अंगद-रावण संवाद.
अंगद-रावण संवाद गोस्वामी तुलसीदासजी रचित विश्वप्रसिद्ध ग्रंथ "रामचरितमानस" का एक महत्वपूर्ण अंश है.
तुलसीदासजी ने इस प्रकरण को काफी बखानकर वर्णन किया है. उसी को मैंने भी कतिपय गद्य में वर्णन करने का प्रयत्न किया है.
गद्य हो या पद्य; दोनों का एक दूसरे में हू-ब-हू अनुवाद ऐसे उपक्रम को प्राणहीन बना देता है. इसलिए संवाद को सरस बनाने की खातिर अपनेतया मैंने कतिपय महत्वहीन हेरफेर कर दिया है; लेकिन बहुत नहीं. तथ्य मूल में वही है.
हां!बाल्मीकि रामायण में यह संवाद उस तरह बिल्कुल नहीं है; न हीं वैसा रोचक हीं जैसा रामचरितमानस में.
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गोस्वामीजी द्वारा रचित इस अंगद का रावण से संवाद को गद्याकार करने का उद्देश्य कुछ विशेष नहीं बल्कि इसी बहाने कुछ आनंद मिले;बस यही है.
जिस प्रकार लक्ष्मण ने परशुराम को क्रोध दिला-दिला कर उन्हें जर्जर कर दिया कुछ इसी तरह अंगद ने रावण को न केवल अपने वाकचातुर्य से परास्त कर दिया बल्कि उससे कई गुना उसे लज्जित भी कर दिया.
सच है जिस पर श्रीराम की कृपा होती है वह कुछ भी कर सकता है.
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श्रीराम अपने वानरी सेना के साथ समुद्र पार कर सुबेल पर्वत पर डेरा डाले हुए हैं.
विमर्श में जामवंत प्रभु से कहते हैं- भगवन् मेरा विचार है कि रावण को प्राण रक्षा का एक अवसर दिया जाय. भगवन्! कोई जाने या न जाने मैं आपको और आपके स्वांग को भलिभांति जानता हूं. मैंने आपको तीन पग में हीं सम्पूर्ण पृथ्वी को नापते देखा है.
उ बचेगा! आप एक बार उसकी ओर यदि क्रोध से देख भर लें तो रावण कुलसहित नष्ट हो जाएगा.
प्रभु!रावण के पास किसी को दूत रूप में भेज कर उसे अंतिम रूप से यह संदेश दिया जाय कि उसके सारे अपराध आप भूलकर उसे क्षमा कर देंगे यदि वह अपने कृत्य पर पश्चाताप करते हुए माता सीता को सादर यहां आकर पहुंचा आये.
श्रीराम ने रीछपति जामवंतजी की बातों को सुनकर बोले- जामवंतजी! ऐसी कोई बात नहीं है.आप जिस तीन पग की बात कह रहे हैं वह आप ही जानते होंगे किन्तु आप हमारी सेना में सबसे अनुभवी और वरिष्ठ हैं.
आप हीं बताइए किसे भेजना ठीक रहेगा?
जामवंत- स्वामी! मेरे विचार से युवक अंगद को रावण के पास भेजकर संदेश दिया जा सकता है. इस कार्य को देख मुझे लगता है कि वह सब तरह से योग्य है.
श्रीराम-(अंगद की ओर मुखातिब हो कर) पुत्र अंगद! यह दायित्व मैं तुम्हें सौंपता हूं. तुमको बहुत समझाकर क्या कहूं! तुम स्वयं कल-बल से परिपूर्ण एक चतुर नवयुवक हो. तात!तुम रावण को वही कहना जिससे हमारा काम हो जाय और उसका कल्याण हो.
प्रभु की आज्ञा सिर चढ़ा कर अंगद बोले-भगवन्! आप जिस पर कृपा करें,वही गुणों का समुद्र हो जाता है. स्वामी! आप जिसे कोई कार्य सौंपते हैं वास्तव में उस कार्य के बहाने उसे आदर देते हैं;
क्योंकि आपके सभी कार्य तो अपने-आप सिद्ध हैं.
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सौंपे गए दायित्व से पुलकित अंगद लंका में प्रवेश करते हैं. प्रवेश करते ही उसे रावण के एक मनबढ़ू बेटे से भेंट हो जाती है जो अंगद का हीं समवयस्क था. वह यार दोस्तों के साथ तफरी के साथ वर्जिश कर रहा था. अंगद के शारीरिक सौष्ठव एवं सुन्दर बदन को देख उसे चिढ़ सी हो गई. उसने अंगद को अपना हीरोपनी दिखाते हुए इशारे से बुलाया.
