गुरू पूर्णिमा


आज गुरू पूर्णिमा है। आषाढ़ मास का शुक्ल पक्ष पूर्णिमा तिथि सम्पूर्ण भारतवर्ष में गुरू पूर्णिमा के नाम से जाना जाता है।
ऐसी मान्यता है तथा यह मेरा भी मानना है कि ज्ञान की प्राप्ति गुरु के बिना संभव नहीं है तथा यह भी कि मनुष्य  जन्म तो अपने माता पिता से प्राप्त करता है किन्तु मनुष्योचित गुणों का लालन, पालन एवं सम्बर्धन में माता पिता के अतिरिक्त यदि किन्हीं अन्य का सार्थक योगदान होता है तो वैसे व्यक्ति हमारे लिए गुरुतुल्य हैं परन्तु गुरु के रूप में वही वरेण्य हैं जो हमारा जीवन के प्रति दृष्टिकोण हीं बदल देने में समर्थ हों। अर्थात गुरुपद पर आसीन व्यक्ति में यह सामर्थ्य अपेक्षित है कि वह हमारे संशय का छेदन कर हमें अज्ञानान्धकार से  ज्ञानरुपी प्रकाश की ओर अग्रसर कर सके। गुरु के आशीर्वाद से व्यक्ति change  नहीं होता न हीं convert होता है बल्कि वह transform हो जाता  है। भारत वर्ष में गुरू-शिष्य की एक समृद्ध परंपरा रही है। भारतीय शिक्षण की पौराणिक व्यवस्था गुरू-शिष्य परम्पराधारित हीं है। यही कारण है कि आज का दिवस हमारे पूर्वजों द्वारा गुरू के प्रति आदर, पूजन, समर्पण एवं आस्था के प्रकटीकरण के निमित्त सुरक्षित घोषित है। आज प्रत्येक का यह कर्तव्य बनता है कि वह जिसे भी अपना गुरु मानता है, के समीप जाय, उनके सान्निध्य में कुछ पल मौन एवं विनीत भाव से बैठे तथा उनका एक बार पुनः आशीर्वाद प्राप्त करे चाहे किसी ने स्वयं के आत्मा को हीं अपना गुरु क्यों न माना हो।
क्योंकि -
आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यः मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः
             (वृहदारण्यक उपनिषद, अध्याय-4, ब्राह्मण-5 सूत्र-6)
"आत्मा अमूर्त होते हुए भी इसे देखा जा सकता है, सुना जा सकता है, मनन किया जा सकता है तथा अनुभव में लाने के लिए इसके समीप बैठ कर अभ्यास भी किया जा सकता है।"

यदि नरहरि दास न होते तो रामबोला तुलसीदास नहीं होते, समर्थ रामदास के बिना शिवाजी अकल्पनीय हैं, रामानंद ने हीं ने कबीर को कबीर बनाया। नरेन्द्र  रामकृष्ण की कृपा से हीं विवेकानंद बने। वशिष्ठ-विश्वामित्र के बिना राम मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं हो पाते।  सांदिपनशिक्षित कृष्ण के विषय में क्या कहियेगा। अनेक उदाहरण हैं, कहां तक नाम लिया जाय, सामर्थ्य हीं नहीं है।
गुरू के संदर्भ में उपरोक्त पावन देवतुल्य पद के anti climax के रुप में कुछ अंकित करना भी अत्यंत हीं व्यथापूर्ण है। किन्तु विवशता हीं हेतु है। वर्तमान गुरू शिष्य सम्बन्ध इतना कुत्सित हो चला है कि इसकी चर्चा तक करना गर्हित है। इसे गुरू शिष्य सम्बन्ध कहना इस पावन सम्बन्ध को कलंकित करना हीं होगा। हिन्दी दैनिक प्रभात खबर में मुख्य समाचार के रूप में आज प्रकाशित खबर कि एक कलियुगी प्राध्यापक किस प्रकार अपने हीं एक छात्रा से वार्तालाप करता है तथा कैसे उसका शीलभ्रष्ट करने की युक्ति लगाता है, इस सम्बन्ध के तार तार होने को प्रमाणित करता है।
आज गुरू का अन्वेषण व्यर्थ है। आज गुरु ने अपनी हीं भूमिका को transform कर लिया है। आज का गुरू संतापहर्त्ता नही है, वह अधिकांशतः वित्तहर्त्ता हो चुका है और अब तो वह शीलहर्ता भी कहीं कहीं दिखता है। हां, उपरोक्त का अपवाद भी मौजूद नहीं है, ऐसा नहीं है। इसलिए यदि यह आवश्यक हीं हो तो व्यक्ति देवाधिदेव महादेव की हीं शरण ले जो आदिगुरु हैं।
     वन्दे बोधमयं नित्यं गुरूं शंकररूपिणम्।
     यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते।।
तुलसीदासजी गुरू को शंकर सदृश कहते हैं। यदि सद्गुरु न मिले तो शिव को हीं गुरु बना लिया जाय। कल्याण इसी में है।

राजीव रंजन प्रभाकर
  27.07.2018
(गुरू पूर्णिमा)

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