श्रीराम रावण संवाद.
बहुत सारी रामायण पढ़ने की कौन कहे सच कहें तो मुझे उन्हें देखने का भी अवसर नहीं प्राप्त हुआ है;किन्तु कविकुलतिलक गोस्वामी तुलसीदास रचित सर्वसुलभ मानस को पढ़कर मुझे प्रत्येक बार ऐसा नीतिरुपी कनकबिन्दु मिल ही जाता है जिसपर मेरा ध्यान पहले कभी गया हीं नहीं.
रामचरितमानस में एक स्थल पर जाकर अनायास रुक गया. ध्यान में आया कि यह तो भगवान् श्रीराम और रावण के बीच हुआ एक दुर्लभ संवाद है.रामचरितमानस के अतिरिक्त और कहीं यह अप्राप्य है. राम और रावण के मध्य कोई सीधा संवाद का वर्णन आदिकवि बाल्मीकि ने भी अपने रामायण में किया हो मुझे इसकी ठीक-ठीक जानकारी नहीं है.
गोस्वामीजी ने अपने अलौकिक कवित्वशक्ति से जो इसका वर्णन किया है उसका सूक्ष्मांश भी यह गद्यात्मक वर्णन नहीं हो सकता जिसे मैने करने का धृष्टतापूर्ण प्रयत्न किया है. वैसे भी बहुतों का मत यही है कि गद्य में वो भाव और प्रभाव कहां जो पद्यरुपी चंद पंक्तियां अपने में समेटे रहती है. अस्तु.
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लंका में युद्ध अवसान पर है. राक्षस पक्ष के सभी उत्कट एवं विकट योद्धा मारे गये हैं. कुमुख, अकम्पन, धूम्राक्ष, महोदर, महापार्श्व आदि जिसे रावण ने अजेय दुर्जेय तथा कालविजयी समझ कर युद्ध में भेजा था देखते ही देखते काल के गाल में विलीन हो गये.और तो और रावण ने युद्ध में अपने प्रिय भाई कुम्भकर्ण और प्राणप्रिय पुत्र मेघनाद को भी खो दिया था. अब राक्षस पक्ष में उसे छोड़ कोई वीर बचा हीं नहीं जो युद्ध में रामनीत सेना के सम्मुख हो सके.
कहने की आवश्यकता नहीं कि रावण की इस समय क्या मनोदशा होगी! उसके मन में अवसाद नहीं घोर क्रोध था.
रथारूढ़ रावण सीधे वहां पहुंचा जहां निषंग-चाप-सायकसज्जित भगवान् श्रीराम युद्धभूमि पर अंगद, हनुमानादि सहित विराजमान थे.
रावण को देख श्रीराम सबकी ओर देख गम्भीर वचन बोले- "मेरे लिए अपने प्राण तक को न्योछावर करने वाले मेरे वीरों! तुम सब युद्ध करते बहुत ही थक गये हो, इसलिए अब मेरा और रावण का द्वन्द्व युद्ध देखो.
देखो! युद्धातुर रावण इधर हीं आ रहा है."
रावण(श्रीराम से) - "अरे तपस्वी! तुमने क्या मुझे क्या साधारण वीर समझ रक्खा है? लगता है तूने मेरा बल और शौर्य नहीं सुना है. अरे मैं रावण हूँ, रावण! जिसके कैदखाने में लोकपाल तक पानी भरने का काम करते हैं. और हाँ! मुझे तुम खर, दूषण और विराध समझने की भूल तो कभी करना नहीं जिन्हें मारने पर जो तुम फूले नहीं समा रहे.
तूं मेरे कुछ राक्षस योद्धा को मारकर स्वयं को वीर न समझ!
बेचारे बालि को तूने व्याध की तरह मारा तिस पर तू अपने को वीर समझता है! वीर कैसे होते हैं वो तुझे मेरी विशाल भुजा अभी अहसास करा देगी. शीघ्र हीं तूं मुझसे अपने प्राणों की भीख मांगेगा.
अरे राजा! तुमने मेरे प्रिय भाई कुम्भकर्ण और मेरे प्राणाधार पुत्र मेघनाद को भी मार दिया.यदि आज तुम रण से भाग न गये तो मैं वह सारा वैर निकाल लूंगा. आज मैं तुम्हें निश्चय हीं काल के हवाले कर दूंगा. तुम आज कठिन रावण के पाले पड़े हो."
रावण के दुर्वचन सुनकर और उसे कालवश जान कृपानिधान श्रीरामजी ने हंसकर कहा -"तुम्हारी सारी प्रभुता, जैसा तुम कहते हो, बिल्कुल सच है. पर अब व्यर्थ की बकवाद न कर अपना पुरूषार्थ दिखलाओ.
रावण! तुम व्यर्थ बकवाद करके अपने सुंदर यश का नाश न करो. क्षमा करना तुम्हें नीति सुनाता हूँ, सुनो!
संसार में तीन प्रकार के पुरूष होते हैं - - पाटल(गुलाब), आम और कटहल के समान. एक (पाटल) फूल देते हैं, एक (आम) फूल और फल दोनों देते हैं और एक (कटहल) में केवल फल हीं लगते हैं.