निडर अंगद तुरंत उसके पास चला गया. रावण के बेटे की बेहूदी एवं उटपटांग बातें करने पर दोनों में बात ही बात में झगड़ा बढ़ गया. रावण के बेटे ने अंगद पर लात चला दी. बस फिर क्या था! फुर्तीले अंगद ने तत्काल उसके उसी लात को वही पकड़ कर उसे ऐसा घुमा कर जमीन पर पटका कि रावण पुत्र का सिर फट गया. वह वहीं ढेर हो गया.
ये देख उसके बांकि दोस्तों को सांप सूंघ गया. वे खुद अंगद को रावण के महल का रास्ता दिखाने उनके आगे-आगे चलने लगे. महल के द्वार पर पहुंचा कर वे वापस लौट गए. डर के मारे कोई कुछ किसी से नहीं कह रहा था. रावण के पुत्र के इस तरह मारे जाने से सभी दहशत में आ गए थे.
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दशानन की सभा में अंगद
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रावण- रे बचवानर तूं है कौन? जरा मैं सुनू तो!
तपस्वी ने दूत भी बनाकर भेजा तो एक वानर को; वो भी बच्चा. बलिहारी है उसकी बुद्धि पर!
(यह कह रावण जोर से ठठाकर हंस पड़ा साथ में उसके सारे सभासद भी)
अंगद- तुझे तेरे सभासदों ने अभी तो बताया है कि मैं कौन हूं. फिर भी यदि तुम मेरे मुख से अपनी उद्दंड भाषा में हीं कुछ सुनना चाहता है तो सुन.
मैं बचवानर तो सही में हूं. लेकिन मैं कितना बच्चा हूं इसका पता तुम और तुम्हारे सभासदों को थोड़ी देर में चल जाएगा.
मैं अभी आया हूं अपने प्राणप्रिय प्रभु रघुवीर का दूत बनकर. लेकिन सोचता हूं कि चूंकि तेरी मित्रता मेरे पिता से थी इसलिए मैं दयावश तुम्हें कुछ सलाह देना चाहता हूं.
तूं ऐसा कर; जल्दी से अपने दांतों के बीच कुश का तिनका दबा कर और गरदन में कुल्हाड़ी बांध ले. तब माता सीता को अपने आगे करते हुए और अपने पीछे समस्त रानियों को रख मेरे साथ चल. मैं तुम्हारी पैरवी प्रभु श्रीराम से करूंगा कि वे तुम्हें माफ कर दें. आखिर तूं मेरे पिता का दोस्त भी तो ठहरा. इस नाते मेरा तुम्हारे हित में कुछ कर्तव्य करना तो बनता है. मेरे प्रभु श्रीराम इतने दयालु हैं कि एक बार जो उनकी शरण में चला जाता है उसको वे अभय कर देते हैं चाहे वह कितना बड़ा पापी हीं क्यों न हो. सच कहता हूं इसमें तनिक भी संदेह मत करो. मैं तुम्हें उनके कोप से बचा लूंगा. वे बहुत दयालु हैं. शरणागत पर तो उनकी विशेष कृपा हो जाती है. अपने भाई विभीषण को हीं देख लो! शरण में आते हीं उन्होंने उसे लंकेश बना डाला. अब तुम लंकेश थोड़ी हो.
मेरी सलाह मानो तुम तुरंत इस तरह मेरे साथ चलो. इसी में तुम्हारा और तुम्हारे कुल का कल्याण है. बांकि तुम समझो. मेरे पिता की तुझसे दोस्ती को लिहाज कर हमको जो कहना था वो मैंने कह दिया. फिर तुम जानो और तुम्हारा काम जाने. बाद में यह नहीं कहना कि मैंने तुम्हें पहले चेताया नहीं.
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(अंगद के मुख से ऐसे निर्भीक, तिक्त एवं व्यंगपूर्ण वचन सुन कर रावण तिलमिला उठा.उसे यह उम्मीद नहीं थी कि एक दूत उससे इस तरह से बात कर सकता है. तुरंत वह अपने सिंहासन पर अपनी रोयाल्टी को बघारते हुए सम्हल कर तन कर बैठ गया.
अभी तक उसने दूत रूप में उपस्थित उस वानर को तपस्वी राम का कोई टुटपुजिया समदिया हीं समझा था.)
