वैष्णवाग्रणी मुनि नारद का भगवद्निवेदन
प्रायः हम संसारी मानव में प्रभु प्रदत्त हीं ये गुण कहिये कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी बुद्धि एवं तर्कशक्ति पर इतना अखंड विश्वास रहता है कि वे सहज रूप से ऐसा मानने के लिए तैयार हीं नहीं होते कि प्रभु की लीला अपरम्पार है। यही कारण है कि रामकथा को सुनने या पढ़ने के क्रम में भी वह अपने बुद्धिबल का आश्रय लेकर रामायण में वर्णित हर उन घटना की अज्ञानतावश उचितानुचित विवेचन में उद्यत रहता है जहाँ तक उसकी तर्कशक्ति का विस्तार होता है। फलस्वरूप कभी वह विमाता कैकयी को भगवान के वनवास का हेतु मानता है तो कभी भगवान द्वारा बालि वध प्रकरण पर धर्माधर्म का विचार करने में लग जाता है। बुद्धिबल से सम्पन्न वही व्यक्ति माता सीता की अग्निपरीक्षा तथा लोकापवाद के परिहार्यार्थ श्रीराम का अपनी भार्या के परित्याग तथा इसी तरह के अन्य प्रकरणों को तर्करूपी तुला पर अपनी ससीम लौकिक बुद्धि से असीम एवं अलौकिक को तौलना प्रारंभ कर देता है, फलस्वरूप भगवान के द्वारा किये गये अमुक कार्य को उचित वा अनुचित अथवा अन्यायपूर्ण कहने के लिए वह उद्यत हो जाता है। उसका ऐसा सोचना भक्तों की भाषा में बुद्धि का व्यायाम के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। रामकथा में ऐसे अनेकों स्थल हो सकते हैं जो बुद्धिमानों के लिए क्रीड़ांगन हों किन्तु इसका परिणाम अंततः दोषदर्शन का ग्रास बन जाना हीं है जिसकी गति यही है कि वह व्यक्ति अविद्यावशात ज्ञान से तो पहले से वंचित है हीं भक्ति से भी भटक रहा है। यह भूल बैठा है कि बुद्धि अविद्या का कार्य है।
अध्यात्मरामायण में यह विशेषता देखी जाती है कि प्रायः प्रत्येक सर्ग में कथा प्रारंभ के पूर्व हीं किसी न किसी पात्र द्वारा यह स्पष्ट कर दिया जाता है कि भगवान श्रीराम माया मनुष्य हैं जिनका इस पृथ्वी पर पदार्पण पापनाश एवं दुष्टों के संहार के निमित्त हुआ तथा इसके लिये जो भी रामायण में घटना वर्णित है वह उन्हीं सर्वेश्वर भगवान की योजना है, रचना है। अब चाहे वह घटना तर्कप्रवण व्यक्ति की दृष्टि में उचित या अनुचित है तो यह उसकी समस्या है जिसका समाधान वह व्यक्ति स्वयं है वशर्ते कि वह तर्क का आश्रय त्याग श्रद्धा एवं विश्वास की शरण ले। क्योंकि इस सम्बन्ध में रामह्रदय में हीं दक्षिणामूर्ति शिव द्वारा भगवान राम, माता जानकी तथा महामति हनुमानजी के मध्य संवाद का वर्णन कर श्रीपार्वती जी की शंका का निवारण कर दिया गया है। जब भगवान सर्वात्मदृक, सम्पूर्ण दृश्यप्रपंच के प्रणेता तथा इन प्रपंचों के आदिकारण हैं तो फिर तर्क वितर्क क्या करना। ऐसे भी वे समस्त शास्त्रों में आनन्दघन, निर्मल, निर्विकार, शांताकार