ब्रह्म निरुपण

विषय अत्यंत गूढ़ एवं अनिर्वचनीय है।एक अर्थ में कहा जाय तो समस्त अध्यात्म विद्या का केन्द्र है तथा ज्ञानमार्ग का गन्तव्य है।
सहज ही मेरे जैसे अज्ञानी का इस बारे मे कुछ लिखने की धृष्टता करना ज्ञानीजनों की दृष्टि में एक ऐसे बालक जैसा ही है जिसने बिना अर्थज्ञान के पाठ को येन केन प्रकारेण आधा अधूरा  याद कर लिया हो और उसे गुरुजी को सुनाने के लिए आतुर हो।
कहा गया है कि जिसे ब्रह्म का ज्ञान हो गया उसे वह व्यक्त नहीं कर सकता और जो व्यक्त हो जाय वह ब्रह्म नहीं है। इसलिए विद्यावान एवं तत्वदर्शी ब्रह्म को मन, बुद्धि एवं वाणी का अविषय कहते हैं किन्तु जब लोकसंग्रह के निमित्त इसकी  व्याख्या करने की बाध्यता ही हो तो इसकी सर्वोत्तम व्याख्या मौन हीं है।
इस दृश्य जगत  मे जड़ से जड़ को अपने चारो ओर के परिवेश को देख कर यह तो अनुमान हो ही जाता है कि यदि कोई संस्था/व्यवस्था किसी रूप में कार्यरत है तो उसका संस्थापक/व्यवस्थापक भी प्रायः समीप ही दिख जाता है चाहे वह संस्था पारिवारिक हो, सामाजिक हो, शासकीय हो ,व्यापारिक हो या फिर और कोई।इसका कोई न कोई नियामक होता ही है और वह सहज ही दिखता भी है।
तो निगमन से यह सिद्ध हुआ कि चूंकि प्रत्येक लौकिक  व्यवस्था किसी न किसी सत्ता के अधीन है अस्तु यह सम्पूर्ण वैश्विक व्यवस्था तथा उसका परिचालन जिस सृष्टि की  उत्पत्ति, स्थिति एवं प्रलय के रुप मे प्रवाहमान है, का भी नियमन एक विशिष्ट सत्ता द्वारा होना चाहिए। इसी  विशिष्ट सत्ता को ब्रह्म कहना चाहिए। इससे  भीे जो पर है,श्रेष्ठ है उस परम सत्ता को परब्रह्म, परमेश्वर, परमात्मा कहना चाहिए जो स्वयंप्रकाश है, सर्वव्यापी है, सर्वगत है,शुद्ध चेतन है ,सच्चिदानन्दमय है,शान्त है, निर्मल है, निर्विशेष है,अगोचर है, अचिन्त्य है।किन्तु यह परम सत्ता दिखती नहीं है। आधिभौतिक जगत मे अगर दिखती है तो मात्र उपाधि के रुप मे। स्पष्ट है कि जीव से लेकर ईश तक सब उसी परब्रह्म परमेश्वर परमात्मा की ही उपाधि है। यह समस्त चराचर जगत भी इस प्रकार उस परब्रह्म की उपाधि है जो उसकी माया से कल्पित, रचित एवं आच्छादित है।
ब्रह्म को जानना तो दूर उसके उपरोक्त उपाधियों को एकसाथ ध्यान में रख उसकी कल्पना भी करना मनुष्यमात्र के मनोसाम्राज्य की सीमा के बाहर है।
ईशावास्योपनिषद का यह श्लोक देखिए-
तदेजति तन्नैजति तद् दूरे तद्वन्तिके।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः।।
             (ईशावास्योपनिषद् ,5)
किन्तु इसे उस परब्रह्म की यह भी विशेषता ही  कहिये कि जो ज्ञान से मनुष्य के पकड़ के बाहर है वह परमेश्वर परमात्मा राम के रुप मे भक्ति से सहज ही प्राप्य है।
अध्यात्मरामायण मे प्रकृति-शक्तिस्वरुपा माता सीता स्वयं महामति विद्यावान भक्तशिरोमणि हनुमानजी को कहती हैं-
रामं विद्धि परं ब्रह्म सच्चिदानन्दमद्वयम्।
सर्वोपाधिविनिर्मुक्तं सत्तामात्रमगोचरम्।।