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रावण(आंखें तरेरते हुए)- रे रे रे ! बंदर के बच्चे; ज़बान सम्हाल कर बोल.छोटी मुंह और बड़ी बात! लगता है तुझे अपने प्राणों का कोई मोह नहीं है.नालायक!पहले ये तो बोल कि तुम्हारा बाप कौन है जिससे तूं मेरी मित्रता बता रहा है.
अंगद- सुन-सुन! अधीर मत हो;पहले धीरज तो रख. बता रहा हूं. बालि नामक बानर को तूं जरूर जानता होगा.
मैं उसी महान बाहुबली बालि का बेटा अंगद हूं. समझ में आया कुछ?
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बालि का नाम सुनते ही रावण चिहुंक उठा. मैत्री के पूर्व महाबली बालि ने उसे छः माह तक अपने कांख में दबाए रखा था. रावण उपर से संयत दीखने एवं बालि को अपने सामने तुच्छ दिखाने का प्रयत्न करते हुए सकुचाते हुए बोला- हां! याद आया.बालि नाम का कोई एक बानर था.
(फिर आश्चर्य से) तूं बालि का बेटा है रे! अरे!तूं तो कुलनाशक निकला. रे! तूं गर्भ में हीं क्यों नहीं नष्ट हो गया जो तूं अपने हीं मुख से अपने को उस अदना तपस्वी का दूत कहता है. ओफ्फ!!
अच्छा; छोड़ बता बालि का क्या हाल-चाल है?
अंगद- हां रे! ये रामदूत अंगद बालि का हीं बेटा है. दू- चार- दस दिन में तूं भी वहीं जानेवाला है जहां आजकल बालि है. फिर तू खुद उसका हाल उससे गले लग कर पूछ लेना. पता चल जाएगा कि राम विरोध का क्या हश्र होता है.
और क्या कहा तूने? मैं कुलनाशक हूं? रे मूर्ख राजा! जिसके चरणों की सेवा करने को ब्रह्मा,विष्णु,महेश और मुनि- महात्माओं का समुदाय अपने आप को भाग्यशाली मानते हों उन्हीं का दूत कहलाकर मैं कुलनाशक हो गया?
रे रावण! ऐसा तो कोई अंधा-बहरा भी नहीं कहेगा फिर तुम्हारे तो बीस आंख और बीस कान हैं?
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रावण गुर्राकर बोला- अरे दुष्ट! मैं तभी से तेरे सब कठोर वचन इसीलिए सह रहा हूं कि मैं नीति और धर्म दोनों को जानता हूं और राजा होने के नाते उनका रक्षक और पोषक भी हूं.
अंगद (रावण का उपहास करते हुए)- ओ हो हो!क्या कहा-क्या कहा तुमने? तुम नीति और धर्म के रक्षक हो? तुम कितने नीतीज्ञ और धर्मशील हो इसका तो पता हमें चल हीं गया जब तुमने हनुमान को जला कर मारने की चेष्टा की थी. परन्तु परिणाम क्या हुआ? उसने तुम्हारी लंका को हीं जला डाला. रही बात तुम्हारी सहनशीलता और धर्मशीलता की तो तुम इतने सहनशील निकले कि अपनी बहन का नाक-कान कटने पर भी तुम चुप रहे. कितने सहनशील हो तुम!है न! और तो और तूने परायी स्त्री को चुराने का घृणित कार्य किया. तुम्हारी ऐसी धर्मशीलता देखकर मैं धन्य हो गया. मैं बहुत भाग्यशाली हूं, जो मैंने तुम्हारा दर्शन पाया? ऐसे धर्मशील को तो डूब मरना चाहिए.
अंगद के ऐसे व्यंग्य वचन से बिंधा रावण को कुछ सूझ नहीं रहा था कि इसका उत्तर कैसे दिया जाय.
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अपनी भुजाओं को घमंड से दिखाता हुआ रावण बोला-अरे जड़ जन्तु वानर! क्यों व्यर्थ बक-बक करता है? तूं मेरी भुजा तो देख. देखता नहीं ये कैसे शत्रु को ग्रसने के लिए आतुर हैं? फिर तूने सुना ही होगा कि मेरी इन भुजाओं ने कैसे शिवजी सहित कैलास पर्वत को हीं तौल लिया था.
रे अंगद! बता तो सही तेरी सेना में ऐसा कौन है जो मुझसे भिड़ सके?
