प्रोन्नति में आरक्षण की न्यायनिर्णय अधीन/चालित यात्रा

प्रोन्नति में आरक्षण की न्यायनिर्णय अधीन/चालित यात्रा
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आरक्षण भारतीय राजव्यवस्था में दशकों से एक Vexed Issue रहा है. कभी नियुक्ति के मामले में तो कभी प्रोन्नति के मामले में.  
पहले की बात है जब मैं सेवा में नया-नया आया था तो मेरे एक एसडीओ साहब जो सेवा में मुझसे काफी सिनियर थे; अक्सर कहते थे-प्रभाकर! Appointment and Promotions have never been an easy go affair.It has always been a complex issue and also vexed one. One is required only to hasten slowly.
काश! इस सेवा में अब भी सीखने-सिखाने की परम्परा कायम रहती.अब तो जो है कि बस..... खैर.

तीन दशक से इस मामले में अनेक उतार-चढ़ाव का सर्वेक्षण मैंने अपने इस आलेख में करने का प्रयत्न किया है. 
अगर रूचि और समय दोनों हो तो पढ़ा जा सकता है.
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दिनांक 28.01.2022 को माननीय उच्चतम न्यायालय ने प्रोन्नति में आरक्षण सम्बंधी दायर याचिका जिसपर सुनवाई दिनांक 26.10.2021 को हीं पूरी कर ली गई थी,पर अपना फैसला सुना दिया है.
विस्तृत आदेश 68 पृष्ठों में अंग्रेजी में पारित है जिसे धैर्यपूर्वक पढ़ने के पश्चात जो मुझे समझ में आ सका उसी का सारांश हिंदी में यथासंभव सरलभाव से निम्न पंक्तियों में रखने का प्रयास किया गया है जो वैसे लोगों के लिए भी लाभकारी हो सकता है जिन्हें समयाभाव उन्हें आदेश को पढ़ने से रोकता हो अथवा वे भी जो स्वयं को इस आदेश से किसी न किसी रूप से हितबद्ध पाते हों.
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नोट-न्यायालय के उपरोक्त आदेश पर सीधे आने के पूर्व उन ऐतिहासिक तथ्यों को भी अपने तरीके से प्रस्तुत आलेख में शामिल किया गया है जिसकी चर्चा करना आदेश को सही परिप्रेक्ष्य में समझने में सहायक सिद्ध हो सकता है.
ऐतिहासिक तथ्य जो महत्वपूर्ण हैं-
(1)सेवा में अनुसूचित जाति (SC),अनुसूचित जनजाति(ST) एवं अन्य पिछड़ा वर्ग को आरक्षण प्रदान किए जाने का उद्देश्य इन समुदायों के कुछ लोगों को सरकारी नौकरी प्रदान करना मात्र नहीं बल्कि उन्हें सशक्त (empower) करना तथा राज्य के नीति निर्णय-निर्धारण प्रक्रिया में उन्हें भी भागीदार बनाना है.
                   इसी को ध्यान में रखकर हमारे संविधान में धारा-16 जो कि अवसर की समानता को सुनिश्चित करने के प्रयोजन से समावेशित किया गया है, के Clause 4 और 4(A) में पिछड़े वर्ग के नागरिकों के लिए राज्य के अधीन सेवा एवं पदों की नियुक्ति में आरक्षण का प्रावधान किया गया बशर्ते कि राज्य के विचार में सेवा में उनका प्रतिनिधित्व अपर्याप्त (Inadequate Representation) हो. 
(यहां यह ध्यान देने योग्य है कि माननीय उच्चतम न्यायालय ने इंद्रा साहनी बनाम यूनियन आफ इंडिया वाले अपने महत्वपूर्ण निर्णय जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे, में यह स्पष्ट कर दिया कि अपर्याप्त प्रतिनिधित्व (Inadequate Representation) का अर्थ अनुपातिक प्रतिनिधित्व (Proportional Representation) कदापि नहीं है.)
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ये बात स्मरण रखने योग्य है कि निम्नांकित स्थिति में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सदस्यों को प्रोन्नति में आरक्षण दिये जाते हैं-
(I) जब समूह B, समूह Cऔर समूह D के पदों हेतु जब सीमित विभागीय परीक्षा के माध्यम से जब प्रोन्नति दी जाय.
(II) जब Seniority cum Fitness के जरिए समूह B से समूह A के निचले ग्रेड में अथवा समूह B, समूह C, समूह D के भीतर हीं अगले ग्रेड में.
        यह उल्लेख करना भी प्रासंगिक है कि उस ग्रेड में किसी प्रकार की प्रोन्नति नहीं हो सकती है जिसमें 75 प्रतिशत से अधिक पद को सीधी भर्ती से भरे जाने का प्रावधान हो.

A.डीओपीटी का आफिस मेमोरेंडम दिनांक 02.07.1997

यह भी उल्लेखनीय है कि दिनांक 01.07.1997 तक आरक्षण की गणना रिक्ति आधारित (Vacancy Based) हुआ करती थी अर्थात आरक्षण रिक्तियों के आधार पर की जाती थी किन्तु R.K.Sabharwal बनाम पंजाब राज्य में माननीय उच्चतम न्यायालय के निर्णय के आलोक में दिनांक 02.07.1997 को डिपार्टमेंट ऑफ पर्सनल ऐंड ट्रेनिंग (DOPT) द्वारा जारी आफिस मेमोरेंडम (ओ.एम) से आरक्षण की गणना का आधार को पद आधारित(Post Based) कर दिया गया. 
इसका अर्थ यह हुआ कि किसी कोटि अन्तर्गत आरक्षण के माध्यम से भरे जाने वाले पदों की संख्या उस कोटि के लिए विहित कोटा के बराबर होना चाहिए. यहीं से बैकलॉग रिक्ति (Backlog vacancy) वजूद में आया.
       