वर्णित होते हुए भी अतर्क्य, अचिन्त्य तथा मन, बुद्धि सहित समस्त इंद्रियादि के अविषयरूप में हीं वर्णित हैं। कोई यदि मन, वचन एवं कर्म से उनका चिन्तन, मनन, भजन, नामसंकीर्तण, निदिध्यासन या कीर्तिलेखन जो भी करता है तो वह अपने हीं अंतःकरण(मन, बुद्धि, चित्त तथा अहंकार) एवं वाह्यकरण(लेखनी) को पवित्र करता है क्योंकि पुरूषोत्तम राम तो निर्विकार हैं, अचल एवं परिणामहीन हैं जो अपनी हीं माया से सब को मोहित कर समस्त चराचर जगत को वैसा हीं भासते हैं जब जैसी त्रिगुणात्मिका माया की प्रकृति होती है। वे स्वयं गुणातीत हैं, सर्वोपाधिविनिर्मुक्त हैं क्योंकि परब्रह्म भी वही हैं।
तर्क व्यर्थ है, क्या खम्भे से भगवान का नरसिंहरूपी प्राकट्य को श्रद्धा और विश्वास रहित व्यक्ति तर्क से सिद्ध कर सकता है? क्या पाषाणखंड को समुद्र में तिराकर सेतु निर्माण भी सम्भव है? अनेक उदाहरण हैं। प्रभु के कौन से व्यवहार का क्या हेतु है उसे समग्रता में भगवान के अतिरिक्त और कौन है जो जान सके। उनके बारे में यदि कोई यत्किंचित जान भी रहा है तो मात्र उतने हीं अंश तक जितना सर्वेश्वर भगवान उसे जनाते हैं चाहे वे सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा हीं क्यों न हों। उन्हें जानने के बदले मानना शुरू किजीए फिर देखिये।
तर्क एवं संशय की सत्ता ज्ञानपीयूष के बिन्दुमात्र आस्वादन से तत्काल विलुप्त हो जाती है इसे भगवान् के ज्ञानी भक्त ब्रह्मापुत्र वैष्णवाग्रणी नारदजी का श्रीराम के प्रति निवेदन से समझा जा सकता है जो संशयजीव के लिये विशेष रूप से लाभप्रद है जिसे तर्करूपी सर्प ने डस लिया है।
ज्ञानीनामग्रगण्य नारदजी का स्वामी श्रीराम को सम्बोधित यह निवेदन अध्यात्मरामायण के अयोध्याकांड अन्तर्गत प्रथम सर्ग में वर्णित है जिसे इस प्रकार उल्लिखित करने का प्रयत्न किया जा रहा है।
राजा जनक की नगरी में भगवान श्रीराम एवं जानकी का पाणिग्रहण उत्सवपूर्वक समाप्त होने के उपरांत अयोध्या नरेश सभी पुत्रों एवं पुत्रवधुओं समेत अयोध्या लौट आनन्दपूर्वक राजकाज का संचालन कर रहे थे तथा समस्त अयोध्यावासी श्रीराम के आचार विचार एवं व्यवहार को देख देख कर फूले नहीं समाते थे। माताएं अपने पुत्रों एवं पुत्रवधुओं को स्नेहवितरण करतीं आनन्दनिमग्न इस धरती पर हीं त्रिलोकी का सुख प्राप्त कर रहीं थीं। ऐसा हो भी क्यों न जब स्वयं सुखराशि आनन्दघन त्रिलोकपति वहीं उपस्थित हों। श्रीराम का अपने भाइयों के प्रति प्रेम एवं अयोध्यावासियों के प्रति स्नेहपूर्ण व्यवहार तथा राजकार्य की समझ एवं इसमें सहायता प्रदान करने की दक्षता से अयोध्यानरेश राजा दशरथ मन ही मन अभिभूत थे। उन्होंने मन ही मन यह निर्णय कर लिया कि अब वह समय भी आ ही गया है