तुम्हारा मालिक ठहरा स्त्री वियोग से जीर्ण एक तपस्वी. वन-वन खाक छानता थका हारा गतबल क्लांत तुम्हारा वह राम मुझसे क्या लड़ेगा!
वियोग के मारे उसकी दशा मुझे खुद देखी नहीं जाती. उसका छोटा भाई लक्ष्मण उसी के दुःख से दुःखी और उदास रहता है.
तुम्हारा चाचा सुग्रीव को कितना बल है वह किसी से छिपा है क्या जो डर के मारे पूरी जिंदगी मारा-मारा फिरता रहा.
तूं ठहरा नया- नया जवान होता एक बुद्धिहीन वानर जिसने कभी युद्ध देखा हीं नहीं है.
शत्रु पक्ष में जा मिला मेरे भाई विभीषण की भी कोई गिनती है? और राम ने उसे तिलक कर दिया तो वह राजा हो गया? परम डरपोक है वह. वो क्या मेरे सामने आने का साहस कर सकेगा? बूढ़े जामवंत में अब वह बल हीं कहां जो रणभूमि में कुछ दिखा सके. नल-नील ठहरा एक शिल्पकार; वे योद्धा थोड़ी हैं?उसे युद्ध का क्या ज्ञान!
मूढ़ तेरी बालबुद्धि पर मुझे तरस आ रहीं है.
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हां; एक वानर जरूर महान बलवान है, जो पहले आया था और जिसने लंका जलायी थी.
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यह सुनते ही बालिपुत्र अंगद ने रावण को चिढ़ाने के अंदाज में कहा- सच-सच कहना दशानन! क्या उस वानर ने सचमुच तुम्हारी लंका को जला डाला था? प्रभु के बिना आज्ञा के ऐसा करने से वह शायद डर गया लगता है.
तभी तो कहूं कि लौटकर वह सुग्रीव के पास न क्यों नहीं आया. मालूम पड़ता है डर के मारे कहीं जाकर कहीं छिप गया है.
ओय रावण! जिसे तुम बहुत बड़ा योद्धा कह कर सराह रहे हो वो तो एक छोटा सा दौड़ कर चलने वाला सुग्रीव का हरकारा है. वह कोई वीर-वीर नहीं है. उसको तो प्रभु ने सिर्फ खबर लेने के लिए लंका भेजा था जिसे उसने बिना प्रभु के आज्ञा के जलाने की धृष्टता कर दी. इस डर से वह वापस न जाकर कहीं छिप गया है.
एक बात तुमने ठीक कही. वास्तव में श्रीराम की सेना में एक भी ऐसा नहीं है जो तुमसे लड़ने में शोभा पाये. सिंह यदि मेंढ़कों को मारे, तो इससे सिंह की प्रतिष्ठा बढ़ेगी क्या? रावण! यद्यपि तुम्हें मारने में श्रीरामजी की लघुता है और बड़ा दोष भी है तथापि तुम स्वयं यदि उनके क्रोधाग्नि में कूद कर जलना चाहो तो एक क्षत्रिय भला क्या करे.
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अंगद के इस वक्रोक्ति रुपी बाण से रावण के ह्रदय को छलनी कर चुका था और रावण उन बाणों को मानो प्रत्युत्तर रुपी संड़सियों से निकाल रहा था.
हंसकर रावण बोला- बंदर की एक खूबी होती है कि जो उसे पालता है उसके भले के लिए या उसे रिझाने में अपना लाज- शर्म छोड़ हमेशा जहां-तहां नाचने को तैयार रहता है. यहां भी तूं यही कर रहा है.
अंगद! तुम्हारी तो जाति हीं स्वामीभक्त है. फिर भला तू अपने मालिक के गुण को इस तरह कैसे न बखानेगा.वो तो मेरे जैसा गुणग्राही तुम्हें मिल गया है जो तुम्हारी जली-कटी और बक-बक को सुनकर भी तुझे कुछ नहीं कह रहा है.
अंगद(उपहासपूर्ण हंसी हंसकर)- हां!हां!तुम्हारी गुणग्राहकता का हीं वह प्रमाण था कि हनुमान ने तुम्हारी लंका जला डाली और तुमने उसे क्षमा कर दिया. ये कहो न कि तुमसे मेरा कुछ बिगड़ हीं नहीं सकता है इसीलिए तुम विवश हो. जिसे रघुनाथ का संरक्षण प्राप्त है उसका कोई क्या बिगाड़ सकता है?