(2) दिनांक 16.11.1992 के पहले(अर्थात माननीय उच्चतम न्यायालय के 9 सदस्यीय सांवैधानिक पीठ का फैसला जो Indra Sawhney Vs.Union of India में पारित हुआ तथा जो आरक्षण के क्षेत्र में एक युगांतरकारी फैसला है) इस बिंदु पर ध्यान कदाचित किसी का नहीं गया था कि संविधान में प्रोन्नति में आरक्षण का कोई उल्लेख नहीं है. 
        और संविधान की उक्त पीठ ने इसी तथ्य को आधार बनाकर प्रोन्नति में आरक्षण को विधिविरुद्ध (Ultra Vires) करार दे दिया. हांलांकि न्यायालय ने इसे ultra vires करार दिए जाने के साथ हीं यह भी स्पष्ट कर दिया कि अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए प्रोन्नति में चली आ रही आरक्षण व्यवस्था इस आदेश की घोषणा के पांच साल तक जारी रह सकती है. दूसरे शब्दों में; अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए प्रोन्नति में आरक्षण सम्बंधी पूर्व से चली आ रही व्यवस्था न्यायालय के उक्त निर्णय के अधीन मात्र 15.11.97 तक हीं जारी रह सकता था.
अस्तु; अनुसूचित जाति और जनजाति के प्रोन्नति में आरक्षण को पूर्ववत जारी रखने के लिए तब यह आवश्यक हो गया कि यदि संविधान में इसका उल्लेख नहीं है तो संविधान में संशोधन कर इसका उल्लेख कर इसे संविधान में समाविष्ट कर दिया जाय ताकि अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के हित को न्यायिक कुप्रभाव से बचाया जा सके.
अतः 77 वां संविधान संशोधन अधिनियम-
इसके तहत संविधान की धारा 16 में clause 4 के बाद clause 4(A) जोड़ा गया जो इस प्रकार है-
" इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के पक्ष में,जिनका प्रतिनिधित्व राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त नहीं है, राज्य के अधीन सेवाओं किसी वर्ग या वर्गों के पद पर प्रोन्नति के मामलों में आरक्षण के लिए उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी."

B.डीओपीटी का आफिस मेमोरेंडम दिनांक 13.08.1997

इस संविधान संशोधन के आलोक में डिपार्टमेंट ऑफ पर्सनल ऐंड ट्रेनिंग द्वारा एक आफिस मेमोरेंडम दिनांक 13.08.1997 को जारी किया गया जिसके माध्यम से यह स्पष्ट किया गया कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सदस्यों को प्रोन्नति में आरक्षण दिनांक 15.11.97 के बाद भी जारी रहेगा ताकि प्रत्येक कैडर में इन दोनों केटोगरी में संख्या जब तक विहित प्रतिशत को प्राप्त नहीं कर लेता है. इस प्रकार अजा/अजजा के प्रोन्नति में आरक्षण सम्बंधी इंद्रा साहनी बनाम यूनियन आफ इंडिया में न्यायालय का रोक 77 वें संविधान संशोधन अधिनियम के आलोक में डीओपीटी द्वारा जारी मेमोरेंडम दिनांक 13.08.1997 से निरस्त हो गया. अर्थात् इसके 15.11.1997 के बाद भी जारी रहने में कोई अड़चन नहीं रहा. 
नोट- ध्यान रहे कि इस सतहत्तरवें संशोधन के पश्चात भी संविधान में प्रोन्नति में परिणामी ज्येष्ठता जिसे बिहार सरकार के दस्तावेज में परिणामी वरीयता (Consequential Seniority) से जाना जाता है,की संविधान में कोई उल्लेख नहीं था. 
प्रोन्नति सम्बंधी मामले में परिणामी वरीयता को सुनिश्चित करने के लिए संविधान की धारा 16 के Clause 4(A) को एक बार फिर संशोधन करना पड़ा जो संविधान का 81 वहां संशोधन अधिनियम से सम्भव हुआ. अब इस संशोधन के पश्चात संविधान की धारा 4(A) अब निम्नवत हुआ-
" इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के पक्ष में,जिनका प्रतिनिधित्व राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त नहीं है, राज्य के अधीन सेवाओं किसी वर्ग या वर्गों के पदों पर पारिणामिक ज्येष्ठता सहित प्रोन्नति के मामलों में आरक्षण के लिए उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी."
इस प्रकार अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के मामले में उन्हें पारिणामिक वरीयता सहित प्रोन्नति में आरक्षण संविधान के क्रमशः 77 वें संशोधन अधिनियम,1995 (17.जून 1995)तथा 85वें संशोधन अधिनियम,2001(4 जनवरी,2002) से एक संवैधानिक मान्यता प्राप्त तथ्य बन चुका था.
कहने की आवश्यकता नहीं है कि उपरोक्त दोनों संशोधनों से जहां तक इंद्रा साहनी बनाम यूनियन आफ इंडिया के तहत अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के प्रोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था को संविधान में उल्लेख नहीं रहने के चलते जो ultra vires करार दिया गया था; उसके विपरीत अब अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का प्रोन्नति में आरक्षण न केवल सुनिश्चित किया गया बल्कि इसे एक कदम आगे जाकर परिणामी वरीयता के साथ सुनिश्चित किया गया.

