ज्ञान एवं भक्ति


वैसे तो इस संसार को कर्मभूमि, युद्धभूमि, भोगभूमि और न जाने क्या क्या कहा गया है किन्तु धर्मशास्त्रों में इस संसार की तुलना समुद्र से भी की गई है क्योंकि यहां मनुष्य देह, गेह तथा अन्य नाना प्रकार की आसक्तियों से प्रेरित होकर विभिन्न कर्म करता है, आयु एवं प्रारब्ध के अधीन पुनः इसी संसार में कर्मलेख के मुताबिक प्राप्त योनि/शरीर में जन्म लेता है फिर मरता है फिर जन्म लेता है अर्थात वह जीवन मरण रूपी जीव समुद्र में डूबता उतराता रहता है। शास्त्रों में इसी को भवसागर कहा गया है।
कल्पना कीजिए किसी व्यक्ति की जो अथाह जल में डूब रहा हो और यदि डूबने उतराने के क्रम में वह संज्ञाशून्य नहीं हुआ है तो उसकी पहली इच्छा उस समय वही होगी कि किसी तरह पार लगकर उसकी प्राण रक्षा हो।  किसी जल राशि में कोई डूबना उतराना नहीं चाहता। अब चाहे तैर कर पार करे कोई या नौका में बैठ अपने को नाविक के हवाले कर। तैर कर पार करने हेतु उसे तैरना जानना आवश्यक है। जलराशि अथाह हो, अपार हो तो कुशल से कुशल तैराक भी नाव की हीं सहायता लेना चाहेगा।
यही बात भवसागर पार करने में भी है। जो कोई ऐसे समर्थ हैं जिन्हें स्वयं के ज्ञान(आत्मज्ञान) पर भरोसा है वे इस भवसागर को अपने स्वरूप के ज्ञान से पार करते हैं। ये स्वाश्रयी लोग हैं जो तत्वज्ञान प्राप्त कर अपने ज्ञानखड्ग से अपनी अविद्या का मूलोच्छेद कर जीवनमुक्त हो जाते हैं। अज्ञानकल्पित एवं आसक्तिजन्य कर्म से व्यक्ति स्वयं को स्वयं से बांध लेता है जिसे अपने स्वरूप के ज्ञान से त्याग कर वह व्यक्ति वर्तमान जीवन में हीं जीवनमुक्त कहलाता है। उसके बाद उसके लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं रह जाता है। इसी को शास्त्र में मुक्ति कहा गया है। मुक्ति प्राप्ति का यह ज्ञानरूपी साधन है जिससे संसारसागर पार किया जा सकता है। ये सामान्यतया ऋषि-मुनियों, तपस्वियों तथा मनिषियों का साधन है।तात्पर्य यह है कि अपने ज्ञान के बल पर प्रभु की प्राप्ति असंभव नहीं तो अत्यन्त दुष्कर तो है ही।
इसके सापेक्ष जो साधन सर्वसुलभ तथा सुगम दोनों है, वह भक्ति का है। निर्भरा भक्ति के सहारे एक सामान्य व्यक्ति भी रामचरणरूपी नौका पर सवार होकर हरि के हाथ में पतवार थमा निश्चिंत होकर अनायास हीं इस संसार सागर को पार हो जाता है।
अध्यात्मरामायण में भी उमा-महेश्वर संवाद में श्रीपार्वती पहले हीं यह कहते हुए कि भवमोक्ष हेतु भक्ति एक सुदृढ़ नौका है तथा भक्ति के अतिरिक्त मुक्ति का कोई और साधन नहीं है, उमेश से अपनी शंका निवारण हेतु रामतत्व विवेचन का निवेदन करती हैं।

भक्तिर्दृढ़ा नौर्भवति प्रसिद्धा।।
भक्तिः प्रसिद्धा भवमोक्षणाय
        नान्यत्ततः साधनमस्ति किञ्चित् ।
तथापि ह्रत्संशयबंधनं मे
        विभेत्तुमर्हस्यमलोक्तिभिस्त्वम्    ।।
      (अध्यात्मरामायण, बालकांड प्रथम सर्ग, 10,11)
निष्कर्षतः यही कहा जा सकता है कि ज्ञान भी भक्ति के अधीन है तथा साधन का चयन साधक की मूल प्रकृति हीं करती है।

गोस्वामी तुलसीदासजी का ज्ञान और भक्ति के विषय में उनकी सम्मति निम्न श्लोक में दर्शनीय है।

यन्मायावशवर्ति विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा
यत्सत्त्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः।
यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां
वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यंमीशं हरिम्।।
                   (रामचरितमानस, बालकांड श्लोक, 6)
भक्त साधक एवं तत्वज्ञान के पारदर्शी विद्वान रामसुखदास जी ने साधक के आश्रय के अनुसार उसके उद्योग को क्रमशः ज्ञानयोग, भक्तियोग एवं कर्मयोग बतलाया है। ज्ञानमार्गी साधक जिसकी चर्चा ऊपर की गयी है स्वयं को हीं परमात्मा का अंश मान आत्मतत्व के अन्वेषण में लीन रहते हैं। अपना आश्रय वे स्वयं हैं, इसीलिए उन्हें स्वाश्रयी कहा गया।
इसके सापेक्ष एक भक्त को अपने बुद्धि बल का कोई भरोसा नहीं होता। उसका आश्रय भगवान होते हैं। भगवदाश्रय और राम के चरणों में विश्राम हीं उनकी पूंजी है। यह गंतव्य (प्रभु प्राप्ति, मुक्ति जो कह लीजिए) का भक्तिमार्ग है।
इसके अतिरिक्त यह भी स्थिति है कि कोई व्यक्ति की प्रकृति न तो ज्ञानाश्रयी हो न हीं भगवदाश्रयी अपितु उसकी निष्ठा अपने कर्तव्य कर्मों को हीं करने में यदि हो तो यह गंतव्य का कर्ममार्ग है तथा साधक का यह उद्योग कर्मयोग कहलाता है। इस प्रकार कर्मयोगी का आश्रय उसका धर्म हीं हुआ। सिद्धि के साधनरूप में इसकी भी गणना प्रमुखता से की जाती है।
भगवद्गीता जो ज्ञानयोग, भक्तियोग तथा कर्मयोग का सार है तथा जिसमें उपरोक्त सभी को समग्रता में तथा विभागवार भगवान द्वारा अपने श्रीमुख से स्वयं विवेचित किया गया है, में श्लोक है -
स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।(18/45)
अर्थात् अपने अपने कर्म में प्रीतिपूर्वक लगा हुआ मनुष्य सम्यक सिद्दि(परमात्मा) को प्राप्त कर लेता है।

किन्तु एक बात कहना शेष रह गया। वो ये कि ये तीनों मार्ग इस तरह सृजित नहीं हैं कि ये कभी एक दूसरे से मिलते हीं नहीं, बल्कि मुझे तो ऐसा कहने में कोई संकोच नहीं होता कि किसी एक पथ पर निरंतर चलने से दूसरे दोनो की योग्यता साधक में स्वयमेव उद्भूत हो जाती है।
  विनयावनत
राजीव रंजन प्रभाकर
  16.07.2018

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