रावण! तू लाज-शर्म घोरकर पी तो नहीं गया ये जो ऐसी निर्लज्ज बातें करता है?
रावण बोला- हूंह! तुझ जैसे तुच्छ से कौन मुंह लगाए. तुम तो इतने अशुभ निकले कि तूने अपने बाप को हीं खा डाला.
ऐसा कह रावण हंसने लगा. वह अशिष्ट महिलाओं की तरह ऐसी हीं अंधविश्वास व मूर्खतापूर्ण बातों पर अब उतर आया था.
अंगद- ठीक कहा! पिता को खाने के बाद मेरा विचार तुम्हें हीं खाने का था. किंतु कुछ सोचकर मैं ऐसा नहीं करूंगा. जानते हो क्यों? इससे मेरे पिता के सुयश का नाश हो जाएगा जिसके बारे में लोक प्रसिद्ध है कि उसने महापराक्रमी रावण को जब छः माह तक अपने कांख में हीं दबा रखा था. बताओ यदि मैं तुम्हें खाऊं तो उनके सुयश नाश होगा या नहीं?
सच-सच बताओ तुम वही रावण हो न?
अंगद रावण को चिढ़ा रहा था और रावण चिढ़ रहा था.
सभासदों के सामने ये बात सुन रावण अब बुरी तरह चिढ़ गया.
रावण- मूर्ख! तुझे मैं अपने बारे में क्या बताऊं!
मैं वह रावण हूं जिसने अपने शीश काट कर महादेव को अर्पित कर उन्हें प्रसन्न किया है. अपने दसों मस्तकों को काट कर उन्हें पुष्प के रुप में महादेव को अर्पित करने का गौरव इस पृथ्वी पर किसे प्राप्त है बोल?
मैं वह रावण हूं जिसकी भुजाओं का पराक्रम दिक्पाल जानते हैं जो मेरे इशारे पर पानी भरते हैं.
रे कपिपोत! मैं वह रावण हूं जिसके चलने से धरती ऐसे डोलने लगती है जैसे मतवाले हाथी के चढ़ते समय छोटी नाव!
अरे झूठ में वकवाद करने वाले दुष्ट वानर तूं उस महान पराक्रमी रावण के सामने एक मनुष्य की बड़ाई करता है? मैं समझ गया तुम्हें कितना ज्ञान है.
रावण गर्व से छाती फुलाकर बके जा रहा था.
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अंगद- राऽऽऽवण! तुझे मेरी बुद्धि पर तरस आ रहा है. सठ रावण! तूं कैसे राजा बन बैठा रे? तूं जब ये भी नहीं अब तक समझ पाया कि जिस परशुराम ने सहस्त्रबाहु की भुजाओं का अपने फरसा से संहार एक क्षण में कर डाला तथा जिनके सामने अगणित राजा अपने प्राण रक्षार्थ अपने बाप का नाम लेकर कान पकड़कर उठना-बैठना शुरू कर दिये उन्हीं परशुरामजी का गर्व श्रीराम के सामने क्षण में जाता रहा;अरे अभागे! श्रीराम को तूं निरा मनुष्य समझता है?
यदि तूं श्रीरामचन्द्रजी को सिर्फ एक मनुष्य समझे, गंगा को सिर्फ एक नदी समझे, कामधेनु को सिर्फ एक पशु समझे, कल्पवृक्ष को सिर्फ एक पेड़ समझे तो तूं वास्तव में जड़ है.
अब चतुराई छोड़कर सुन. मैं तुम्हारे हित की बात कहता हूं. तूं रघुनाथजी से वैर मोल न ले. तुम्हारे सामने हीं तुम्हारा सबकुछ देखते-देखते नाश हो जाएगा और जिस भूमि के बारे में तूं कहता है कि वह तुम्हारे चलने से हिलने लगती है अंत में तूं उसी भूमि पर धराशायी हो जाएगा.
श्रीरामजी का प्रताप है हीं ऐसा कि वे वज्र को तृण समान कर देते हैं और जिसपर उनकी कृपा होती है उस तिनके को भी वज्र बना देते हैं. तूं जो उनसे लड़ने की बात सोच रहा है तो सुन तुझे अच्छा लगेगा क्या जब रणभूमि में कटे राक्षसों के सिर को गेंद के रूप में इस्तेमाल कर हम वानर-भालू चौगान खेलेंगे?
यह सुन रावण बहुत अधिक जल उठा.
