पंचवटी में राम का लक्ष्मण को ज्ञानोपदेश
भरतजी चित्रकूट से अयोध्या लौट चुके थे। अंततः वही हुआ जिसका विधान प्रभु ने रच रखा था। राम, सीता एवं लक्ष्मण चित्रकूट में ही रह वहीं समस्त वनवासी को अपने रूप, गुण एवं धर्माचरण से सुख पहुंचा रहे थे। वनवासी तो क्या पशु- पक्षी भी निर्भीक एवं निर्वैरभाव से विचरण करते। भगवान के सानिध्य मात्र से अनायास हीं सभी का कल्याण एवं पुण्यसंचय हो रहा था।
कामदगिरि के अंचल में ऋषि मुनि सेवित श्रीराम के उस आश्रम में ज्ञान, भक्ति एवं वैराग्य की त्रिवेणी बहती थी। ऋषिगण अपने प्रति भगवान का स्नेह एवं आदर पाकर कृतकृत्य थे। समीपवर्ती क्षेत्रों के नगरवासी का भी भगवान के दर्शनार्थ आना प्रायः नित्य हो हीं रहा था।प्रभु सबसे प्रेम से मिलते। किन्तु आश्रम के जनसंकुल सेवित रहने से वनवास के अनुरूप उदासीन,एकांत एवं तापस जीवन व्यतीत करने में विघ्न उपस्थित हो रहा था।फिर प्रभु को दण्डकारण्य भी जाना था। ऐसा विचार भगवान ने चित्रकूट से प्रस्थान किया। मार्ग में प्रभु अत्रि मुनि के अतिथि हुए एवं अपनी यात्रा जारी रख महर्षि अगस्त्य के आश्रम भी गये जहां मुनिश्रेष्ठ ने उनका भावपूर्ण ज्ञान वंदन किया।मुनिश्रेष्ठ अगस्त्य से ही परामर्श प्राप्त कर श्रीराम ने गोदावरी तट पर जनसमूहशून्य किन्तु प्राकृतिक वैभव से पूर्ण प्रदेश पंचवटी मे निवास करने का निर्णय लिया। भगवान की आज्ञा पाकर लक्ष्मण ने वनसामग्री से हीं एक सरल, सुंदर किन्तु सुदृढ कुटी बनाया। लक्ष्मण द्वारा निर्मित इस कुटिया की भगवान ने न केवल सराहना की बल्कि उनके इस कौशलयुक्त कलात्मक दक्षता की प्रशंसा भी की।इससे यह भी पता चलता है कि पहले शिक्षा शस्त्र एवं शास्त्र ज्ञान तक हीं सीमित न होकर सामान्य जीवन की आवश्यकता को भी पूरा करने मे समर्थ था तथा यह भी कि इसे राजपुत्रों को भी बिना किसी भेद के प्राप्त करना आवश्यक होता था। आज की शिक्षा की तरह यह पुस्तकीय ज्ञान भर अर्जन कर लेना नहीं था, प्रत्युत वह हमें मूल्य एवं कौशल आधारित जीवन जीने की कला भी सिखलाती थी।अस्तु।
लक्ष्मण बहुत दिनों से भगवान से तत्वज्ञान के विषय में कुछ पूछने की अभिलाषा रखते थे।एक दिन लक्ष्मण ने अवसर पा भगवान से वह सब निवेदन कर हीं दिया जिसे जानने की लालसा उनके ह्रदय में दीर्घकाल से संचित थी। लक्ष्मण ने ज्ञान, वैराग्य, माया, ईश्वर, जीव तथा भक्ति जैसे गूढ़तत्व को भगवान से जानना चाहा था।
भगवान कहते हैं;" लक्ष्मण!, इन तत्वों का आदि मध्य और अंत तुम मुझे हीं जानो। यह मुझसे हीं आरम्भ होकर मुझमें हीं समाप्त होता है।सरल एवं सुबोध रूप से समझने के दृष्टिकोण से संक्षेप मे इतना जान लेना पर्याप्त है कि ये जो संसार मे मेरा तेरा का मनुष्य मे भाव उत्पन्न होता है वही माया है जिससे यह समस्त जगत परिचालित है तथा जिसके अधीन यह जीव जन्म से लेकर मृत्यु तक कठपुतली की तरह नृत्य करता रहता है। मन एवं इन्द्रिय तथा उसके विषय माया के क्रीड़ामृग हैं। भाई लक्ष्मण! इस माया के भी दो भेद हैं जो विद्या एवं अविद्या कहलाती है।