मनुष्य का संसार से सम्बंध, राग-द्वेषादिजन्यविकार तथा उसका परिहार

अदृश्ये आपतितं पुनश्च अदृश्यं गतः
न ते तौ न तस्य त्वं वृथा हर्ष परिदेवना।
भगवान की लीला अपरम्पार है। सब कुछ उन्हीं की इच्छा के अधीन है।इसे हम जितनी जल्दी मान लें उतना ही अच्छा। अगर नहीं मानते तो अनुभव से हम इसको धीरे धीरे जान पाते हैं।
जन्म लेते हीं मनुष्य विभिन्न प्रकार के बंधनों में जकड़ लिया जाता है। पारिवारिक बंधन, कुटुम्बीय बन्धन, सामाजिक बन्धन, कारोबारी बन्धन कहां तक नाम लिया जाय। विभिन्न प्रकार के सम्बंधों को इसी परिपेक्ष्य में देखने की आवश्यकता है। चाहे वह पिता-पुत्र का सम्बंध हो या स्वामी-सेवक या कुछ और ; सभी सम्बंध परस्पर स्वार्थपूर्ति को सम्भव बनाने के लिए रचित या नियोजित है और जहां स्वार्थ है वहां उसका प्रतिफलस्वरूप विभिन्न मनोभाव भी है। मनोविकार की उत्पत्ति का हेतु सम्बंधजनित स्वार्थपूर्ति में असफलता को मानना चाहिये।
मनुष्य में हर्ष-अमर्ष, राग-द्वेष, काम-क्रोध, लोभ-मोह, आशा-तृष्णा का पोषण एक दूसरे से सम्बंधजनित है। क्या जिन्हें हम जानते नहीं पहचानते नहीं उनसे हम कोई आशा रखते हैं? क्या हम अपने पुत्र के किसी परीक्षा में सफलता पर जितना हर्षित होते हैं क्या अजनबी की सफलता का समाचार पाकर भी वैसा ही अनुभव करते हैं? क्या स्वजन-परिजन की मृत्यु की दशा में हम जितना शोकाकुल या विह्वल होते हैं वैसा हीं हम चाहकर भी किसी अपरिचित, परिचित अथवा दूरसम्बंधी के निधन पर हो पाते हैं? विचारने से सहज ही ज्ञात हो जाता है कि ये सभी मनोवृत्तियां मनुष्य का एक दूसरे से सम्बन्धित होने से हीं विद्यमान तथा दृश्यमान हैं। यदि सम्बन्ध न हो तो प्रथमतः ये मनोभाव उत्पन्न हीं नहीं हो और यदि उत्पन्न हो भी जाए तो मनोवृत्ति का रुप न ले पायेगा क्योंकि सम्बन्ध के अभाव में यह जन्म लेते ही नष्ट हो जायेगा। इससे यह पता चलता है कि मनुष्य मात्र में ये समस्त मनोभाव का मनोवृत्ति में परिवर्तन एवं मनोवृत्ति से प्रवृत्ति तथा प्रवृत्ति से उसकी प्रकृति का निर्माण में मनुष्य का मनुष्य से विभिन्न सम्बंधों द्वारा सम्बद्ध होना एक अत्यंत महत्वपूर्ण तथ्य है।
सम्बन्ध की पृष्ठभूमि में यदि गहराई से विचार किया जाय तो सम्बन्ध का निर्माण के मूल में एक दूसरे से सुख प्राप्ति की कामना है।अब यह बात अलग है कि इसकी परिणति यदि दुःख या विषाद में हो जाता हो।सुख प्राप्त करने के स्थान पर यदि भाव सुख प्रदान करने का हो तो बात दूसरी है। यह हम भूल जाते हैं कि सुख प्राप्त करने का सर्वोत्कृष्ट साधन सुख प्रदान करने में निहित है। सम्बन्धों का स्थायित्व भी इसी भाव के अधीन है।अस्तु।
युवक युवती वैवाहिक बन्धन में बन्ध कर पति-पत्नी का सम्बन्ध सुख की कामना से बनाते हैं परन्तु परिणाम प्रायः आशा के विपरीत भी होते देखा जाता है। बेटा को पढ़ाया इस सुख की कामना से कि लायक होने पर माता पिता की बेहतर देखभाल करेगा। पता चला कि वह तो अपनी दुनिया अलग बसा अपने मां बाप को भूल चुका है। अनेक उदाहरण हैं जहां सुख की कामना पर आधारित सम्बन्ध पर अल्पकाल में ही निर्मम कुठाराघात हो जाता है। इस जगत में जितने भी सम्बंध हैं अस्थायी हैं। माता- पिता, भाई-बन्धु, पुत्र-मित्र-कलत्र आदि सभी का एक दूसरे से काल क्रम में वियोग अवश्यंभावी है। अब चूंकि ये सम्बंध स्थायी है नहीं इसीलिये इन सम्बंधों पर आश्रित राग-द्वेष, घृणा-प्रेमादि सम्बन्धी सभी द्वन्द भी स्थायी नहीं है किन्तु ये जितने हीं काल तक रहते हैं स्थिति और परिस्थिति को प्रभावित कर इष्टानिष्ट के हेतु बन जाते हैं। सम्बंध के अभाव की स्थिति में हीं वे अपना आधार खोकर निराधार हो प्रभावहीन हो सकते हैं।