फिर तमक कर कहने लगा- मेरे जैसा महापराक्रमी जिसने चराचर जगत को अपने बल से वश में कर डाला हो, जिसका कुम्भकर्ण जैसा महाबलिष्ठ भाई हो, मेघनाद जैसा अजेय योद्धा पुत्र हो उसे वानर-भालू से लड़ना शोभा देगा क्या?
अरे ढ़ीठ बालक! कैलास का मथन करने वाली मेरी भुजाओं को तूं देख. रावण के समान शूरवीर कौन है जिसने अपने हीं हाथों से सिर काट-काट कर अत्यंत हर्ष के साथ बहुत बार उन्हें अग्नि में होम कर दिया! स्वयं शिवजी इस बात के साक्षी हैं.
मस्तकों के जलते समय जब मैंने अपने ललाटों पर लिखे हुए विधाता के अक्षर देखे तो बूढ़े ब्रह्मा की बुद्धि पर हंसी आई क्योंकि उन्होंने मेरी मृत्यु एक मनुष्य के हाथों लिख कर सठिया जाने का हीं परिचय दिया था. भला मेरे जैसे अजेय पराक्रमी की मृत्यु एक मनुष्य के हाथों कभी सम्भव है? बुढ़ापा में बुद्धि सठिया जाती है;यही सोच हम ब्रह्मा को कुछ नहीं बोले. नहीं तो उन को भी पता चल जाता कि मैं कौन हूं.
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अंगद- कूढ़मग्ज रावण! तू सिर काटने और कैलास उठाने की कथा कितनी बार कहेगा. बीसो बार तू कह चुका और कितनी बार कहेगा? यदि इतने बार बोलने पर भी तेरा मन न भरा हो तो दो चार बार और बोल दे मैं अपना रिस रोककर सुन लूंगा.
मंदबुद्धि रावण! सिर काटने से कोई शूरवीर हो जाता है? ऐसा तो इंद्रजाल रचनेवाला जब तब दर्शकों को रिझा कर पेट पालने के लिए करता रहता है.
तो क्या उसे हम शूरवीर कहने लगें?
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रावण-तुम्हारा जो मालिक है न वह वानर-भालू की सहायता से समुद्र के उपर एक सेतु क्या बनवा लिया अपने को शूरवीर समझता है. अरे समुद्र को तो चिरई-चुनमुनी भी लांघ जाती हैं. इतना ही वह शूरवीर है तो फिर वह दूत किसलिए भेजता है? शत्रु से संधि करने के तुझे भेज दिया.उसे लज्जा नहीं आती? मूर्ख वानर! अपनी मालिक की झूठ-मूठ सराहना करने में तब से जान दिए जा रहा है.
अंगद- मैं तेरे कठोर वचन तभी से इसीलिए सुन रहा हूं कि कृपालु श्रीराम कहते हैं कि सियार को मार कर सिंह यश प्राप्त नहीं कर सकता है. उनके इसी सीख को ह्रदय में रख मैं तुम्हें कुछ कर नहीं रहा हूं नहीं तो इसी क्षण तुम्हारे मुंह और दांत तोड़ कर सीताजी को जबरदस्ती ले जाता. अरे अधम!तेरा कितना बल है वो तो मैं तभी जान गया जब सूने में परायी स्त्री को चुरा लाया.
तूं तो राजा है और मैं सेवक.
यदि श्रीरामजी ने मुझे ऐसी आज्ञा दी होती तो तूं देखता. यहीं तुझे जमीन पर मैं पटक कर तुम्हारे सामने लंका की समस्त युवतियों और स्त्रियों को अपने कमर में बांधकर जानकीजी को लेकर चला जाता. यदि ऐसा करूं भी तो भी इसमें मेरी कोई बहादुरी की बात नहीं होगी. क्योंकि मरे हुए को मारने में कोई बहादुरी की बात हीं नहीं है.
यह सुन रावण बिलबिला उठा.
क्रोधांध रावण ने कहा- रे नीच बंदर! तूं मरना चाहता है क्या? तूं अपने जिस मालिक के बल पर मेरे एवं मेरे परिवार के बारे अंट-शंट बके जा रहा है, उसमें बल, बुद्धि या तेज कुछ भी नहीं है. भला हो भी तो कैसे! एक तो पिता ने उसे गुणहीन और मानहीन समझकर वनवास दे दिया दूसरे उसे अपनी स्त्री वियोग का दुःख साल रहा है तिस पर दिन रात मेरा भय.