कि वे अपने ज्येष्ठ पुत्र को राज सौंप राजकाज के झंझट से मुक्ति पा लें तथा वानप्रस्थ होकर शेष जीवन हरि की सेवा में व्यतीत करें। कुलगुरू वशिष्ठ से सम्मति प्राप्त कर उन्होंने प्रातः होते हीं श्रीराम का राज्याभिषेक करने का निर्णय राजदरबार में सुनाते हुए सभी राजसेवकों को इस हेतु तुरंत आवश्यक प्रबंध कुलगुरू के निर्देशन में किये जाने का आदेश सुना मुदित मन से अंतःपुर को प्रस्थान कर गये।
इधर दशरथनन्दन श्रीराम राजप्रासादसंकुल के अपने भवन में इस राजनिर्णय से अनभिज्ञ रत्नमंडित आसन पर प्रतिष्ठित नयन मूंदे ताम्बुल एवं चर्वनादि के आस्वादन में तल्लीन थे एवं उनके पार्श्व में स्थित सर्वालंकारविभूषित लोकविमोहिनी जनकनंदिनी श्री सीताजी रत्नदंड़युक्त चंवर डुलाकर अपने स्वामी को सुख पहुंचा रहीं थीं। तभी त्रिलोकी के चौदहो भुवन में मन की गति से विचरण करने वाले भगवान के पार्षद एवं भगवान के ज्ञानी भक्त श्रीराम के सम्मुख उपस्थित होते हैं। नारदजी के अकस्मात आगमन पर श्रीराम तुरंत अपने आसन से उठे तथा उन्होंने मुनिवर को आदरपूर्वक दण्डवत करते हुए पूछा, " मुनिवर, आपने इस संसार में अपनी सदिच्छा से हीं पधार कर मेरे जैसे संसारी विषयासक्त गृहस्थ को आज दर्शन देकर कृतार्थ कर दिया। यह मेरा परम सौभाग्य है तथा निश्चित रूप से मेरे पूर्वजन्मकृत कर्मों का यह पुण्योदय हीं है कि आज मुझे त्रिलोकाधिपति भगवान विष्णु के पार्षद का दर्शनलाभ प्राप्त हुआ है। आज मैं कृतकृत्य हो गया, मुनिवर आज्ञा दीजिए मैं आपकी क्या सेवा करूं। "
श्रीराम से अपने लिये ये विनीत वचन सुन नारदजी ने कहा," प्रभु, यह जो आपने स्वयं को एक संसारी गृहस्थ कहा सो ठीक हीं है। आप त्रिलोकी के महागृहस्थ हैं तथा इस संसाररूपी माया के आदिकारण मां जानकी हीं उस महागृहस्थ की प्रकृतिस्वरूपा महागृहिणी हैं। प्रभु आप मुझे पहले मोहित कर मुझे कृपा कर उबार लिया है। अब इस दीन पर दया कर पुनः मोहित न कीजिए। आप भगवान विष्णु हैं तथा माता जानकीजी विष्णुपत्नी श्रीलक्ष्मी हैं। भगवान आप कल्याणकारी शिव हैं और जानकीजी जगज्जननी श्रीपार्वतीजी हैं। प्रभु आप सृष्टिरचयिता ब्रह्मा हैं और मैथिली सरस्वती हैं। स्वामी आप सूर्य हैं और सीताजी उनकी प्रभा। आप चंद्रमा हैं तथा जनकनंदिनी रोहिणी हैं। प्रभु आप वायु हैं और सीताजी उस वायु की सदागति हैं। प्रभु आप काल हैं मां जानकी उनकी गति। आप संहारकर्ता रूद्र हैं और अयोनिजा सिता प्रकृतिस्वरूपा उद्भव, स्थिति एवं संहारकारिणी रूद्राणी हैं। हे राम आप अग्नि हैं और आपकी प्राणवल्लभा सीताजी स्वाहा हैं। आप देवेन्द्र हैं तथा शुभलक्षणा सीताजी देवलोक की साम्राज्ञी शची हैं। हे दाशरथि राम, आप स्वयंप्रकाश हैं एवं मां जानकी उस