चित्रकूट में भरतजी

भगवान राम का वनगमन का हेतु राक्षसेन्द्र रावण का वध था। दोष कैकयी को लगना था सो लगा। विह्वल भरत जो अपने माता के इस अकांडतांडव से अनभिज्ञ थे, सभी अनर्थ के मूल में स्वयं को पाकर भगवान राम को मनाने तथा वहीं वन में श्रीराम का राज्याभिषेक हो जाय, इसी मनोरथ के साथ माताओं, गुरुजन एवं मुनिसमाज सहित चित्रकूट गये। उन्होंने अनेक प्रकार से प्रभु से प्रार्थना कर निवेदन किया कि वे निर्दोष हैं जो भगवान जानते हीं थे। उन्होंने कहा कि प्रभु आप सब अयोध्या लौटिये, वन को हम जायेंगे। किन्तु भगवान ने उन्हें दुलार एवं आदरसहित समझा दिया कि दोनों भाइयों का वर्तमान में यही कर्तव्य है कि दोनों अपने स्वर्गीय पिता की आज्ञा का पालन करें जिसमें हीं समस्त का कल्याण निहित है। इसलिये मुनिसमाज की यही सम्मति बनी कि अवधि तक अवध भरतपालित हो तथा वन राम सेवित। भरत नहीं माने। उनका कहना हुआ कि वे तो ठहरे भगवान राम के सेवक। यह किसी सेवक की ढिठाई हीं होगी जो उसे स्वामी के समक्ष कहा जाय कि वह अवध का पालनहार बने। पालनहार तो मात्र प्रभु श्रीराम हीं है तथा भगवान राम की अवध में उपरोक्त कारणवश अनुपस्थिति में मुनिसमाज अधिक से अधिक भार मुझे मात्र इतना भर सौंप सकते हैं कि मुझे अवध की सेवा भगवान राम की आज्ञा ले ले कर करने को कहा जाय। भगवान यदि अयोध्या नहीं लौटते हैं तो  स्वामी की आज्ञानुसार राजसंचालन हेतु मुझे भगवान के पास वन को बार बार आना परम आवश्यक होगा।यह समाधान तो और कठिन हो गया।गुरुजन एवं मुनिसमाज के लिए यह बड़ी विचित्र स्थिति थी। स्मितवक्त्र श्रीराम ने भरत का स्नेह और वात्सल्य देख उनसे कहा, 'भाई भरत, तुम्हारे वन को आने जाने से अयोध्या के राजकाज में व्यवधान होगा।' भरत कहते हैं, 'तो हे स्वामी, आप अपनी चरणपादुका मुझे दे दिजिये। मैं इन्हीं को आपकी अनुपस्थिति में राजसिंहासन पर प्रतिष्ठित कर इनसे आज्ञा ले ले कर हीं अयोध्या के राजकार्य का सम्पादन आपके सेवक के रूप में करुंगा। परन्तु प्रभु मैं यह बात भी अभी हीं कह देना चाहता हूं कि यदि आप नियत अवधि से एक दिन भी देरी से अयोध्या लौटे तो आप अपने भरत को जीवित नहीं पाइयेगा।'  भगवान् ने भरत को अपने वक्षःस्थल से लगा लिया। धन्य हैं भरत, आकाश में पुष्पवर्षा होने लगी।
प्रभु ने भरत के दुलार का मान रखा। भक्त का मान रखना भगवान के परमकर्तव्य की कोटि में आता है। उन्होंने अपनी चरणपादुका भरत को सौंप दी, भरत उन चरणपादुका को अपने मस्तक पर धारण कर अयोध्या को प्रत्यागत हुए जहां उन्होंने भगवान की उन पादुकाओं को सिंहासन पर प्रतिष्ठित किया तथा राजकाज का संचालन पादुका से अनुमति लेकर इस प्रकार करते जैसे कोई राजकर्मचारी राजा से अनुमति प्राप्त करता हो।
राजस राग भोग को त्याग स्वयं तपस्वी का वेष धारण कर भरत नन्दीग्राम में रहते और वहीं से राज एवं प्रजा की आवश्यकताओं को पूरा करते। श्रीराम के स्मरण में भगवान के वनवासावधि की समाप्ति की प्रतीक्षा में भरत इस प्रकार अपने दायित्व का निर्वाह कर रहे थे जैसे कोई सेवक गृहस्वामी के तीर्थयात्रा के जाने पर उसके घर को सम्हालता हो।
भरतजी को धर्म की धूरी कहकर गोस्वामी तुलसीदास ने मानस में वर्णन किया है। इतना तो निर्विवाद रुप से कहा जा सकता है कि यदि भरत राजसिंहासन को स्वीकार कर लेते तो इसमें कुछ भी गलत नहीं था, वह तो महाराज दशरथ की आज्ञा हीं थी, फिर श्रीराम के वनगमन एवं दशरथ का शोकाकुल होकर प्राणत्याग से उत्पन्न स्थिति से अयोध्या को अनाथ हो जाने से बचाने हेतु यह लोक बुद्धि से समीचीन भी था। कुलगुरु वशिष्ठ सहित माता कौशल्या इसके लिए उन्हें बार बार समझा भी चुके थे।  भरत सब की बात सुन तो रहे थे किन्तु किसी को रंचमात्र भी अनुमान नहीं था कि भरत ऐसा निर्णय करेंगे कि वे गुरु, मुनि, माता एवं सेन समाज सहित भगवान को मनाने वन को चल देंगे एवं वन में हीं भगवान का राज्याभिषेक करने की सोच लेंगें जब उन्होंने कहा कि अभिषेक की सामग्री भी साथ ले ली जाय। यह था भरत का विवेक जो ठीक उसी प्रकार नहीं डिगनेवाला था जैसे किसी पतिव्रता स्त्री को कोई कामुक नहीं डिगा पाता है चाहे वो लाख युक्ति कर ले। यदि भायप प्रेम, त्याग, स्वामी सेवक सम्बंध को तत्व से जानने की जिज्ञासा हो तो भरतचरित का सूक्ष्मता से अध्ययन बिना यह सम्भव नहीं है। भगवान राम के अनन्य सेवक हनुमान हैं, यह हम सभी जानते हैं। किन्तु हनुमान भगवान के कितने प्रिय हैं इसे बताने हेतु स्वयं श्रीराम को भरतजी का हीं सहारा लेना पड़ा मानो उनकी प्रीति का भरतजी हीं उच्चतम मानक हों जब वे कहते हैं 'तुम मम प्रिय भरतहिं सम भाई।'
भरतचरित का अवगाहन भगवान के प्रति वर्धमान प्रेम को पुष्ट करता है तथा विषयों में वैराग्य उत्पन्न कर मानसप्रेमियों के व्यक्तित्व में कोमलता, त्याग, विवेक एवं दृढ़ता प्रदान करता है।

राजीव रंजन प्रभाकर
  14.10.2018

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