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जब उसने श्रीराम की निन्दा की तो कपिकुंजर अंगद अत्यंत क्रोधित हुए.क्योंकि शास्त्र कहता है जो अपने कानों से भगवान विष्णु और शिव की निन्दा सुनता है, उसे गोवध के समान पाप होता है.
क्रोधित अंगद ने धरती पर एक मुक्का इतनी जोर से मारा कि पृथ्वी हिल उठी और सारे सभासद ढ़नमना कर गिर पड़े. स्वयं रावण भी अपने सिंहासन से गिरते-गिरते बचा लेकिन उसका मुकुट तो धरती पर गिर हीं गया जिसे उसने फिर सम्हाल पहन लिया. किंतु मुकुट के गिरने से कुछ मणि जो टूट कर धरती पर गिर गये उसे अंगद ने उठाकर उधर सुबेल पर्वत की तरफ घुमाकर फेक दिया जिधर श्रीराम अपने वानरी सेना के साथ डेरा डाले हुए थे.
मुकुट में लगे चमकदार मणि की ज्योति कुछ इस तरह थी कि मानो वे कोई उल्का पिंड हों. वानर डर से भागने लगे.
सोचने लगे-हे विधाता! क्या दिन में हीं उल्कापात होने लगा या फिर रावण ने हमलोगो पर कोई वज्र गिराया है जो तेज वेग से इधर हीं चले आ रहे हैं?
प्रभु ने हंसकर कहा- मन में डरो नहीं. ये न उल्का हैं,न वज्र. अरे भाई! ये रावण के मुकुट के मणि हैं जो अंगद के फेंकने से इधर आ रहे हैं.
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अंगद के मुष्टि प्रहार जो उसने भरी सभा में कौतुकवश हीं धरती पर मारा था, से समस्त सभासदों के ढ़नमना कर गिरने और स्वयं के गिरते-गिरते सम्हलने के बावजूद मुकुट को गिरने से बचा पाने में असफल रहने के कारण रावण क्रोध से पागल हो गया.
जैसे अत्यधिक बुखार चढ़ जाने पर भ्रांतचित्त रोगी कुछ से कुछ बकने लगता है उसी प्रकार रावण रावण जोर से सभासदों को देख बकने लगा- पकड़ लो इस वानर के बच्चे को! देखते क्या हो? मार कर खा डालो इसे. बहुत हो गया. इसे अपना आहार बना डालो.
लेकिन सभासदों को अंगद के उस मुष्टि बल को देख मानो सांप सूंघ गया था.
तिस पर अंगद ने कहा- अरे निर्लज्ज कुमार्गी स्त्रीचोर रावण! क्या अभी भी तुम्हें मेरे बल पर संदेह है? तूने मेरे जैसे बलशाली कपिकुंजर देखा कहां है? देखते नहीं तुम्हारे सभी सभासद को मेरे एक छोटे से बल-प्रदर्शन से काठ मार गया है.
गूलर के फल जैसी लंका नगरी में तुम्हारे जैसे रहने वाले कीड़े बाहर की दुनिया और उसके बाहुबलियों का अनुमान लगाने चला है. अरे तुम्हारी लंका मेरे लिए गूलर के फल जैसी हीं है जिसमें तुम जैसे कीड़े बसते हैं.वानर स्वभाव के कारण मन करता है इस गूलर फल को हीं खा जाऊं.
पर क्या करूं श्रीराम ने ऐसा करने से अभी मना किया है.
रावण अपनी स्वर्णनगरी लंका को गूलर फल से तुलना किए जाने से भीतर ही भीतर कुपित हो गया.
दूत के सामने मुकुट के भरी सभा में गिर जाने से रावण भीतर ही भीतर अपमानित महसूस कर रहा था ऊपर से अंगद की इस युक्ति कि उसकी लंका नगरी की हैसियत गूलर फल से कुछ अधिक नहीं है, रावण अपने आप को लाचार महसूस कर रहा था कि एक दूत से वह परास्त हो रहा है.
रावण नकली हंसी हंसकर बोला-रे अंगद! तूने इतना गाल बजाना कहां से सीखा है? तुझे ये स्वर्ण नगरी लंका गूलर फल समान लगती है; रणभूमि में राक्षसों के कटे सिर को तुम वानर-भालू गेंद बनाकर चौगान खेलोगे आदि-आदि. तुम्हारा बाप बालि तो कभी डींग नहीं हांकता था. तूं कैसे इतना लिफाफावाज हो गया? मालूम पड़ता है उन तपस्वियों के सोहबत में तूं भी लबार हो गया है.
