अविद्या की तीन शक्तियां
नीचे शास्त्राधारित कुछ बातें लिखी जा रही हैं, विद्वान इसे मेरी चपलता समझ क्षमा करेंगे.
जीव जो कि ईश्वर का हीं अंश है,शरीर धारण करते हीं अर्थात जन्म लेते हीं अविद्या की तीन शक्तियों से घिर जाता है. आत्मज्ञ इन तीन शक्तियों को क्रमशः 'मल','विक्षेप' तथा 'आवरण' कहता है.
(१)मल.
मल से अभिप्राय पूर्व जन्म तथा वर्तमान में किये गये आसक्तियुक्त शुभाशुभ कर्मों के चलते अंत:करण में उत्पन्न मलिनता के वास से है.तृष्णा, ईर्ष्या-द्वेषादि ही वे मलरूपी मैल हैं जिसकी कई परतें चित्त की गहराई में जमकर इसे दूषित किये रहती है.
लगातार निष्काम कर्म से इस मैल को धोना सम्भव है. संक्षेप में निष्काम कर्म से तात्पर्य जो कर्तव्य जिस समय उपस्थित हो उसे यथारूप कर देने से है.
(२)विक्षेप.
चित्त की चंचलता हीं विक्षेप है. क्रोध चित्त की चंचलता का सबसे सरल और उत्तम उदाहरण है. मन स्थिर नहीं रहता.बुद्धि का मन पर शासन नहीं रह जाता. इसके चलते व्यक्ति मनमाना आचरण करने लगता है. व्यक्ति को कभी कोई चीज आकर्षित करता है और फिर शीघ्र हीं उसे उसी चीज में बाद में अरूचि हो जाती है.
उपासना से इस चित्त-चाञ्चल्य पर विजय प्राप्त किया जा सकता है.
परमेश्वर का ध्यान, स्मरण,चिंतन पूजा-उपवासादि को उपासना का हीं अंग माना जाना चाहिए. ऐसी उपासना चित्त को स्थिर बनाने में बहुत सहायक होती हैं. चित्त की स्थिरता उसे शीतलता प्रदान करती है यह अनुभव का विषय है.इस पर बहुत कहना व्यर्थ है.
(३) आवरण.
आवरण जैसा कि शब्द से ही स्पष्ट है,साधारण बोलचाल की भाषा में एक परदा है.
यदि किसी पात्र को वस्त्र से ढक दिया जाय और कालांतर में यदि इसकी विस्मृति हो जाय कि क्या ढ़क कर रखा गया था तो कपड़े के भीतर बर्तन होने का ज्ञान तब ही हो सकता है जब उस वस्ररुपी आवरण को हटा लिया जाय. उसी प्रकार अज्ञान-अहंकाररूपी आवरण के हटने के बाद ही जीव को अपने वास्तविक रूप अर्थात स्वरूप का ज्ञान हो सकता है.
इस तरह आवरण के कारण हीं जीव को स्वरूप की विस्मृति हो जाती है.
इस अज्ञान-अहंकाररूपी आवरण को ज्ञान-कुठार से नष्ट किया जा सकता है. आवरण का नाश स्वरुप की उपलब्धि करा जाता है और स्वरुप की स्मृति ही ज्ञान है.
इस प्रकार हम पाते हैं कि अविद्या की तीनों शक्तियों को निष्काम कर्म, उपासना एवं ज्ञान से पराजित किया जा सकता है.
कुछ विद्वानों का यह भी मत है कि निष्काम कर्म और उपासना का आश्रय पाकर मनुष्य आत्मानुसंधान की तरफ उन्मुख हो जाता है और यह आत्मानुसंधान उसे ज्ञान और भक्ति दोनों की प्राप्ति करा देता है.
राजीव रंजन प्रभाकर.
२७.१२.२०२०.
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