**न्यायपालिका द्वारा कैच-अप रूल को लागू किया जाना और विधायिका द्वारा इसे संवैधानिक संशोधन के माध्यम से परिणामी वरीयता के जरिए उसे निरस्त किया जाना**
(Introduction of Catch-Rule by Judiciary and its revocation through Constitutional Amendment) 
नोट- परिणामी वरीयता (Consequential Seniority) शब्द की उत्पत्ति के बारे में भी कुछ उल्लेख करना चाहूंगा. असल में 85वहां संविधान संशोधन के पूर्व से ही अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सरकारी कर्मी को जो प्रोन्नति दी जाती थी उनकी सिनियोरीटी तब भी बरकरार रखी जाती थी जब सामान्य कोटि का कोई सरकारी सेवक (जो अन्यथा की स्थिति में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के उस कर्मी जिसे उस ग्रेड में प्रोन्नति पहले ही प्राप्त हो जाता है, से सेवा में वरीय रहा था) भी प्रोन्नति पाकर उस ग्रेड में शामिल हो जाय जिसमें अनुसूचित जाति/जनजाति का कर्मी पहले ही प्राप्त कर चुका होता था.

 उच्चतम न्यायालय ने इस व्यवस्था को यूनियन आफ इंडिया बनाम वीरपाल सिंह चौहान (1995)एवं अजय जांजुआ बनाम स्टेट आफ पंजाब (1996) अजीत सिंह बनाम स्टेट आफ पंजाब (1999) में पारित अपने फैसले में एक Catch- Up Rule को लागू (introduce) कर दिया जिसके तहत सामान्य कोटि से आने वाले सरकारी कर्मी प्रोन्नत ग्रेड में आने पर अपनी पहले वाली सिनियोरिटी के हिसाब से प्रोन्नत ग्रेड में पुनः सिनियर हो जाने थे. स्पष्टत: इससे अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के कर्मी की सिनियोरीटी कुप्रभावित हो गई और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के इसी प्रोन्नत प्राप्त कर्मी के पूर्व से व्यवहार में चली आ रही सिनियोरीटी पर पड़ रहे उत्पन्न कुप्रभाव को निष्प्रभावी करने के निमित्त सरकार ने न्यायालय द्वारा प्रतिपादित कैच आप रूल को समाप्त कर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के कर्मी को प्रोन्नत ग्रेड में प्राप्त वरीयता को परिणामी वरीयता के रूप में 85वें संशोधन अधिनियम के माध्यम से मान्यता देकर सुरक्षित कर दिया.

{****परिणामी वरीयता के सम्बन्ध में माननीय उच्चतम न्यायालय का निर्णय विशेष रूप से उल्लेखनीय है. 

 परिणामी वरीयता(Consequential Seniority) के संदर्भ में माननीय उच्चतम न्यायालय ने अपने न्यायादेश दिनांक 27.08.2015(S.Paneerselvam & Ors Vs. State of Tamil Nadu &Ors) तथा न्यायादेश दिनांक 09.02.2017( B.K Pavitra & Ors Vs. Union of India & Ors) में राज्य को स्पष्ट कर दिया कि वह M.Nagraj वाले फैसले के अनुरूप जब तक अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के पिछड़ेपन के मुतल्लिक तथा सेवा में उसके अपर्याप्त प्रतिनिधित्व को बिना quantifiable data collection के एवं प्रशासनिक दक्षता पर पड़ने वाले प्रभाव को बिना विचारे उन्हें परिणामी वरीयता का लाभ नहीं दे सकता है. यदि ऐसा नहीं हो सका है तो Catch-Rule का सिद्धांत गैर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के प्रोन्नति में पूर्णतः लागू रहेगा.****}

