व्यर्थ का वितण्डा -Driven by Holier-than-Thou Approach

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वर्षों पहले एक फिल्म देखी थी. इसमें खलनायक हीरो को कहता है-बोलो इस्लाम जिंदाबाद; हीरो उसे परिस्थितिवश दुहराता है. फिर खलनायक उसे कहता है-बोलो पाकिस्तान जिन्दाबाद; हीरो फिर उसे दुहराने को मजबूर है.बात न बनते देख खलनायक अपना आखिरी पत्ता फेंकता है. वह हीरो से कहता है -बोलो हिंदुस्तान मुर्दाबाद. ये सुनते हीं हीरो उस खास मक़सद से जमा किये गये मजमे को अपने कहर के आगोश में ले लेता है.

           कहने का मतलब ये है कि-
आप किसी "पैथी" के घोर समर्थक होते हैं या हैे ; इसमें भला किसी को क्या ऐतराज़ हो सकता है! अच्छा ये कत‌ई नहीं है कि समर्थन की आड़ में हम किसी अन्य पद्धति का परस्पर विरोध वो बदनाम करने की मुहिम शुरू कर दें. तब लगता है कि समर्थन या विरोध को किसी राजनीतिक विचारधारा या दुर्धष व्यापारिक हित ने उसे अपने हितसाधन का माध्यम बना लिया है और इसी खातिर इस गंदे मुहिम को सोशल मीडिया में गति,दिशा और प्रवाह प्रदान किया जा रहा है. खैर! हम आम आदमी कर भी क्या सकते हैं. इन सोशल मीडिया कम्पनी की महिमा अनंत है. ये सरकार तक को आंख दिखाने से बाज नहीं आतीं.
भारतीय संस्कृति सनातन से समावेशी तथा परस्पर समन्वय की रही है.यह वही संस्कृति है जिसकी संस्कृत भाषा में आप "exclusive" शब्द का पर्याय नहीं पायेंगे. ये बात स्वामी विवेकानंद ने शिकागो की सर्वधर्म सभा के अपने सार्वकालिक एवं ऐतिहासिक उद्बोधन में उपस्थित विद्वानों और धर्मवेत्ताओं को विनम्रतापूर्वक बोध कराया था.किसी बात का अंध-समर्थन अथवा अंध-विरोध इसी 'exclusiveness' का प्रछन्न प्रयत्न है.अभिजात्यवर्ग तो इस exclusiveness नामक बीमारी का बहुत पहले से शिकार रहा है; किंतु अब ये अवगुण मध्य वर्ग में भी शामिल हो गया है जो अभिजात्य वर्ग के चाल-चलन के नकल को हीं गौरव की बात समझता है. हां! निम्न वर्ग अभी भी इस नकल से कमोवेश बचा हुआ है. वह अभी भी अपना इलाज उन घरेलू नुस्खों की सहायता से करता दिख जायेगा जिसका स्त्रोत कहीं न कहीं आयुर्वेद है.
अंध-समर्थन अथवा अंध-विरोध से भारतीय संस्कृति को हम नुकसान हीं पहुंचाते हैं. कोई विवेकसम्पन्न इन दोनों में से किसी एक पाले में जाना मृत्युपर्यंत स्वीकार नहीं करेगा. 
क्या एलोपैथ का अंध-समर्थक यह दावा कर सकता है कि उसने जीवन में कभी भी आयुर्वेद का आश्रय नहीं लिया है? यहां तक कि गत वर्ष कोरोना महामारी के दरम्यान एक अंग्रेजी चिकित्सा महाविद्यालय में हुई अपनी लम्बी प्रतिनियुक्ति के दिनों में मैंने अपनी आंखों से एलोपैथी के बड़े-बड़े नामधारी-डिग्रीधारी प्रोफेसर-डाक्टर को चिकित्सा महाविद्यालय में ड्यूटी के दरम्यान हीं अपने कक्ष में जाकर लोगों से छिपकर गिलोय- तुलसी,नीम-तुलसी और ऐसे हीं क‌ई आयुर्वेदिक मिश्रण को सेवन करते देखा है.
                    वास्तव में हमारी सम्पूर्ण जीवन पद्धति ही आयुर्वेद पर आधारित है. आयुर्वेद के जानकार यह मानते हैं कि हमारे रसोईघर में जिन वस्तुओं को हमने 'मसाला' शब्द नाम दिया हुआ है,वह अनेक प्रकार की औषधियां हैं जिनके अलग-अलग अथवा निश्चित मात्रानुसार मिश्रण विभिन्न व्याधियों के शमन में निर्विवाद रूप से सहायक हैं. ज्ञातव्य हो कि आयुर्वेद में 'मसाला' नामक न तो कोई तत्व है न हीं कोई वर्गीकरण. 