सन्यासाश्रम सम्बंध के अभाव की स्थिति को सम्बन्ध-विच्छेद के माध्यम से प्राप्त करने की चेष्टा है। जिन्हें हम सन्यासी कहते हैं उनका अभीष्ट संसार से अपना सम्बन्ध विच्छेद कर इन द्वन्द पर विजय प्राप्त कर जीवनमुक्त होना है किन्तु गृहस्थाश्रमी के लिए यह मार्ग शास्त्रानुशंसित नहीं है।वैसे गहनता से जांच करने पर हमें यह भी पता चलता है कि सन्यासी को भी अपने जीवन निर्वाह हेतु भिक्षाटन करना हीं होता है। बिना कर्म किए चाहे वह कैसा भी शरीरधारी क्यों न हो अपनी शरीरयात्रा भी सम्पादित नहीं कर सकता। और जहां कर्म है वहां कर्माकर्म जनित शुभाशुभ वासनाओं का उदय अवश्यंभावी है। इस प्रकार भले ही सन्यासी का कुटुम्बीय सम्बंध सन्यास लेने से समाप्त हो जाते हों किन्तु जगत से सम्बंध रह हीं जाता है जब वह एक गृहस्थ के द्वार पर भिक्षा की कामना से पहुंचता है।अतः सन्यासी भी सांसारिक सम्बंध से पूर्णतया निरपेक्ष नहीं है। कदाचित् यही कारण है कि गृहस्थाश्रम को चारों आश्रमों से श्रेष्ठ माना गया है, क्योंकि यही वह आश्रम है जिनसे शेष तीनों आश्रम पोषित होते हैं। हां, यह सत्य है कि सन्यासाश्रम में कुटुम्बीय सम्बंधों के लोप होने से सम्बन्धजनित राग-द्वेषादि विकार भी सन्यासी में एक गृहस्थ की अपेक्षा अत्यल्प हीं होना चाहिए या कहें कि होना हीं नहीं चाहिए। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह आदर्श स्थिति सन्यास आश्रम में भी व्यवहार में नहीं पायी जाती है। कभी कभी तो ऐसे उदाहरण भी प्रायः समय समय पर दिख हीं जाते हैं जो निराशाजनकरुप से चकित करने वाले होते है जब कोई सन्यासाश्रमी पाशविकता की सीमा तक भोगलिप्त पाया जाता है।
किन्तु एक गृहस्थाश्रमी या संसारी के लिए सम्बंध के अभाव की स्थिति अकल्पनीय है। सम्बंध-विच्छेद का अर्थ एक गृहस्थ के लिये गृहस्थी का नाश हीं है।
तो फिर एक सामान्य गृहस्थ के लिए इन द्वन्दात्मक विकारों से मुक्ति के क्या उपाय हैं?  संसार में रह कर इन द्वन्दात्मक विकारों से किस प्रकार छुटकारा मिले?
छुटकारा असम्भव है जब तक हम इस संसार में हैं। यदि कोई कहता है कि वह इन रागादि दोष से मुक्त है तो यह उसका दम्भमात्र है। हां, इन विकारों का क्रमिक क्षय सम्भव है किन्तु यह अभ्यासाधीन है। गीताजी में अभ्यास और वैराग्य से इन मनोवेग को नियंत्रित करने के उपाय समाधानस्वरुप बताये गये हैं। अतः जब तक काम-क्रोधादि की आश्रयस्थली यह शरीर विद्यमान है तथा जो विभिन्न प्रकार के सम्बंधों से पोषित एवं सम्बर्धित है तब तक उन सूक्ष्म वासनाओं से त्राण नहीं है। सुखी वही हो सकता है जो उन मनोवेगों को शरीर त्याग के पूर्व हीं सहन करने में समर्थ है। ऐसा निरन्तर अभ्यास से हीं सम्भव है। अभ्यास आसक्तिरहित कर्म करने में सहायक होता है। जब आसक्ति क्षीण होता है तब कर्म कर्तव्यबोध के अधीन सम्पादित होता है और इस प्रकार सम्पादित होते होते वैराग्य  का उदय होता है।
किन्तु यह सभी के वश में नहीं है। जिन पर कृष्ण की कृपा होती है वे हीं ऐसे अभ्यास के प्रति उन्मुख होते हैं वरन कौन चाहता है कि वह काम-क्रोध-लोभ के अधीन होकर अपना हीं अनिष्ट करे!
शेष हरि इच्छा।
राजीव रंजन प्रभाकर
  28.01.2019

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