स्वयंप्रकाश की स्वयंप्रभा। श्रीराम आप सर्वेश्वर-शक्तिमान हैं तथा सीताजी उसकी शक्ति। इस संसार में जो कुछ भी पुरुषवाचक है वह सब आप हैं तथा स्त्रीवाचक सभी जडचेतनादि मां जानकी हीं हैं एवं इसके अतिरिक्त कुछ है ही नहीं। प्रभु आप अनादि पुरूषोत्तम हैं तथा माता सीता त्रिगुणात्मिका अनादि प्रकृति जिसके सत्व, रज तथा तमोगुणानुरूप संयोग से हीं हमारे पिता ब्रह्माजी जिनका स्वयं का हीं उद्भवस्थल आपका नाभिकमल है, ने आपकी आज्ञानुरूप हीं शुक्ल, लोहित एवं कृष्ण प्रजा उत्पन्न कर लोक और वेद में लोकसृष्टिकर्ता की उपाधि पायी है। प्रभु आपके आभास से उत्पन्न अज्ञान हीं अव्याकृत कहलाया जिससे महतत्व तथा महतत्व से सूत्रात्मा(हिरण्यगर्भ), सूत्रात्मा से सर्वात्मक लिंगदेह उत्पन्न हुआ। अहंकार, बुद्धि, पंचप्राण तथा दस इंद्रियों के संकुलस्वरूप सुख-दुख तथा जन्म-मृत्यु धर्मादि वाला लिंगदेहाभिमानी चेतनाभास हीं जगत में तन्मय होकर जीव कहलाया। शुद्ध चेतन की तीन उपाधियों यथा स्थूल शरीर (मांस, मज्जा, मेद, अस्थि, रक्त, चर्म और त्वचा संकुल निर्मित अंगोपांग) सूक्ष्म शरीर (वागादि पांच कर्मेन्द्रियां, श्रवणादि पांच ज्ञानेन्द्रियां, प्राणादि पंचप्राण मन, बुद्धि, अहंकार एवं चित्तरूपी अंतःकरण चतुष्टय) और कारण शरीर (अविद्या ) को बाध करने पर हीं जीव का ईश से संयोग होता है जिसके लिये हीं ज्ञानाभिमानीजन जन्म-जन्मान्तर तक प्रयत्नशील रहते हैं। जिस प्रकार भ्रमवश रज्जु के सर्पस्वरूप दीखने से भय उत्पन्न होता है उसी प्रकार मनुष्य जबतक स्वयं को जीव मानता है तभी तक भयभीत रहता है। जैसे जैसे वह स्वयं को परमात्मा के अंशरूप में देखने का अभ्यास करता जाता है उसका भय उसी प्रकार विलीन होता जाता है। इसका ज्ञान तो आपकी भक्ति से हीं संभव है और प्रभु यह अभ्यास आपकी भक्ति से हीं शीघ्रसाध्य है।
रूद्धकंठ एवं नयन आनन्दाश्रु से पूर्ण नारदजी कहते हैं कि प्रभु मैं तो आपके भक्त के भक्त का दास ठहरा। इस नाते हीं आपके दुलारवश हीं मैने बहुत कुछ आपके विषय में कह डाला जिसका कि मैं सर्वथा अनधिकारी हीं हूं क्योंकि जो सर्वेश्वर भगवान मन, बुद्धि एवं वाणी के अविषय हों उस अचिन्त्य के प्रति कुछ प्रकाश डालना सूर्य को दीपक दिखाने के सदृश हीं है। किन्तु प्रभु मैं आज एक विशेष प्रयोजन से यहाँ आया हूं। कल आपके पिता आपका राज्याभिषेक करने वाले हैं, सो प्रभु आपने जो ब्रह्माजी सहित समस्त आर्त सुर, मुनि एवं मेदिनी को जो वर दिया है कि आप पृथ्वी के दुष्ट दैत्यों और विशेषकर देव, नर , गंधर्व, विद्याधर के संत्रासरूप अभिमानी, अत्याचारी एवं निर्बल को रुलानेवाला रावण का संहार कर इस वसुंधरा को पापराशि से मुक्त कर देंगें उसका क्या होगा। मेरे पिता