जब कर्नाटक राज्य सरकार द्वारा परिणामी वरीयता सम्बंधी अधिनियम 2018 लागू किया गया तो माननीय उच्चतम न्यायालय में पुनः यह कहकर याचिका दायर किया गया कि B.K.Pavitra(I)में दिये ग‌ए न्यायनिर्णय की अनदेखी कर पुराने अधिनियम को हीं बिना Defect को Cure किए फिर से रिजर्वेशन अधिनियम, 2018 लागू कर दिया गया और इस प्रकार परिणामी वरीयता सम्बंधी B.K.Pavitra (I)में माननीय उच्चतम के Observation को दरकिनार कर फिर वही अधिनियम को नया लिवास पहना दिया गया. इसकी सुनवाई में उच्चतम न्यायालय को राज्य सरकार द्वारा यह सिद्ध किया गया कि उक्त अधिनियम को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के backwardness, Inadequate Representation के मुतल्लिक quantifiable data के आधार पर हीं अधिनियमित किया गया है जिससे प्रशासनिक दक्षता पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा. यह केस B.K.Pavitra (II) से जाना गया. माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा उक्त कर्नाटक राज्य के उक्त आरक्षण अधिनियम,2018 को दोनों यथा नागराज तथा जरनैल अनुपालित पाया गया. (नागराज एवं जरनैल सिंह सम्बंधी माननीय उच्चतम न्यायालय में दायर याचिका पर आदेश क्रमशः दिनांक 19.10.2006 तथा 26.09.2018 की चर्चा आगे करेंगे.)
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3. किंतु इन न्यायादेशों के बदौलत अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के मामले में कतिपय और भी रूकावटें थीं जिनका निराकरण किया जाना बांकी था. 
 a.एक रूकावट तो बैकलॉग रिक्ति को लेकर उत्पन्न हो गई थी.उल्लेखनीय है कि बैकलोग रिक्ति उस रिक्ति को कहेंगे जो रिक्तियां उस भर्ती वर्ष में नहीं भरी जा सकीं जिस भर्ती वर्ष में वे उत्पन्न थी. 
ज्ञातव्य हो कि उच्चतम न्यायालय ने Indra Sawhney Vs.Union of India वाले अपने निर्णय दिनांक16.11.92 वाले निर्णय में अन्याय के अतिरिक्त यह भी व्यवस्था दी थी कि किसी भी भर्ती वर्ष में किसी कैडर में कुल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति हेतु आरक्षित श्रेणी की बैकलॉग रिक्ति सहित आरक्षित रिक्तियों की संख्या उस भर्ती वर्ष की कुल रिक्तियों की संख्या के 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होगी. 
उल्लेखनीय है कि बैकलॉग रिक्ति किसी पश्चातवर्ती वर्ष के निमित्त उस रिक्ति को कहेंगे जो रिक्तियां उस भर्ती वर्ष में नहीं भरी जा सकीं जिस भर्ती वर्ष में वे उत्पन्न हुई थी.
इस समस्या का भी समाधान संविधान संशोधन के माध्यम से हीं निकला जब 81 वें संविधान अधिनियम,2000 से बैकलाॅग(Backlog)भेकेंसी को पृथक वर्ग की रिक्ति(Separate Class of Vacancies) का दर्जा देकर उसे 50प्रतिशत से अनधिक वाली सीमा सम्बंधी बाध्यता से ही मुक्त कर दिया गया. ऐसा संविधान की धारा 16 में एक और clause 4(B) जोड़ कर किया गया जो निम्नवत है-
"इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को किसी वर्ष में किन्हीं न भरी गई रिक्तियों को खंड 4 या खंड 4(ख) के अधीन किए गए आरक्षण के लिए किसी उपबंध के अनुसार उस वर्ष में भरे जाने के लिए आरक्षित हैं, किसी उत्तरवर्ती वर्ष या वर्षों के में भरे जाने के लिए पृथक वर्ग की रिक्तियों के रूप में विचार करने से निवारित नहीं करेगी और ऐसे वर्ग की रिक्तियों पर उस वर्ष की रिक्तियों के साथ जिसमें वे भरी जा रही हैं,उस वर्ष की रिक्तियों की कुल संख्या के सम्बन्ध में पचास प्रतिशत आरक्षण की अधिकतम सीमा का अवधारण करने के लिए विचार नहीं किया जाएगा."
      [संविधान (इक्यासिवां संशोधन) अधिनियम,२००० की धारा २ द्वारा 9.06.2000 से अंत: स्थापित]
(b) लेकिन इसके पहले सुप्रीम कोर्ट के एक अन्य निर्णय जो दिनांक 1.10.1996 को एस.बिनोद कुमार बनाम यूनियन आफ इंडिया में दिया गया था, से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों को नियुक्ति/ प्रोन्नति में आरक्षण दिये जाने के प्रयोजनार्थ उन्हें पूर्व से अर्हक अंक(qualifying marks)में छूट ( relaxation) तथा मूल्यांकन के कम (lowering the standard of evaluation) मानक के रूप में प्राप्त हो रही सुविधा को इस आधार पर असंवैधानिक करार दिया गया कि ऐसी सुविधा संविधान की धारा 335 के प्रतिकूल है. इसके अनपालन में केंद्र सरकार के डिपार्टमेंट ऑफ पर्सनल ऐंड ट्रेनिंग (DOPT) दिनांक 22.07.97 से इन सुविधाओं को वापस ले लिया गया फलस्वरूप इसे फिर से बहाल करने के लिए संविधान की उक्त धारा में संशोधन करने की आवश्यकता महसूस की गई.

संविधान की धारा 335 कहता है- 
"संघ या राज्य के कार्यकलाप से सम्बंधित सेवाओं और पदों के लिए नियुक्तियां करने में, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों के दावे का, प्रशासन की दक्षता बनाए रखने की संगति के अनुसार ध्यान रखा जाएगा."
अतःइसमें संविधान (82वां संशोधन) अधिनियम,2000 से एक एक परन्तुक जोड़ा गया जो इस प्रकार है-
"परन्तु इस अनुच्छेद की कोई बात अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों के पक्ष में,संघ या राज्य के कार्यकलाप से सम्बंधित सेवाओं में किसी वर्ग या वर्गों में या पदों पर प्रोन्नति के मामलों में आरक्षण के लिए, किसी परीक्षा में अर्हक अंकों में छूट देने या मूल्यांकन के मानकों को घटाने के लिए उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी."

4. इस प्रकार हमने पाया कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सदस्यों को प्रोन्नति में प्राप्त हो रही सुविधाओं में संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या के हवाले से उच्चतम न्यायालय के निर्णय से जब-जब गतिरोध उत्पन्न हुआ उसे उसे संसद ने संविधान में हीं संशोधन कर दूर किया. दूसरा कोई अन्य रास्ता भी नहीं था.
किंतु यह भी नहीं था कि संविधान के 81वें,82वें तथा 85 वें संशोधन से सभी पक्ष संतुष्ट थे. इन संशोधनों को इस रूप में भी देखा गया कि इन संशोधनों के ज़रिए संविधान प्रदत्त अवसर की समानता को गैर अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों के लिए प्रोन्नति के मामले में एक तरह से छीन लेने के समतुल्य है. इसलिए इसे उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी गई. 