इस प्रकार परमात्मा राम ही परब्रह्म है।
वेद शब्दब्रह्म है। सगुण साकार तथा निर्गुण निराकार दोनो ही परमात्मा राम की हीं उपाधि हैं। ब्रह्म के परम अध्येता महामुनि भगवान व्यासजी ने ब्रह्म को सूत्रों से निरुपित किया। ब्रह्मसूत्र के विषय में क्या कहा जा सकता है। बादरायण व्यासजी द्वारा रचित वह ब्रह्मसूत्र को प्रस्थानत्रयी की प्रतिष्ठा प्राप्त है। शंकर सहित अनेक  विद्वानों, साधकों एवं विद्यावानो ने अपने अपने मत को इस ब्रह्मसूत्र मे पोषित पाया जिसके फलस्वरूप उन्होने इस पर टीका लिखकर अपने मत का सम्पोषण, सम्बर्धन एवं पल्लवन किया। ब्रह्मसूत्र मे चार अध्याय है जो सोलह पादों में विभक्त है।पहले अध्याय में बताया गया है कि सभी वेदान्तवाक्य  परब्रह्म का ही अन्वय है; इसलिये उसका नाम 'समन्वयाध्याय' है।दूसरे अध्याय में सब प्रकार के विरोधाभासों का निराकरण किया गया है, इसलिये उसका नाम 'अविरोधाध्याय' है।तीसरे में परब्रह्म की प्राप्ति का साधन का वर्णन है, अतः उसे साधनाध्याय कहा गया ओर चौथे में उस ब्रह्मविद्या के साधकों के अधिकार के अनुरूप प्राप्त होनेवाले फल के विषय में निर्णय किया गया है, इस कारण उसे फलाध्याय कहते हैं।
पूज्यपाद वेदव्यासजी ने ब्रह्मसूत्र मे अपने सिद्धांत का प्रतिपादन जो किया है, वह संक्षेप मे विद्वानों द्वारा इस प्रकार वर्णित है-
क. ब्रह्म हीं इस दृश्यमान जड़चेतनात्मक जगत का उपादान और निमित्तकारण है।
ख.समस्त चेतन जीव-समुदाय उस परब्रह्म की पराशक्ति है तथा यह परिवर्तनशील दृश्यादृश्य जड़वर्ग अपराशक्ति है। ये परा एवं अपरा शक्ति परब्रह्म से भिन्न नहीं हैं क्योंकि ये दोनों उसी परब्रह्म की अपनी शक्तियां हैं।
ग. परब्रह्म उन दोनों शक्तियों का आश्रय होने के कारण उनसे भिन्न भी है।
घ.वह परब्रह्म परमेश्वर अपनी उपरोक्त दोनों शक्तियों को लेकर ही सृष्टिकाल मे जगत की रचना करता है और प्रलयकाल मे इन दोनों शक्तियों को अपने मे विलीन कर लेता है।
ङ.परब्रह्म परमात्मा शब्द, स्पर्श आदि से रहित निर्विशेष, निर्गुण एवं निराकार भी है तथा अनन्त कल्याणमय गुणसमुदाय से युक्त सगुण एवं साकार भी है।
च. जीव नित्य है।उसका जन्मना और मरना शरीर के सम्बंध से है आत्मा से नहीं।
छ.जिन ज्ञानी महापुरुषों के मन मे किसी प्रकार की कामना नहीं रहती, जो सर्वथा निष्काम और आप्तकाम हैं उनको यहीं ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है।
ज.ब्रह्मज्ञान सभी आश्रमों में हो सकता है।सभी आश्रमों में ब्रह्मविद्या का अधिकार है।
झ.ज्ञानी महापुरुष लोकसंग्रह के लिये सभी प्रकार के विहित कर्मोँ का अनुष्ठान कर सकता है।
ञ.ब्रह्मलोक मे जानेवाले का पुनरागमन नहीं होता।
ब्रह्मसूत्र के कतिपय श्लोकों को आधार बना कर ब्रह्म निरुपण की यह चेष्टा को सूर्य को दीपक दिखाने की मेरी धृष्टता हीं कही जायेगी।

राजीव रंजन प्रभाकर
04.12.2018

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