भक्ति की व्यथा.
एक तरूणी वृन्दावन में कालिन्दीकूल पर अत्यंत दीन एवं दुखित भाव से बैठी थी. उसके पास हीं दो वृद्ध जिनका शरीर अत्यंत जीर्ण हो चुका था,आंखे मूंदे जोर जोर से हांफ रहे थे. आंसू से डबडबाये तरुणी की आंखे बार बार इधर उधर देख रही थी. मानो वह किसी ऐसे व्यक्ति की आस देख रही हो जो उन दोनों बीमार वृद्ध को जगाकर उठाने में उनकी मदद कर सके.
देवर्षि नारद जो सम्पूर्ण त्रिलोकी में मन की गति से भी तीव्र भ्रमण करते हैं,अकस्मात प्रकट होते हैं.
देवर्षि नारद, "बाले! तुम कौन हो! इस तरह तुम क्यों दुःखी हो? तुम्हारे नेत्रों से आंसू क्यों बह रहे हैं?भूमि पर शयन कर रहे ये दोनों बीमार वृद्ध तुम्हारे कौन लगते हैं? यदि तुम मुझे इस योग्य समझती हो कि मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकता हूँ तो मुझे तुम अपनी व्यथा का कारण निःसंकोच बताओ."
देवर्षि के मुख से सहानुभूति के ये बचन सुन युवती फूट फूट कर रोने लगी.
धीरज पाकर वह बोली, "देवर्षि आप त्रिकालज्ञ हैं. आप सब कुछ जानते हुए भी मुझसे पूछ रहे हैं. मैं भक्ति हूँ तथा मेरे समीप भूमि पर शयन कर रहे बीमार और बूढ़े दीख रहे ये दोनों मेरे हीं पुत्र ज्ञान और वैराग्य हैं. नाना पंथ और पाखंड के इस भूमि पर पहरा हो जाने से मेरी दुर्दशा होती रही. मेरे ये दोनों पुत्र भी पाखंड के प्रसार से दुर्बल, जीर्ण और असाध्य व्याधि से ग्रस्त हो गये. देवगण की सलाह पर मैं अपने दोनों पुत्रों सहित वृन्दावन आयी. उन्होंने कहा था कि वृन्दावन की ये पावन भूमि भगवान कृष्णचंद्र का लीलाक्षेत्र है. इस क्षेत्र की महिमा अपरम्पार है. उन्होंने मुझसे कहा था-भक्ति! तुम वहीं जाओ, तुम्हारे सारे कष्ट स्वत: समाप्त हो जायेंगे.
मुने! मेरी व्यथा का कारण यही है कि वृन्दावन आते हीं मैं तो वृद्ध से तरूणी हो गयी किन्तु मेरे ये दोनों पुत्र ज्ञान और वैराग्य की जरावस्था एवं जीर्णता बरकरार है; बल्कि अब तो वे भूमि पर से उठ भी नहीं पा रहे. ऐसा लगता है कि वे शीघ्र हीं मृत्यु को प्राप्त हो जायेंगे.
देवर्षि सोच में पड़ गये. ऐसा क्या करें कि जीर्ण और दुर्बल होकर आंखें मूंदे भक्ति के ये दोनों पुत्र स्वस्थ होकर उठ जायें. उन्होंने बारी बारी से ज्ञान और वैराग्य के कानों में वेदमन्त्र सुनाते हुए कहा, ओ ज्ञान! ओ वैराग्य! जगो;उठो.किन्तु ये दोनों आंखें मूंदे मात्र जम्हाई लेते रहे. वेदमन्त्र का कोई विशेष असर न देखने पर मुनि ने उनके पास बैठ गीता पाठ आरंभ किया.गीताजी भी उनकी दुर्बलता को दूर कर पाने में स्वयंं को प्राय: असमर्थ हीं महसूस कर रहीं थी. उनका इन दोनों के स्वास्थ्य पर मात्र इतना असर देखा गया कि अब ये दोनों अपनी आंखें खोल पा रहे थे.जगने और उठने का तो कोई प्रश्न ही नहीं था.
