रामह्रदय
'रामह्रदय' को यदि अध्यात्मरामायण का भी ह्रदय कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। अध्यात्मरामायण का श्रीगणेश 'रामह्रदय' से हीं होता है। बालकांड के प्रथम सर्ग का शीर्षक रामह्रदय है जिसमें कैलाश पर्वत पर सुखासीन ध्यानमग्न दक्षिणामूर्ति महादेव शिव ने अपने वामांक में आसीन भार्या भूधरसुता मां पार्वती के अनुरोध पर रामतत्व का विवेचन सकललोककल्याणार्थ किया है।
'रामह्रदय' में माता पार्वती ने महादेव को सनातन एवं रामतत्व का परम अधिकारी जान उनसे भक्तिपूर्वक यह जानना चाहा कि भगवान राम जब परब्रह्म हैं तो उन्होंने सीता वियोग के कारण इतना विलाप क्यों किया। इस तरह तो सामान्य सांसारिक जीव करते हैं। यदि उनका भी क्रिया कलाप एक सामान्य सांसारिक प्राणी के सदृश हीं है तो उनका भजन क्यों किया जाना चाहिए। पार्वती कहती हैं कि एक तरफ समस्त सिद्ध, विज्ञ एवं परमार्थतत्व के ज्ञाता राजा रामचंद्र को अखिल लोक सार, प्रकृति के गुण एवं प्रवाह से परे जानते हैं किन्तु वहीं कतिपय जनों की यह धारणा भी है कि भगवान राम अपनी माया से आवृत रहने के कारण आत्मतत्व को नहीं जान सके और उन्हें इसका बोध वशिष्ठादि गुरूजनों द्वारा कराया गया। देवी पार्वती के इसी संशय का छेदन जो उमाकांत ने किया है वही इस परम पावन रामह्रदय का प्रतिपाद्य विषय है।
देवाधिदेव महादेव गिरिवरतनया को कहते हैं कि जो मनुष्य ऐसी धारणा रखते हैं कि श्रीरामचंद्रजी आत्मज्ञान के अभाव के कारण साधारण मनुष्य की भांति वन में वनिता वियोग का दुःख सहन कर सीताजी की खोज में यत्र तत्र दण्डकारण्य में भटकते रहे वे वस्तुतः अपनी अज्ञानता को हीं परमात्मा राम में आरोपित करते हैं। परमात्मा राम सनातन पुरूषोत्तम तथा माया के अधिष्ठान हैं। देवताओं की स्तुति, पृथ्वी का भार उतारने तथा अपने भक्तों को अनुग्रह प्रदान करने के प्रयोजनार्थ और न जाने किन किन हेतुओं से जिसे केवल और केवल वही जानते हैं उन्होंने अपनी हीं माया से मनुष्य रूप धारण कर इस भूलोक में अवतरित हुए तथा मर्यादित आचरण की प्रतिष्ठा कर त्रिलोकी में मर्यादापुरूषोत्तम कहलाये।
प्रकारान्तर से हम यह कह सकते हैं कि जब भी लोक मर्यादा का हनन होता है, पृथ्वी पर अनाचार, दुराचार एवं भक्तों तथा अशक्तों के प्रति अत्याचार एवं अन्याय बढ़ता हीं जाता हो और संरक्षणकर्ता राजा मदोन्मत्त हो अपने कर्तव्यों से च्युत हो जाते हों तो इस के निवारणार्थ भी भगवान इस धरा पर विभिन्न रूप धारण कर अवतरित होते हैं।
शास्त्रोक्त भी है-
अशक्तानां हरिर्बलम।
सत्यं विधातुं निजभृत्यभाषितं व्याप्तिं च भूतेष्वखिलेषु चात्मनः।
अदृश्यतात्यद्भुतरूपमुद्वहन् स्तम्भे साभायां न मृगं न मानुषम।।
(इसी समय अपने सेवक प्रह्लाद और ब्रह्मा की वाणी सत्य करने और समस्त पदार्थ में अपनी व्यापकता दिखाने के लिए सभा के भीतर उसी खम्भे में बड़ा हीं विचित्र रूप धारण करके भगवान प्रकट हुए। वह रूप न तो पूरा पूरा सिंह का हीं था और न मनुष्य का हीं।)
(श्रीमद्भागवतम , सप्तम स्कन्धे अष्टमाध्याये अष्टादश श्लोके)