एम.नागराज निर्णय (2006)

इसी के बाबत माननीय उच्चतम न्यायालय ने नागराज बनाम यूनियन आफ इंडिया में दिनांक 19.10.2006 को अपने एक ऐतिहासिक निर्णय में यह व्यवस्था दी कि
      ये संशोधन अधिनियम असंवैधानिक तो नहीं है किन्तु माननीय उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया संविधान की धारा 16 (4-A) और 16 (4-B) संविधान की धारा 16 की संरचना (structure) को नहीं बदलते हैं बल्कि ये दोनों उप-धाराएं धारा 16 से ही उद्भूत हैं और यह भी कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए प्रोन्नति में आरक्षण कोई संवैधानिक बाध्यता नहीं है. किंतु यदि राज्य अपने विवेकाधिकार के तहत यदि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सदस्यों को प्रोन्नति में आरक्षण देना चाहें तो उसके लिए यह बाध्यकारी होगा कि इस हेतु उसके समक्ष बाध्यकारी कारक (compelling factors) विद्यमान है जिसके फलस्वरूप राज्य के लिए ऐसी आवश्यक है कि
a.राज्य अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के पिछड़ेपन को quantifiable data के माध्यम से दर्शाये.
b. प्रोन्नति के निमित्त अपर्याप्त प्रतिनिधित्व (Inadequate Representation) को दर्शाने हेतु quantifiable data का संग्रह किया जाय.
c.और तत्पश्चात ऐसे quantifiable data के आधार पर अपर्याप्त प्रतिनिधित्व दर्शाकर आरक्षण का परिमाण(extent of reservation)इस प्रकार तय करे कि प्रशासनिक दक्षता पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े.
कहने की आवश्यकता नहीं है कि उपरोक्त न्यायनिर्णय से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के प्रोन्नति में आरक्षण पर एक बड़ा भारी पेंच फिर फंस गया. राज्य के लिए अब ऐसी प्रोन्नति देना व्यवहार में काफी दुरूह हो चला क्योंकि उसके पास न तो पहले से ऐसा कोई डाटा था न ही Inadequate Representation को नापने का कोई पैमाना. एक तरह से उक्त न्यायनिर्णय ने प्रोन्नति के कंटकाच्छादित मार्ग को संविधान संशोधन के जरिए साफ किए जाने के बाद भी पटरी पर दौड़ने के लिए आतुर रेलगाड़ी को चलने से पहले ही पावर ब्रेक का कार्य किया.

5. प्रोन्नति में आरक्षण में स्व मेधा (Own Merit) की संकल्पना
 (Concept of Own Merit in Promotion Through Reservation)

C.डीओपीटी का आफिस मेमोरेंडम दिनांक 11.07.2002

इसकी पृष्ठभूमि यह है कि दिनांक 11.07.2002 को डिपार्टमेंट ऑफ पर्सनल ऐंड ट्रेनिंग (DOPT) ने एक आफिस मेमोरेंडम जारी किया जिसमें स्पष्ट किया गया था कि यदि कोई अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सदस्य की नियुक्ति आरक्षण एवं मूल्यांकन के कमतर मानक से इतर स्वमेधा (own merit) के आधार पर होती है तो उसका प्रोन्नति रिजर्वेशन रोस्टर के बिन्दुओं पर न कर उसे गैर‌ आरक्षित बिंदुओं पर समायोजित किया जाएगा.
किंतु इस मेमोरेंडम में यह स्पष्ट नहीं किया गया था कि इसे कब से लागू किया जाएगा और यह भी कि क्या यह selection और non-selection method of promotion दोनों में लागू होगा?

D.डीओपीटी का आफिस मेमोरेंडम दिनांक 31.01.2005

इसे डीओपीटी ने अपने मेमोरेंडम दिनांक 31.01.2005 से साफ किया कि यह 11.07.2002 से ही प्रभाव में माना जाएगा और यह सेलेक्शन मेथड ऑफ प्रोमोशन में लागू रहेगा और जहां तक नाॅन-सेलेक्शन मेथड से प्रोन्नति का सवाल है चूंकि ऐसी प्रोन्नति सिनियरोटी कम फिटनेस बेस्ड होती है अतः इसमें Own Merit वाला फार्मुला लागू नहीं होगा.
सरकार के इस मेमोरेंडम को पहले CAT में तत्पश्चात मद्रास उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई जिसमें दिनांक 31.01.2005 के उक्त clarificatory memorandum को निरस्त कर दिया गया. 

E.डीओपीटी का आफिस मेमोरेंडम दिनांक 10.08.2010.

इसके बाद डीओपीटी ने उक्त मेमोरेंडम को वापस लेते हुए दिनांक 10.08.2010 को नया मेमोरेंडम जारी किया जिसमें Own Merit formula को प्रोन्नति के दोनों विधियों यथा प्रोन्नति की चयन एवं गैर चयन विधियों (Selection as well as Non-selection Method of Promotion) पर लागू कर दिया गया तथा यह भी स्पष्ट किया गया कि इसे दिनांक 02.07.1997 से ही लागू माना जाएगा अर्थात उस तिथि से जिस तिथि से पोस्ट बेस्ड रिजर्वेशन लागू हुआ. 