यह सब देख नारद मुनि अत्यंत सोच में पड़ गये. वेदमन्त्र और गीताजी भी जब ज्ञान और वैराग्य के इस दुर्दशा का नाश नहीं कर सके तब तो अब कोई उपाय हीं नहीं शेष रह गया. कानों कान यह समाचार त्रिलोकी तक में फैल गयी कि वेदमन्त्र और गीताजी भी भक्ति के दोनों पुत्रों की कारूणिक दशा को दूर नहीं कर सके. ब्रह्म ऋषि नारद की सारी युक्ति व्यर्थ गयी.
अपनी असफलता को देख मुनि नारद ने अत्यंत दुःखी होकर भक्ति से कहा, "भक्ति! मुझे स्वयं यह बात समझ में नहीं आयी कि भला चारों वेदों के मन्त्र, वेदांत और यहां तक कि गीताजी भी तुम्हारे इन दोनो पुत्रों की रूग्णता क्यों दूर नहीं कर सकी? किन्तु तुम शोक न करो. मैं तप करूंगा और यह जानने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ूंगा कि तुम्हारे दुःख क्या निदान है. तुम चाहो तो तब तक यहीं रहकर वृन्दावन बिहारी की शरण में कालक्षेप करो.इससे अधिक मेरे पास अभी कुछ कहने को नहीं है." यह कहकर देवर्षि वहां से प्रस्थान कर गये.
त्रिलोकीपर्यन्त में मन की गति से भ्रमण करने वाले मुनि नारद का चित्त चंचल और उद्विग्न था. एक जगह अनुकूल स्थान देख वे वहीं समाधि की मुद्रा में तप करने बैठ गये. सदा भ्रमणशील नारदजी का स्थायी होकर बैठ जाने से सर्वत्र हाहाकार मच गया.नारद का स्थिर होकर समाधि लगाने से प्रकृति अस्थिर हो चली.
तभी आकाशवाणी हुई जिसे मुनिश्रेष्ठ नारदजी सहित सभी ने सुना.
"मुने! भक्ति का दुःख दूर करने के लिये तुमने जो संकल्प किया है वह निष्फल नहीं जा सकता.
निष्काम नारद! तुम अब अपने इस तप को त्याग पुनः पूर्व की तरह सर्वत्र विचरण करो और दैवयोग से यदि ऐसे तत्वज्ञानी तुम्हें कृपा कर दर्शन दें तो तुम्हारी इस समस्या का निदान सम्भव है." मुनि यह सुन तुरंत चल पड़े. किन्तु आकाशवाणी से सबकुछ साफ़ नहीं हुआ.कारण कि यह भी समस्या का स्पष्ट हल न होकर संकेतमात्र हीं था.
नारदजी आकाशवाणी पर श्रद्धा-विश्वास सहित अपने इस भ्रमणोद्योग में लीन रहे.यही उनके तप का स्वरूप बन गया. दैवयोग से उन्हें सनकादि के दर्शन हुए. उनके दर्शनमात्र से नारदजी का चित्त शीतल हो गया;हृदय का ताप जाता रहा मानो अभीष्ट स्वयं समाधान के रुप में मूर्तिमान होकर उपस्थित हो गया हो. अस्तु.
भक्ति के प्रसंग में स्वयं के सभी प्रयत्न के विफल रहने का वर्णन सनकादि से कर नारदजी मौन हो गये.
तदनन्तर अनन्य तत्त्वज्ञानी एवं समस्त वेद पुराणों के पारदर्शी विद्वान सनकादि ने नारदजी से कहा, मुनि!आप धन्य हैं, आपकी परदुखकातरता और भक्ति के कष्ट के निवारण हेतु आपका उद्योग समस्त लोकों में अनन्तकाल तक स्थायी रहेगा.