अपने प्रबोधन में शिव शिवा से कहते हैं कि परमात्मा राम में अविद्या रह हीं कैसे सकतीं हैं। पुरूषोत्तम श्रीराम तो स्वयंप्रकाश हैं। महादेव कहते हैं क्या सूर्य में अंधकार का वास हो सकता है, वह तो सदैव प्रकाशमान है, दिवा रात्रि की इसमें कल्पना करना जिस प्रकार अज्ञानोत्पन्न है उसी प्रकार परमात्मा श्रीराम में भी लोग निज बुद्धि अनुरूप अविद्या को आरोपित कर जो मन में आता है, समझ लेते हैं। जिस प्रकार चुम्बक की सन्निधिमात्र से जड़ लोहे में भी गति उत्पन्न हो जाती है और यह कि लोहे में ऐसी उत्पन्न गति का दोषारोपण चुम्बक पर नहीं किया जा सकता क्योंकि चुम्बक अचल, स्थिर, स्वयं में परिणामहीन है उसी प्रकार परमात्मा राम भी परिणामहीन, अचल, अविनाशी, निर्विकार, निर्मल तथा प्रकृति के गुण एवं प्रवाह से परे हैं। यह सम्पूर्ण दृश्य प्रपंच प्रकृति के उन सनातन पुरूषोत्तम भगवान के सन्निधिमात्र से उत्पन्न है। जिस प्रकार चक्कर खाते एक मनुष्य को सम्पूर्ण जागतिक पदार्थ दोलायमान भासता है उसी प्रकार अविद्या से ग्रसित जीव भी भ्रमवश असत्य को सत्य और सत्य को असत्य समझता है जिसका परिणाम हीं यह जन्म, मृत्यु और पुनर्जन्म है।
इसी जन्म मरण चक्र से छुटकारा पाने का नाम मुक्ति है जो जीवात्मा का परमात्मा में विलय हीं है।सिद्ध एवं विज्ञ इस विलय को साधक के साधनाभाव के अनुसार इसे सालोक्य, सार्ष्टि, सामीप्य, सारूप्य तथा सायुज्य का नाम देते हैं। इस संसृतिक्लेश से मुक्ति बिना राजा रामचंद्र के प्रति निर्भरा भक्ति के सम्भव हीं नहीं है। बिना इस भक्ति के शास्त्राधारित ज्ञानार्जन शास्त्रगर्त में जन्म-जन्मांतर तक पड़े रहना है।
चंद्रमौलि इसी क्रम में देवी पार्वती को हनुमान, राम एवं सीता का संवाद भी सुनाते हैं जिसका संक्षेप में वर्णन निम्नरूपेण निवेदित है -
लंका विजय के पश्चात मर्यादा पुरुषोत्तम राजा रामचंद्र अपने अयोध्या राजदरबार में दिव्य रत्न जटित स्वर्ण सिंहासन पर लोकविमोहिनी सर्वश्रेयस्करी महारानी श्रीसीताजी सहित विराजमान थे। सभी भ्राता एवं वशिष्ठादि मुनिगण तथा सिद्धसमूह सेवित उस राजदरबार में महामति हनुमानजी को ज्ञानाभिलाषा से कृताञ्जलि तथा नतमस्तक पाकर भगवान श्री रामचन्द्रजी कहते हैं कि सीते यह हनुमान की हम दोनों में अविचल एवं अचल भक्ति है और इस प्रकार यह मेरा तत्व जानने का सच्चा अधिकारी है, इसलिए तुम इसे मेरे निश्चित तत्व का ज्ञान प्रदान कर इसकी अभिलाषा पूरी करो।
तदनन्तर सीताजी बहुत अच्छा कह कहती हैं- वत्स हनुमान, तुम राम को सच्चिदानंद आनंदघन परब्रह्म पुरूषोत्तम समझो जो समस्त उपाधियों से मुक्त सत्तामात्र एवं अगोचर हैं तथा मुझे तुम मूल प्रकृति जानो।
रामं विद्धि पर ब्रह्म सच्चिदानंदमद्वयम।
सर्वोपाधिविनिर्मुक्तं सत्तामात्रमगोचरम।।
मां विद्धि मूल प्रकृतिं सर्गस्थित्यन्तकारिणीम्।
तस्य सन्निधिमात्रेण सृजामीदमतन्द्रिताः।।
(अध्यात्मरामायण, बालकांड प्रथम सर्ग 32,34)
मैं हीं उन सच्चिदानंद आनंदघन परब्रह्म पुरूषोत्तम श्रीराम की सन्निधिमात्र एवं निरालस्यभाव से समस्त चराचर जगत की रचना एवं संहार करती हूं।
श्रीरामचंद्र का रघुकुल में जन्म लेना, कौशिक मुनि की सहायता एवं उनके यज्ञ की रक्षा करना, अहिल्या का शापशमन करना, मारीच एवं सुबाहु का वध करना, मेरे पिता का धनुष यज्ञ आयोजित करना, श्रीराम द्वारा शिव का चापभंग तत्पश्चात उनसे मेरा पाणिग्रहण, जामदग्नि का मदक्षय करना, अयोध्या में मेरा श्रीराम के साथ बारह वर्ष तक निवासोपरांत माता कैकेयी से वचनबद्ध मेरे श्वसुर की आज्ञापालन हेतु श्रीराम का अनुज तथा मेरे सहित वन जाना, मायासीता का हरण होना, घोर विपिन में सीतान्वेषण, जटायु एवं कबंध को मोक्षलाभ, शबरी द्वारा भगवान का पूजित होना, सुग्रीव की भगवान से मैत्री होना, बालि का वध करना, समुद्र