ब्रह्माजी इसी चिन्ता में निमग्न हो उन्होंने मुझे इसका आपको स्मरण कराने हेतु सद्यः आपके पास भेजा है। आप सत्यप्रतिज्ञ हैं, स्वामी कुछ कीजिए वरना अनर्थ हो जायेगा, आपके बिना आपके भक्तों का कोई भयभंजन नहीं है क्योंकि किन्हीं में ऐसा सामर्थ्य हीं नहीं। प्रभु आपके भक्तों की सुधी लेनेवाला आपको छोड़ कोई नहीं है और आपभी पितुराज्ञावश हमे विसारने वाले हैं। हे प्रभु प्रसीदिये।
नारद के करूणा भरे वचन सुन स्मितवक्त्र श्रीराम कहते हैं, "हे मेरे प्रिय भक्त नारद, इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी हुआ है तथा जो वरत रहा है एवं जो भविष्य में होगा उसे तुम मेरे भ्रूविलास के अधीन जानो। तुमने जो यह कहा कि मैं सत्यप्रतिज्ञ हूं इसमें तुम्हें मेरे ज्ञानी भक्त होने के नाते रंचमात्र भी संशय नहीं करना चाहिए।तुम मुझे जो इस रुप में देख रहे हो वह भी मैने अपने भक्तों के तोषार्थ उसे दिये गये वर के अधीन हीं धारण किया है तथा आगे भी मेरी मनुष्य रूप में समस्त क्रिया अपने भक्तों के उपर अनुग्रह प्रदान करने के प्रयोजनार्थ हीं होगी जिसमें तुम भी शामिल हो भले हीं तुम्हें अभी इसका स्मरण न हो। और तुमने जो यह कहा कि मैं पितुराज्ञा के अधीन अपने भक्तों को दिये वचन को विसार दूंगा यह कदापि सम्भव नहीं है। मेरे राज्याभिषेक के सम्बन्ध में जो निर्णय मेरे पिता ने अभी लिया है वह अभी आज्ञापालनार्थ मुझे प्राप्त नहीं है, इसलिए वह पितुराज्ञा नही है। पितुराज्ञा कल मुझे प्राप्त होगा और वह होगा मेरे वनगमन का। मैं कल हीं मुनवेष धारण कर दण्डकारण्य को प्रस्थान करूंगा और कालक्रम में जिन दैत्य, असुर एवं राक्षसों का प्रारब्ध क्षीण होता जायेगा उसे मुक्ति प्रदान कर अंत में सीताहरण के मिस से रावण का वध कर समस्त संत्रस्त को सुख पहुंचा इस पृथ्वी को दुष्टों के भार से त्राण दिलाउंगा।"
भगवान के ये गूढ़ किन्तु स्पष्ट आश्वासन पा नारद को अत्यंत सुख पहुंचा और उन्होंने हर्षितमना एवं भक्तिभावेन श्रीराम की तीन बार प्रदक्षिणा की और ब्रह्मलोक को सिधार गये।
अब कहिये किसी को व्यर्थ दोष क्यों दें। सब प्रभु की कृपा है।सभी जड़ चेतन उनकी हीं आज्ञा से स्थित एवं संचालित है। फिर भी रामायण में वर्णित घटनाओं की मीमांसा यदि तर्क का आश्रय ले करते हैं तो हम अपनी हीं अज्ञानता का आरोप उस सर्व नियामक में करते हैं। रामायण में वर्णित किसी भी घटना विशेष का दोष किसी पात्र विशेष के ऊपर नहीं है। यदि हम अन्यथा सोचते हैं तो हो सकता है यह भी नारायण की हीं लीला हो जिसके वशीभूत यह समस्त चराचर जगत है।
नारायण नारायण।
राजीव रंजन प्रभाकर
07.08.2018
श्रावण कृष्ण एकादशी
संवत 2075
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