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अंगद ने बिना देरी के जवाब में कहा- रे भुजबीस! मैं सचमुच लबार होऊं यदि तुम्हारी इस गूलर जैसी लंका में कोई ऐसा वीर पैदा लिया हो जो मेरे दाहिने पांव को छोड़ो यदि वायें को हीं सही, धरती पर से डिगा दे. बल्कि यदि तुम्हारा कोई योद्धा मेरे इस वायें पांव को हीं रंचमात्र हिला देगा तो जाओ मैं श्रीराम के तरफ से ही यह वचन देता हूं कि श्रीराम अपनी सारी सेना के साथ लौट जाएंगे भले सीताजी को यहीं लंका में हीं सदा के लिए क्यों न रहना पड़े!
यह कह अंगद ने मेघनाद, महोदर, कुमुख, वज्रदंष्ट्र, धूम्राक्ष,अकम्पन,अतिकाय जैसे राक्षस वीरों से भरी सभा में अपना वायां पांव आगे बढ़ा दिया और लगे वे सभा में बैठे सभी योद्धा को ललकारने.
ये देख लालची रावण के आंखों में चमक आ गई. उसने सोचा-यही मौका है सीता को सदा के लिए पाने का.
कोई युद्ध करने का झंझट हीं नहीं रहेगा.
उसने अधीर होकर अपने सभासदों से कहा-देखते क्या हो! जल्दी से इस वानर के पैर को हिला दो और शर्त जीत जाओ.
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ये सुन एक के बाद एक रावण के शूरवीर अंगद के पांव को हिलाने के लिए चले. लेकिन यह क्या!ये पांव तो मानो पर्वत की तरह अटल हो गया था. रंचमात्र भी हिल नहीं पा रहा था. अंत में सभी योद्धा मिलकर भी अंगद के पांव को उखाड़ नहीं पा रहे थे. सभी हार कर सिर झुका कर अपनी अपनी जगह बैठने लगे.
अंगद ने रावण की ओर देख उसे ललकारते हुए कहा- तूं क्या देखता है?आ तूं भी अपना बल दिखा; मिटा ले अपना भ्रम!.
इस तरह ललकारने पर रावण अंगद के पास पहुंच कर उसके पांव को जैसे हीं झुक कर पकड़ने को हुआ, अंगद ने स्वयं अपना पांव उठा कर रावण को उठाते हुए कहा- मूर्ख! मेरा जो पैर पकड़ने चला है सो जा के प्रभु श्रीराम के पैर को पकड़ न!
सच कहता हूं तुम्हारे सारे अपराध भूल कर वे तुम्हें क्षमा कर देंगे.
यह सुनते हीं रावण लज्जित हो गया.उसका रहा सहा मान भी अंगद ने मथ डाला था. अंगद की इस युक्ति से परास्त श्रीहीन रावण जब अपने सिंहासन की तरफ लौट रहा था,उसका विवर्ण मुखमंडल देखने लायक था.उसके दर्प को एक किशोर कपिकुञ्जर ने चूर-चूर कर दिया था.
गजराज के समान चलता हुआ अंगद रावण और उसकी राक्षसी सभा को चेतावनी देते हुए लौटा-नालायक राजा कहीं का! युद्ध होने दे. तुम सभी को खेला-खेला कर नहीं मार दिया तो फिर कहना!
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अंगद के वापस आने पर श्रीराम उनसे पूछते हैं-बालिपुत्र! मुझे बड़ा कौतूहल है. रावण के चारों मुकुट मणियों को तात तुमने किस तरह पाया जो तुम उन्हें इधर फेंक दिये. तात सच में मुझे बहुत आश्चर्य हो रहा है.
अंगद बोले-हे सर्वज्ञ! सुनिये! ये मुकुटों के मणि नहीं अपितु ये राजा के चार गुण हैं.शास्त्र का ये वचन है कि साम,दान,दण्ड और भेद-ये चारों राजा के ह्रदय में बसते हैं.ये नीति-धर्म के चार सुंदर चरण हैं. रावण में धर्म का अभाव हो चला है और इस प्रकार धर्महीन दशशीश रावण प्रभु के पद से विमुख होकर काल के वश में हो चला है;इसीलिए ये चारों स्वयं उस स्थान को त्याग प्रभु के पास आ गये हैं.
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राजीव रंजन प्रभाकर
१५.०९.२०२२.
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