैं या नहीं ले सकते हैं, जो आज भी अपने खेतों में जुताई, बीज, पानी आदि के लिये साहूकारों और महाजन के चंगुल में फड़फड़ा रहे हैं। अपनी दैनिक जरुरत, शादी-ब्याह, मरनी-हरनी सभी में यही महाजन हैं जो इनकी मदद करते हैं। कभी कभी तो ये महाजन या साहूकार वही बड़े कृषक होते हैं जिनको ये छोटे खेतिहर मालिक कहते हैं तथा जिनके खेत में वे बटाई तो करते हीं है और तरह के भी टहल करते रहते हैं। वक्त-वर-वक्त इनके एहसान का हिसाब इतना बढ़ जाता है कि छोटा किसान और छोटा होकर खेत मजदूर बन जाता है। सरकार को चिन्ता उनकी करनी चाहिए।
रोडमैप जैसे भारी भरकम शब्द बड़े बड़े जानकारों को पूछिए, शायद हीं एकबारगी पूरीतरह बता पायें कि ये है क्या। साधारणतया पढा़-लिखा अथवा एक अनपढ़ किसान के लिये यह एक तिलिस्म से कम नहीं होगा यदि इसे बताने वाला कोई भविष्यद्रष्टा हो।
ऋण माफी से लेकर फसल बीमा तथा कृषि लागत का डेढ़ गुणा पर सरकार द्वारा न्यूनतम खरीद मूल्य का निर्धारण होने के बाद भी ऐसा क्या है जो देश का अन्नदाता आज भी फटेहाल है, क्यों वह अपने बच्चों को बढ़िया स्कूल में नहीं पढ़ा पाता है, क्यों अपने द्वारा उपजाये फसल से उसका खुद के परिवार का खर्च भी नहीं निकलता है? जबकि उसकी कुछ ऐसी आदतें भी नहीं होती है जिसपर कि उंगली उठाई जाय।
एक व्यक्ति जो सच्चे अर्थों में किसान है, वही इसे महसूस कर सकता है, बांकि के लिये यह या तो सत्ता प्राप्तिमूलक राजनीतिक विमर्श या फिर बुद्धिजीवी के लिए शोधपत्र तैयार करने का मशाला।
किसान को आज भी विषयगत मामले में सकारात्मक नीतिगत हस्तक्षेप की प्रतीक्षा है। यह कब होगा?
राजीव रंजन प्रभाकर
22.12.2018

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