डीओपीटी का उपरोक्त मेमोरेंडम दिनांक 10.08.2010 भी चुनौती का शिकार हुआ. किंतु इस बार पीड़ित पक्ष दूसरा था. पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट में लक्ष्मी नारायण गुप्ता बनाम जनरैल सिंह में माननीय उच्च न्यायालय द्वारा दिनांक को डीओपीटी के उक्त मेमोरेंडम को चुनौती दी गई.माननीय उच्च न्यायालय ने अपने न्यायादेश दिनांक 15.07.11 से इस मेमोरेंडम को यह कहते हुए निरस्त कर दिया कि वह संविधान की धारा 16(4-B), संविधान की धारा 335 सह पठित नागराज बनाम यूनियन आफ इंडिया में संविधान पीठ द्वारा पारित न्यायनिर्णय दिनांक 19.10.2006 में व्याख्यायित तथ्य के विपरीत है.

इससे व्यथित होकर जरनैल सिंह द्वारा माननीय उच्चतम न्यायालय में विशेष अनुमति याचिका SLP(C)30621/11 दायर किया गया;साथ ही केंद्र सरकार द्वारा भी अपने राजस्व विभाग के माध्यम से द्वारा इसी मामले को लेकर SLP(C) 6915/14दायर किया गया जिसे जरनैल सिंह वाले एस‌एलपी के साथ सम्बद्ध (Tag) कर दिया गया.
उपरोक्त एस‌एलपी मामले की सुनवाई करते हुए माननीय उच्चतम न्यायालय ने दिनांक 03.02.2015 को अंतरिम आदेश पारित किया कि डीओपीटी के मेमोरेंडम दिनांक 10.08.2010 के आधार पर अगले आदेश तक कोई प्रोन्नति नहीं दी जाय.

F.डीओपीटी के एस्टाब्लिशमेंट डिवीजन का निर्देश दिनांक 30.09.2016
 उच्चतम न्यायालय के उपरोक्त अंतरिम आदेश दिनांक 03.02.15 के हवाले से एस्टाब्लिशमेंट डीवीजन ने दिनांक 30.09.2016 को निर्देश जारी किया जिसमें सभी मंत्रालयों और विभागों के डीओपीटी के आफिस मेमोरेंडम दिनांक 10.08.2010 के आधार पर प्रोन्नति प्रदान करने से अगले आदेश तक रोक लगा दिया गया.

6. दिल्ली उच्च न्यायालय का आदेश दिनांक 23.08.2017 तथा उक्त आदेश को डिपार्टमेंट ऑफ पर्सनल ऐंड ट्रेनिंग द्वारा उच्चतम न्यायालय में चुनौती
इसी बीच आल इंडिया इक्वालिटी फोरम बनाम यूनियन आफ इंडिया द्वारा प्रोन्नति में आरक्षण विषयक दायर याचिका WP(C) 3490/2010 में माननीय दिल्ली उच्च न्यायालय ने दिनांक 23.08.2017 को एक निर्णय सुनाया जिसमें डीओपीटी के प्रोन्नति में आरक्षण ‌‌विषयक महत्वपूर्ण आफिस मेमोरेंडम दिनांक 13.08.1997(जिसकी चर्चा ऊपर की गई है) जो इंद्रा साहनी बनाम यूनियन आफ इंडिया से उत्पन्न गतिरोध को संवैधानिक संशोधन से समाप्त करने के पश्चात प्रोन्नति में आरक्षण को जारी रखने के निमित्त डीओपीटी द्वारा निर्गत किया गया था, उसे हीं रद्द कर दिया गया. 
न्यायालय का यह observation था कि राज्य द्वारा एम.नागराज निर्णय में निर्दिष्ट प्रोन्नति हेतु बाध्यकारी कारकों पर बिना विचारे हीं (यथाSC/ST के पिछड़ेपन पर, अपर्याप्त प्रतिनिधित्व पर quantifiable data collection exercise के बिना ही तथा ऐसे प्रोन्नति से प्रशासनिक दक्षता पर कोई प्रभाव नहीं पड़े) दिए जा रही है जो एम.नागराज निर्णय का उल्लंघन है.
  इस आदेश के विरुद्ध केंद्र द्वारा माननीय उच्चतम न्यायालय में एस.एल.पी.(31288/2017) दायर कर दिया गया जिसे भी पूर्व से सुनवाई अधीन एस.एल.पी. संख्या 30621/11 के साथ Tag कर दिया गया.

इसी क्रम में उच्चतम न्यायालय में क्रमशः दिनांक 14.11.2017 को (CA No.4562-4564)त्रिपुरा राज्य बनाम जयंत चक्रवर्ती एवं अन्य तथा दिनांक 15.11.2017 को SLP(C) No.2830/2017(महाराष्ट्र राज्य बनाम विजय घोगरे एवं अन्य); ये दो फैसला आया जिसमें यह आदेश दिया गया कि एम.नागराज निर्णय को एक बड़ी संवैधानिक पीठ को रेफर कर दिया जाय जो उक्त निर्णय का पुनर्परीक्षण (re-examine) करेगी.