अब आपसे बिनती है कि आप एक और उद्योग करें. आप भागवत की कथा का आयोजन कीजीये. इस कलियुग में श्री मद्भागवत की कथा भोग एवं मोक्ष दोनो का हेतु है.भगवान श्रीकृष्ण के स्वधामगमन के बाद जब कलियुग का प्रवेश हुआ तो भक्तजनों के इस आग्रह पर कि प्रभु आप तो जा रहे हैं;अब हम आपके बिना इस जीवन को लेकर क्या करेंगे!भगवान ने तब यह रहस्योद्घाटन किया था कि अब मैं सूक्ष्मरूप से इस भागवत महापुराण में निवास करूंगा जिसके विधिपूर्वक पाठ अथवा श्रवण से समस्त लौकिक एवं पारलौकिक सुख को कौन कहे बल्कि इससे भक्ति,ज्ञान और वैराग्य के सारे कष्ट अनायास ही विलीन हो जायेंगे. इस पृथ्वी पर भागवत परायणपुरूष साक्षात् मेरा हीं विग्रह है.
सनकादि की आज्ञा पाकर देवर्षि नारद ने हरिद्वार के आनंदघाट पर भागवत कथा का आयोजन किया जिसमें व्यासगद्दी पर सनकादि आसीन हुए.
कहते हैं कि कथा के उत्कर्ष पर स्वयं श्रीभगवान अपने पार्षदों सहित अवतरित हो गये. उसी समय भक्ति भी कथारूपी आभूषण धारण कर अपने दोनों पुत्रों सहित नृत्य करती कथा मध्य में आ गयी. ज्ञान और वैराग्य की सारी आधि-व्याधि का अनायास ही नाश हो चुका था.अब वे फ़िर से हृष्ट-पुष्ट एवं स्वस्थ होकर भगवद्जनों के ह्रदय में विराजमान हो गये थे.
कहने की आवश्यकता नहीं है कि भागवतप्रेमी का हृदय श्रीहरि का साक्षात निवास है.श्रीमद्भागवत का पारायण करने वाला भक्ति, ज्ञान और वैराग्य का मूर्तिमान रूप है.इसमे कोई संशय हीं नहीं. किसी भी धार्मिक ग्रंथ से इन तीनों की उपलब्धि उतनी नहीं हो सकती जितने कि भागवत के पारायण से.
शेष हरि कृपा.
(श्रीमद्भागवत माहात्म्य के नारद एवं भक्ति के मध्य हुए संवाद पर आधारित)
राजीव रंजन प्रभाकर.
१३.०४.२०२०.
देवर्षि नारद जो सम्पूर्ण त्रिलोकी में मन की गति से भी तीव्र भ्रमण करते हैं,अकस्मात प्रकट होते हैं.
देवर्षि नारद, "बाले! तुम कौन हो! इस तरह तुम क्यों दुःखी हो? तुम्हारे नेत्रों से आंसू क्यों बह रहे हैं?भूमि पर शयन कर रहे ये दोनों बीमार वृद्ध तुम्हारे कौन लगते हैं? यदि तुम मुझे इस योग्य समझती हो कि मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकता हूँ तो मुझे तुम अपनी व्यथा का कारण निःसंकोच बताओ."
देवर्षि के मुख से सहानुभूति के ये बचन सुन युवती फूट फूट कर रोने लगी.
धीरज पाकर वह बोली, "देवर्षि आप त्रिकालज्ञ हैं. आप सब कुछ जानते हुए भी मुझसे पूछ रहे हैं. मैं भक्ति हूँ तथा मेरे समीप भूमि पर शयन कर रहे बीमार और बूढ़े दीख रहे ये दोनों मेरे हीं पुत्र ज्ञान और वैराग्य हैं. नाना पंथ और पाखंड के इस भूमि पर पहरा हो जाने से मेरी दुर्दशा होती रही. मेरे ये दोनों पुत्र भी पाखंड के प्रसार से दुर्बल, जीर्ण और असाध्य व्याधि से ग्रस्त हो गये. देवगण की सलाह पर मैं अपने दोनों पुत्रों सहित वृन्दावन आयी. उन्होंने कहा था कि वृन्दावन की ये पावन भूमि भगवान कृष्णचंद्र का लीलाक्षेत्र है. इस क्षेत्र की महिमा अपरम्पार है. उन्होंने मुझसे कहा था-भक्ति! तुम वहीं जाओ, तुम्हारे सारे कष्ट स्वत: समाप्त हो जायेंगे.