विद्या तो तुम उसे जानो जिसका स्वरूप त्रिगुणात्मक है; यह त्रिगुणात्मक होने से विक्षेपकारिणी है जिससे यह सम्पूर्ण चराचर विश्व सृजित है। माया का दूसरा रुप अविद्या है जिसके आवरण से ज्ञान आवृत रहता है। लोक एवं वेद में यह अज्ञान कहलाया। इसी के वशीभूत जीव नाना प्रकार की वृत्तियों से प्रेरित शुभाशुभ कर्म को करता हुआ जन्म जन्मांतर तक संसारबन्ध से जकड़ा पड़ा रहता है। लक्ष्मण, इस माया का जो प्रेरक है उसे तुम ईश्वर जानो तथा जिसे ईश्वर, माया यहाँ तक कि स्वयं के स्वरूप का ज्ञान न हो उसे तुम्हें जीव समझना चाहिए। जीव भी मेरा हीं अंश है, किन्तु अविद्याजनित अहंकार के फलस्वरूप उसे इसका भान नहीं होता। इस तथ्य को तत्व से जान लेना जिसे ज्ञान कहते हैं,बिना मेरी कृपा के सम्भव नहीं है। ऐसे ज्ञान से युक्त जीव कोे इस सम्पूर्ण जगत मे सर्वत्र एवं सदैव मेरा ही रूप, गुण एवं प्रभाव की अनुभूति तथा दर्शन होते हैं।
वत्स लक्ष्मण! यह ज्ञान भी मेरी भक्ति के प्रसादस्वरूप हीं प्राप्य है, इसका और कोई विकल्प नहीं है। यह ज्ञान जिसे शास्त्र में मोक्ष का साधन बताया गया है वस्तुतः और कुछ भी नहीं सिवा इसके कि यह अविद्या का संहारक है।मूला अविद्या नष्ट हो जाने की स्थिति,अर्थात उसकी लयावस्था हीं मोक्ष है। मोक्ष का अलग से कोई अस्तित्व नहीं है। यह आत्मा मे एक उपचारमात्र है जिसमें ज्ञान की भूमिका भेषज की है। वास्तव में आत्मा की मुक्तावस्था कोई आगन्तुक नहीं है वह तो सदा से हीं मुक्त है। जिस समय मूला अविद्या नष्ट हो जाती है उस समय जीवात्मा और परमात्मा मे भेदबुद्धि का स्वतः लोप हो जाता है क्योंकि अविद्या अपने समस्त कार्य(शरीरादि) एवं ईन्द्रिय(सूक्ष्म एवं कारण शरीर) सहित परमात्मा में लीन हो जाती है।
लक्ष्मण! जैसा मैने पहले कहा ये ज्ञान, धर्म, अर्थ काम एवं मोक्ष इत्यादि सभी मेरी निर्भरा भक्ति के अधीन है। मेरे लिए कुछ भी अदेय नहीं है किन्तु तुम यह भी जान लो कि इस सम्पूर्ण जगत मे मैं अपने भक्तों को छोड़ किसी के अधीन नहीं हूं। ज्ञान से योग से यज्ञ से मैं उतनी सहजता से प्राप्त होनेवाला नहीं जितना कि मैं अपने भक्त के लिए सुलभ हूँ। मेरे वैसे भक्त जिसने देह , गेह ,पुत्र, कलत्र के प्रति अपने मोह रूपी डोरी से मेरे पैरों को बांध लिया हो, मेरे ह्रदय मे उसी प्रकार बसते हैं जैसे लोभी के मन मे सोना। मेरी तथा मेरे भक्तो की सेवा करना, एकादशी का व्रत रखना, मेरा नाम जप करना, अपने समस्त लौकिक व्यवहार एवं व्यापार को मेरे हीं प्रीत्यर्थ करते हुए मुझे अर्पित करना, निरन्तर मेरा चिन्तन करना मेरी भक्ति को पाने का अचूक साधन जानो।"
लक्ष्मण प्रभु को निर्निमेष निहारते रहे।
राजीव रंजन प्रभाकर,
02.11.2018.
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