प्रोन्नति में आरक्षण का इस न्यायिक भंवरजाल में फंसने का नतीजा यह हुआ कि केंद्र सहित राज्यों में प्रोन्नति पर हीं रोक लग गई जिससे असंतोष और कन्फ्यूजन दोनों इस कदर उत्पन्न हो गया कि केंद्र सरकार को माननीय उच्चतम न्यायालय में IA Petition IA No.25195/18 दायर करना पड़ा जिसमें उच्चतम न्यायालय से यह निवेदन किया गया कि विभागीय प्रोन्नति समिति की बैठक करने की अनुमति दी जाय ताकि अवरूद्ध प्रोन्नति फिर से शुरू हो सके. इस IA Petition को भी SLP(C) 30621/11 के साथ Tag करते हुए माननीय उच्चतम ने अपने अंतरिम आदेश दिनांक 17.05.2018 में आदेश दिया कि
  "It is directed that that the pendency of this SLP shall not stand in the way of the Union of India for taking steps for the purpose of promotion from "reserved to reserved" and "unreserved to unreserved" and also in the matter of promotion on merit"
इसी प्रकार SLP 31288/ 2017 में भी माननीय उच्चतम न्यायालय ने दिनांक 5.06.2018 को एक अंतरिम आदेश पारित किया जो निम्नवत है-
"It is made clear that the Union of India is not debarred from making promotions in accordance with law, subject to further orders, pending further considerations of the matter.Tag to SLP(C)30621/11."

G.डीओपीटी का आफिस मेमोरेंडम दिनांक 15.06.2018

माननीय उच्चतम न्यायालय के उपरोक्त दोनों अंतरिम आदेशों के आलोक में डीओपीटी द्वारा दिनांक 15.06.2018 को एक आफिस मेमोरेंडम जारी किया गया जिसमें सभी मंत्रालयों एवं विभागों को उच्चतम न्यायालय के उपरोक्त अंतरिम आदेशों के अनुपालन में प्रोन्नति प्रक्रिया प्रारंभ करने को कहा गया.

7. SLP(C) 30621/11 (जरनैल सिंह बनाम यूनियन आफ इंडिया)में माननीय उच्चतम न्यायालय का आदेश दिनांक 29.09.2018.
माननीय उच्चतम न्यायालय ने उपरोक्त SLP पर अपना निर्णय दिनांक 26.09.2018 को सुनाया जिसमें यह स्पष्ट कर दिया गया कि
    नागराज वाले निर्णय को संविधान की गुरूत्तर पीठ से पुनर्परीक्षण (Re-examine) कराने की कोई आवश्यकता नहीं है.
अजा/अजजा केप्रोन्नति में आरक्षण हेतु शर्त जो नागराज निर्णय में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के पिछड़ेपन (Backwardness) हेतु quantifiable data संग्रह को इस आधार पर निरस्त कर दिया गया कि ये इंद्रा साहनी वाले निर्णय के विपरीत है तथा यह भी कि इन जातियों के पिछड़ेपन को ध्यान में रख कर ही संविधान में इन्हें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के रूप में स्थान प्राप्त है. इस प्रकार इनकी backwardness एक स्वयं स्थापित तथ्य है; अतः इस सम्बन्ध में quantifiable data collection की कोई आवश्यकता नहीं है.
किंतु अपर्याप्त प्रतिनिधित्व के आधार पर आरक्षण देने हेतु compelling factors के तौर पर सेवा उनका प्रतिनिधित्व तय करने के लिए quantifiable data collection exerciseआवश्यक है.
आरक्षण दिए जाने के क्रम में प्रशासनिक दक्षता किसी तरह प्रभावित न हो इसका राज्य पूरा ख्याल रखें.

8. SLP 31288/17 में माननीय उच्चतम न्यायालय का अंतरिम आदेश
दिनांक 19.4.2019 को सुनवाई में माननीय उच्चतम न्यायालय ने निम्नांकित अंतरिम आदेश पारित किया-
"Issue notice in the fresh matters, Until further orders, status quo,as it exists today, shall be maintained.List all the matters on 15.10.2019.
सुप्रीम कोर्ट के उपरोक्त अंतरिम आदेश के आलोक में केंद्र सरकार द्वारा याचिका के माध्यम से माननीय उच्चतम न्यायालय से निवेदन किया गया है कि क्या उक्त अंतरिम आदेश के आलोक में वह प्रोन्नति की प्रक्रिया आरंभ कर सकती है.

9. अभी तक जो विभिन्न न्यायादेशों जारी हुए उससे भी प्रोन्नति में आरक्षण की स्थिति कमोबेश अस्पष्ट ही रहा सिवा इसके कि "रिजर्व टु रिजर्व" तथा "अनरिजर्व टु अनरिजर्व" श्रेणी में प्रोन्नति देने में कोई बाधा नहीं है किन्तु अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सदस्यों को प्रोन्नति देने के मामले में नागराज निर्णय एवं जरनैल सिंह निर्णय के अनुसार अपर्याप्त प्रतिनिधित्व दर्शाने हेतु quantifiable data संग्रह करना बाध्यकारी हीं रहा तथा यह भी कि प्रशासनिक दक्षता के बिंदु पर भी किसी प्रकार का समझौता राज्य अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को प्रोन्नति में आरक्षण देने के मामले में नहीं कर सकती है. 
   इसके अनुपालन में भी क‌ई बिंदु पर अनिर्णय की स्थिति बनी रही; नतीजा ये हुआ कि केंद्र सरकार सहित कई राज्यों से उच्चतम न्यायालय में दायर सिविल अपीलों की भरमार लग गई जिसमें न्यायालय से हीं आरक्षण के जटिलताओं से सम्बंधित विभिन्न बिंदुओं पर मार्गदर्शन की अपेक्षा की गई. 