मुने! मेरी व्यथा का कारण यही है कि वृन्दावन आते हीं मैं तो वृद्ध से तरूणी हो गयी किन्तु मेरे ये दोनों पुत्र ज्ञान और वैराग्य की जरावस्था एवं जीर्णता बरकरार है; बल्कि अब तो वे भूमि पर से उठ भी नहीं पा रहे. ऐसा लगता है कि वे शीघ्र हीं मृत्यु को प्राप्त हो जायेंगे.
देवर्षि सोच में पड़ गये. ऐसा क्या करें कि जीर्ण और दुर्बल होकर आंखें मूंदे भक्ति के ये दोनों पुत्र स्वस्थ होकर उठ जायें. उन्होंने बारी बारी से ज्ञान और वैराग्य के कानों में वेदमन्त्र सुनाते हुए कहा, ओ ज्ञान! ओ वैराग्य! जगो;उठो.किन्तु ये दोनों आंखें मूंदे मात्र जम्हाई लेते रहे. वेदमन्त्र का कोई विशेष असर न देखने पर मुनि ने उनके पास बैठ गीता पाठ आरंभ किया.गीताजी भी उनकी दुर्बलता को दूर कर पाने में स्वयंं को प्राय: असमर्थ हीं महसूस कर रहीं थी. उनका इन दोनों के स्वास्थ्य पर मात्र इतना असर देखा गया कि अब ये दोनों अपनी आंखें खोल पा रहे थे.जगने और उठने का तो कोई प्रश्न ही नहीं था.
यह सब देख नारद मुनि अत्यंत सोच में पड़ गये. वेदमन्त्र और गीताजी भी जब ज्ञान और वैराग्य के इस दुर्दशा का नाश नहीं कर सके तब तो अब कोई उपाय हीं नहीं शेष रह गया. कानों कान यह समाचार त्रिलोकी तक में फैल गयी कि वेदमन्त्र और गीताजी भी भक्ति के दोनों पुत्रों की कारूणिक दशा को दूर नहीं कर सके. ब्रह्म ऋषि नारद की सारी युक्ति व्यर्थ गयी.
अपनी असफलता को देख मुनि नारद ने अत्यंत दुःखी होकर भक्ति से कहा, "भक्ति! मुझे स्वयं यह बात समझ में नहीं आयी कि भला चारों वेदों के मन्त्र, वेदांत और यहां तक कि गीताजी भी तुम्हारे इन दोनो पुत्रों की रूग्णता क्यों दूर नहीं कर सकी? किन्तु तुम शोक न करो. मैं तप करूंगा और यह जानने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ूंगा कि तुम्हारे दुःख क्या निदान है. तुम चाहो तो तब तक यहीं रहकर वृन्दावन बिहारी की शरण में कालक्षेप करो.इससे अधिक मेरे पास अभी कुछ कहने को नहीं है." यह कहकर देवर्षि वहां से प्रस्थान कर गये.
त्रिलोकीपर्यन्त में मन की गति से भ्रमण करने वाले मुनि नारद का चित्त चंचल और उद्विग्न था. एक जगह अनुकूल स्थान देख वे वहीं समाधि की मुद्रा में तप करने बैठ गये. सदा भ्रमणशील नारदजी का स्थायी होकर बैठ जाने से सर्वत्र हाहाकार मच गया.नारद का स्थिर होकर समाधि लगाने से प्रकृति अस्थिर हो चली.
तभी आकाशवाणी हुई जिसे मुनिश्रेष्ठ नारदजी सहित सभी ने सुना.
"मुने! भक्ति का दुःख दूर करने के लिये तुमने जो संकल्प किया है वह निष्फल नहीं जा सकता.