पर सेतुबंधन, राम रावण संग्राम में दुरात्मा दसकंधर का वध करना, विभीषण को राज्यदान, तदनन्तर ससीत लक्ष्मणसुग्रीवादि उनका पुष्पक विमान से अयोध्यागमन, उनका राज्याभिषेक इत्यादि समस्त कार्य मेरे हीं हैं किन्तु अज्ञानान्धकार से पीड़ित मूढ़ जन अपनी अज्ञानताजन्य अविद्या को प्रभु श्रीराम में आरोपित कर उन्हें हीं इन समस्त कर्मो का कर्ता मान बैठते हैं। तत्वतः श्रीराम अकर्ता एवं मन, बुद्धि, वाणी सहित समस्त इंद्रियादि के अविषय हैं। सत्य तो यह है कि ये राम तो निर्विकार, निर्मल, अविनाशी, सनातन, शुद्ध-बुद्ध, स्वयंप्रकाश, अनादि एवं अनंत हैं जो अपनी हीं रचित माया से समस्त जीव को मोहित करते हैं जिसके फलस्वरूप यह सम्पूर्ण जगत उस समय वैसा हीं भासता है जिस समय मूल प्रकृति का पुरूषोत्तम भगवान के सन्निधिकाल में जैसा गुण वा विकार होता है क्योंकि परब्रह्म परमात्मा राम न तो चलते हैं न ठहरते हैं न सोचते हैं न इच्छा करते हैं न कोई अन्य क्रिया हीं करते हैं और मेरी मूल प्रकृति तो उपरोक्त कार्यों से तुम जान हीं गये होगे कि ये त्रिगुणात्मक है।
गोस्वामी तुलसीदास ने भी रामचरितमानस में माता सीता की प्रार्थना निम्न श्लोक से किया है।
उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम्।
सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम् ।।
पुनः भगवान श्रीरामचंद्र स्वयं हनुमान को आत्मा अनात्मा और परमात्मा का भेद बताते हैं। वे कहते हैं कि वत्स हनुमन जिस प्रकार आकाश के तीन भेद हैं, पहला महाकाश जो जगत में सम्पूर्णता में व्याप्त है, दूसरा जलावछ्छिन्न आकाश जो वस्तुतः है तो उसी आकाश का अंश किन्तु जलाशय के आकारजन्य उपाधि से परिमित है तथा तीसरा प्रतिबिम्बाकाश जो जलाशय में उस महाकाश का प्रतिबिंब है, उसी प्रकार चेतन के भी तीन भेद है-
सम्पूर्ण चेतन जो बहिरान्तर सर्वत्र व्याप्त है, दूसरा सम्पूर्ण चेतन का वह अंश जो बुद्धि में व्याप्त है तथा तीसरा वह चेतन जो बुद्धि में प्रतिबिम्बित होता है जिसे आभास चेतन कहते हैं। यह आभास चेतन तो मिथ्या है जो जीव की बुद्धि में भासता है। यही अविद्या का अधिष्ठान है। अविद्याजन्य उपाधि का इस आत्मज्ञान से बाध हो जाने पर आत्मा एवं परमात्मा का भेद भंग हो जाता है।
तत्वमऽसि एवं सोऽयं जैसे महावाक्यों में जीव और ब्रह्म की यही एकता जहत्यजहति लक्षणा से प्रतिपादन किया गया है। आत्मतत्व ज्ञान से हीं इसकी उपलब्धि होती है।
भगवान श्रीराम अंत में हनुमान को कहते हैं कि हे वत्स हनुमान यह रामतत्व जो साक्षात मैने हीं तुम्हें सुनाया है मेरा ह्रदय जानो। इसे तुम उन शठ को कदापि नहीं सुनाना जो मेरी भक्ति से हीन होकर मेरे प्रति अनास्था का भाव रखते हों चाहे इसके लिये इंद्रासन हीं कोई क्यों न देने के लिए तैयार हो।
महादेव कहते हैं, देवी मैने यह रामह्रदय जो तुम्हें सुनाया है, वह साक्षात राम का ह्रदय हीं है। जो इसका अनन्य भाव से श्रद्धापूर्वक नित्य पाठ या श्रवण करता है भगवान राम उसका कल्याण करते हैं तथा वह परमात्मा परब्रह्म में हीं विलीन होता है अर्थात वह जन्म मरण रूपी पुनर्चक्रण से मुक्त हो जाता है।
भगवान गीताजी में कहते हैं -
मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते।
प्रकृतिं पुरूषं चैव विद्धयनादी उभावपि।।
(13/18)
श्रीसीतारामाभ्याम नमः।
विनयावनत
राजीव रंजन प्रभाकर
13.07.2018
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