         ****अद्यतन स्थिति***

इसी सिविल अपील में से एक Civil Appeal No.629/2022 जो SLP No.30621/11 से उद्भूत था, की सुनवाई की गई जिसमें इसी प्रकृति के लगभग 43 सिविल अपील जो विभिन्न SLPs से उत्पन्न थे को Tag कर दिया गया था तथा अलावे इसके इसी सिविल अपील में कुछ अवमानना याचिका तथा रिट याचिका को भी शामिल किया गया.
इन सिविल अपीलों में भले ही केस स्पेसिफिक विभिन्न निर्णय के थे किन्तु माननीय उच्चतम न्यायालय ने महान्यायवादी (Attorney General) से यह अपेक्षा की थी कि वे न्यायालय के निर्णयार्थ कुछ Common Points निकाल कर उपस्थापित करे जिस पर सुनवाई पूरी कर निर्णय पारित किया जा सके तत्पश्चात दायर अपीलों के इंडिविजुअल मैटर में उन अपीलों को 11 समूहों में विभाजित कर उन मामलों में अपील स्पेसिफिक निर्णय दिया जाएगा. तदनुसार महान्यायवादी ने दायर याचिकाओं में जो माननीय न्यायालय के समक्ष निर्णयार्थ जो Common Points तैयार किए वे निम्नलिखित हैं-
*Quantifiable data को मापने का स्केल (Yardstick) क्या होगा? तथा यह कब से लागू किया जा सकता है?
 * सेवा में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति सम्बंधी Quantifiable Data संग्रह की इकाई क्या हो? यह यूनिट सेवा हो अथवा सेवा का कैडर आदि.
*अपर्याप्त प्रतिनिधित्व है या नहीं,इसकी जांच कैसे हो?
क्या अनुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर अर्याप्त प्रतिनिधित्व की जांच हो सकती है?
*अपर्याप्त प्रतिनिधित्व की आवधिक समीक्षा हो या नहीं? यदि हां तो समीक्षा की अवधि क्या हो?
*क्या B.K.Pavitra(II) में Quantifiable data को जो Group के आधार पर संग्रह की गई उसे हीं सहुलियत की खातिर आधार मान लिया जाए?

माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा उपरोक्त बिंदुओं पर सुदीर्घ सुनवाई के पश्चात दिनांक 26.10.2021 को निर्णय सुरक्षित रख लिया गया.
10. माननीय उच्चतम न्यायालय का उपरोक्त सिविल अपील 629/22 में दिनांक 28.01.2022 को जो फैसला दिया गया,उसका सारांश यही है कि
              @ यार्डस्टिक तय करना कोर्ट का काम नहीं है. इसे राज्य सरकारें राज्य की अपनी स्थानीय परिस्थिति आदि को ध्यान में रख कर खुद तय करे.
               @Quantifiable(परिमाण निर्धारण योग्य)data collection की इकाई निश्चित रूप से कैडर हो जो कैडर अन्तर्गत कोटि/ग्रेड से सम्बद्ध किये जाने योग्य (Relatable) हों.
                @न्यायालय से इस बात की अपेक्षा न की जाए कि वह राज्य के लिए अपर्याप्त प्रतिनिधित्व की जांच की विधि बताए. जहां तक Proportional Representation(अनुपातिक प्रतिनिधित्व) को Inadequate Representation(अपर्याप्त प्रतिनिधित्व) के जांच के तौर पर उपयोग में लाने का प्रश्न है, न्यायालय उस पर अपनी कोई सम्मति नहीं देता.
              @अपर्याप्त प्रतिनिधित्व की आवधिक समीक्षा राज्य का दायित्व होगा किन्तु समीक्षा की अवधि राज्य खुद तय करे.
              @ B.K.Pavitra (I I) निर्णय में ग्रुप के आधार पर डाटा कलेक्शन को माननीय न्यायालय ने जरनैल सिंह निर्णय के विपरीत पाया और इसे कैडर बेस्ड होना आवश्यक बताया. अतः ग्रुप बेस्ड डाटा कलेक्शन को माननीय न्यायालय ने निरस्त कर दिया.
             @इस निर्णय के आलोक में कोई भी कार्रवाई भूतलक्षी प्रभाव से नहीं किया जाएगा बल्कि इसे उत्तरव्यापी प्रभाव  (prospective effect)से लागू किया जाएगा.

अब आप हीं बताइए कि राज्य को तत्काल आरक्षण प्रक्रिया शुरू करने में इन न्यायनिर्णय से कितनी सहायता मिली?
इसका निर्णय हम पाठक पर छोड़ते हैं जिन्होंने धैर्यपूर्वक मेरे इस आलेख को समय निकाल कर पढ़ा.

(इस आलेख को तैयार करने में भारत का संविधान, उच्चतम न्यायालय के प्रासंगिक न्यायादेश, केंद्र सरकार के डिपार्टमेंट ऑफ पर्सनल ऐंड ट्रेनिंग द्वारा समय-समय जारी आफिस मेमोरेंडम एवं कतिपय अन्य मौलिक स्त्रोतों की सहायता ली गई है.)
** कतिपय अंग्रेजी शब्दों के उपयुक्त हिंदी समतुल्य की जानकारी के अभाव में उन अंग्रेजी शब्दों को यथावत रख दिया गया है ताकि रुपांतरण के चलते अर्थ प्रभावित न हो.

राजीव रंजन प्रभाकर
31.01.2022.

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