निष्काम नारद! तुम अब अपने इस तप को त्याग पुनः पूर्व की तरह सर्वत्र विचरण करो और दैवयोग से यदि ऐसे तत्वज्ञानी तुम्हें कृपा कर दर्शन दें तो तुम्हारी इस समस्या का निदान सम्भव है." मुनि यह सुन तुरंत चल पड़े. किन्तु आकाशवाणी से सबकुछ साफ़ नहीं हुआ.कारण कि यह भी समस्या का स्पष्ट हल न होकर संकेतमात्र हीं था.
नारदजी आकाशवाणी पर श्रद्धा-विश्वास सहित अपने इस भ्रमणोद्योग में लीन रहे.यही उनके तप का स्वरूप बन गया. दैवयोग से उन्हें सनकादि के दर्शन हुए. उनके दर्शनमात्र से नारदजी का चित्त शीतल हो गया;हृदय का ताप जाता रहा मानो अभीष्ट स्वयं समाधान के रुप में मूर्तिमान होकर उपस्थित हो गया हो. अस्तु.
भक्ति के प्रसंग में स्वयं के सभी प्रयत्न के विफल रहने का वर्णन सनकादि से कर नारदजी मौन हो गये.
तदनन्तर अनन्य तत्त्वज्ञानी एवं समस्त वेद पुराणों के पारदर्शी विद्वान सनकादि ने नारदजी से कहा, मुनि!आप धन्य हैं, आपकी परदुखकातरता और भक्ति के कष्ट के निवारण हेतु आपका उद्योग समस्त लोकों में अनन्तकाल तक स्थायी रहेगा.
अब आपसे बिनती है कि आप एक और उद्योग करें. आप भागवत की कथा का आयोजन कीजीये. इस कलियुग में श्री मद्भागवत की कथा भोग एवं मोक्ष दोनो का हेतु है.भगवान श्रीकृष्ण के स्वधामगमन के बाद जब कलियुग का प्रवेश हुआ तो भक्तजनों के इस आग्रह पर कि प्रभु आप तो जा रहे हैं;अब हम आपके बिना इस जीवन को लेकर क्या करेंगे!भगवान ने तब यह रहस्योद्घाटन किया था कि अब मैं सूक्ष्मरूप से इस भागवत महापुराण में निवास करूंगा जिसके विधिपूर्वक पाठ अथवा श्रवण से समस्त लौकिक एवं पारलौकिक सुख को कौन कहे बल्कि इससे भक्ति,ज्ञान और वैराग्य के सारे कष्ट अनायास ही विलीन हो जायेंगे. इस पृथ्वी पर भागवत परायणपुरूष साक्षात् मेरा हीं विग्रह है.
सनकादि की आज्ञा पाकर देवर्षि नारद ने हरिद्वार के आनंदघाट पर भागवत कथा का आयोजन किया जिसमें व्यासगद्दी पर सनकादि आसीन हुए.
कहते हैं कि कथा के उत्कर्ष पर स्वयं श्रीभगवान अपने पार्षदों सहित अवतरित हो गये. उसी समय भक्ति भी कथारूपी आभूषण धारण कर अपने दोनों पुत्रों सहित नृत्य करती कथा मध्य में आ गयी. ज्ञान और वैराग्य की सारी आधि-व्याधि का अनायास ही नाश हो चुका था.अब वे फ़िर से हृष्ट-पुष्ट एवं स्वस्थ होकर भगवद्जनों के ह्रदय में विराजमान हो गये थे.
कहने की आवश्यकता नहीं है कि भागवतप्रेमी का हृदय श्रीहरि का साक्षात निवास है.श्रीमद्भागवत का पारायण करने वाला भक्ति, ज्ञान और वैराग्य का मूर्तिमान रूप है.इसमे कोई संशय हीं नहीं. किसी भी धार्मिक ग्रंथ से इन तीनों की उपलब्धि उतनी नहीं हो सकती जितने कि भागवत के पारायण से.
शेष हरि कृपा.
(श्रीमद्भागवत माहात्म्य के नारद एवं भक्ति के मध्य हुए संवाद पर आधारित)
राजीव रंजन प्रभाकर.
१३.०४.२०२०.
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