आयुर्वेद को हमारा शास्त्र पंचमवेद कहता है.इसे 'उपवेद' की संज्ञा प्राप्त है. दुराग्रहरहित थोड़े से चिंतन से यह तुरंत हीं पता चल जाता है कि इसे दी गई यह उपाधि अकारण या निराधार नहीं है.
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             इसी प्रकार क्या कोई आयुर्वेद पद्धति से जीवन व्यतीत करनेवाला यह दावा कर सकता है कि उसनेे कभी अंग्रेजी दवा नहीं खायी है? अगर वह कहता है तो उसका यह दावा निरा पाखंड के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है. सच तो यह है कि आकस्मिक उपचार एलोपैथी के वश की हीं बात है.आज का आयुर्वेद किसी गंभीर अवस्था प्राप्त रोगी को न तो खून चढ़ा सकता है न हीं किसी का किडनी ट्रांसप्लांट कर सकता है न हीं हार्ट सर्जरी इत्यादि.आज का आयुर्वेद इतना विकसित तो कम से नहीं हीं है. मैं हजारों साल पुराने आयुर्वेद की बात नहीं कर रहा जिसके आधार पर कुछ लोग कहते हैं कि "एलोपैथी तो २०० साल का बच्चा है". ये सब नासमझी है. क्या 'बच्चा' को यह हक नहीं है कि वह उम्र में 'बाप' दाखिल शख़्स से कीर्ति, नाम और यश में 'बाप' से बढ़ कर 'कलक्टर' हो जाय? इससे बाप का महत्व क्या कम हो जाता है? हमें नहीं भूलना चाहिए कि वही "बच्चा" वैश्विक समर्थन पाकर सामर्थ्यवान और शक्तिशाली महामानव बन चुका है. कारण जो भी हो. बाप को इस पर खुश होना चाहिए और साथ ही साथ अपने स्वरुप को पहचान कर अपनी ताक़त को फिर से एकत्र करना चाहिए.अगर इस दिशा में कोई अनुसंधान करता है या कोई शोध करता है तो उसका उत्साहवर्धन करना चाहिए न कि मखौल उड़ाकर अपनी हीं बेवकूफी का परिचय देना चाहिए. आयुर्वेद के अनुसंधान/शोध में यदि कोई अवरोध पैदा करता है तो वह भारतीय संस्कृति का दुश्मन है. 
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                       वास्तव में हम मोह, अहंकार या प्रमादवश दो बेमेल पद्धति की तुलना करने पर तुले हुए हैं. दोनों का अपना महत्व एवं स्थान है. कोई एक दूसरे का स्थान नहीं ले सकता. तुलना करना हाथी और मछली के लिए तैरने की प्रतियोगिता आयोजित करने जैसा है. अथवा बंदर और मछली के बीच पेड़ पर चढ़ने जैसा बाजी लगाने के बराबर है. अथवा घर के दरवाजे की तुलना खिड़की से करने जैसा है.
क्या गगनचुंबी इमारत से छोटे किन्तु स्वच्छ एवं हवादार घर का महत्व कम हो गया है जहां कुछ नहीं तो सुकून तो जरूर मिलता है?
हम भूल जाते हैं कि एक का स्वरूप अधिकांश में preventive है तो दूसरे का curative. एक नैदानिक है तो दूसरा उपचारात्मक.एक की भूमिका बीमार नहीं पड़ने में सहायक है तो दूसरे की भूमिका मुख्यत: बीमार पड़ने के बाद शुरू होती है. एक "स्वस्थ" 'रहने'में अधिकांशत: सहायक है तो दूसरा "स्वस्थ" 'करने'मे.एक हमारी जीवन शैली का हिस्सा होना चाहिए तो दूसरा आकस्मिकता की घड़ी में उपचार का एकमात्र सहारा. 
सभी प्रकार के "पैथी" अथवा पद्धति के बीच समन्वय स्थापित कर एक समग्र चिकित्सा पद्धति (Integrated System of Holistic Treatment) को बनाने/अपनाने में क्या समस्या है? आप हमें समझाइये.
राजीव रंजन प्रभाकर.
३०.०५.२०२१.

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