इसी प्रकार पुरूषों में एक कहते हैं (करते नहीं), दूसरे कहते और करते भी हैं और एक (तीसरे) केवल करते हैं, पर वाणी से कहते नहीं."
रावण श्रीरामजी की ये बाते सुनकर बहुत देर खूब जोर से अट्टहास कर हंसता रहा;फिर बोला," यह तापस तो मुझे ज्ञान सिखाने लगा! ओहो! अब समझा! तुम मुझसे डर गये. है न! तभी तो कहूँ कि ये तपस्वी बहकी बहकी बाते क्यों करने लगा!
अरे तपस्वी जब तुमने मुझसे बैर ठाना तब तुझे ये समझ नहीं आया कि मैं क्या करने जा रहा हूँ. अब अपनी दीनता को अपने नीतिवचन सुनाकर ढ़कना चाहता है! ये चातुरी तुम्हारी अब चलनेवाली नहीं है. अब तुम अपने किये का फल भोग."
दुर्वचन कहता हुआ रावण क्रुद्ध होकर वज्र के समान बाण छोड़ने लगा. अनेकों आकार के बाण दौड़े और दिशा, विदिशा, आकाश और पृथ्वी, सब जगह छा गये.
श्रीरघुवीर ने क्षणभर में हीं रावण के सभी बाणों को अपने एक अग्निबाण से भस्म कर दिया.
राम रावण का द्वन्द्व युद्ध इस तरह आरम्भ हो चुका था.
(उपरोक्त व्याजरूपेण वर्णित प्रसंग श्रीरामचरितमानस के लंकाकांड से उद्धृत एवं आधारित है)
राजीव रंजन प्रभाकर.
१५.०३.२०२०.
रामचरितमानस में एक स्थल पर जाकर अनायास रुक गया. ध्यान में आया कि यह तो भगवान् श्रीराम और रावण के बीच हुआ एक दुर्लभ संवाद है.रामचरितमानस के अतिरिक्त और कहीं यह अप्राप्य है. राम और रावण के मध्य कोई सीधा संवाद का वर्णन आदिकवि बाल्मीकि ने भी अपने रामायण में किया हो मुझे इसकी ठीक-ठीक जानकारी नहीं है.
गोस्वामीजी ने अपने अलौकिक कवित्वशक्ति से जो इसका वर्णन किया है उसका सूक्ष्मांश भी यह गद्यात्मक वर्णन नहीं हो सकता जिसे मैने करने का धृष्टतापूर्ण प्रयत्न किया है. वैसे भी बहुतों का मत यही है कि गद्य में वो भाव और प्रभाव कहां जो पद्यरुपी चंद पंक्तियां अपने में समेटे रहती है. अस्तु.
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लंका में युद्ध अवसान पर है. राक्षस पक्ष के सभी उत्कट एवं विकट योद्धा मारे गये हैं. कुमुख, अकम्पन, धूम्राक्ष, महोदर, महापार्श्व आदि जिसे रावण ने अजेय दुर्जेय तथा कालविजयी समझ कर युद्ध में भेजा था देखते ही देखते काल के गाल में विलीन हो गये.और तो और रावण ने युद्ध में अपने प्रिय भाई कुम्भकर्ण और प्राणप्रिय पुत्र मेघनाद को भी खो दिया था. अब राक्षस पक्ष में उसे छोड़ कोई वीर बचा हीं नहीं जो युद्ध में रामनीत सेना के सम्मुख हो सके.
कहने की आवश्यकता नहीं कि रावण की इस समय क्या मनोदशा होगी! उसके मन में अवसाद नहीं घोर क्रोध था.
रथारूढ़ रावण सीधे वहां पहुंचा जहां निषंग-चाप-सायकसज्जित भगवान् श्रीराम युद्धभूमि पर अंगद, हनुमानादि सहित विराजमान थे.
रावण को देख श्रीराम सबकी ओर देख गम्भीर वचन बोले- "मेरे लिए अपने प्राण तक को न्योछावर करने वाले मेरे वीरों! तुम सब युद्ध करते बहुत ही थक गये हो, इसलिए अब मेरा और रावण का द्वन्द्व युद्ध देखो.
देखो! युद्धातुर रावण इधर हीं आ रहा है."
रावण(श्रीराम से) - "अरे तपस्वी! तुमने क्या मुझे क्या साधारण वीर समझ रक्खा है? लगता है तूने मेरा बल और शौर्य नहीं सुना है. अरे मैं रावण हूँ, रावण! जिसके कैदखाने में लोकपाल तक पानी भरने का काम करते हैं. और हाँ! मुझे तुम खर, दूषण और विराध समझने की भूल तो कभी करना नहीं जिन्हें मारने पर जो तुम फूले नहीं समा रहे.
तूं मेरे कुछ राक्षस योद्धा को मारकर स्वयं को वीर न समझ!
बेचारे बालि को तूने व्याध की तरह मारा तिस पर तू अपने को वीर समझता है! वीर कैसे होते हैं वो तुझे मेरी विशाल भुजा अभी अहसास करा देगी. शीघ्र हीं तूं मुझसे अपने प्राणों की भीख मांगेगा.
अरे राजा! तुमने मेरे प्रिय भाई कुम्भकर्ण और मेरे प्राणाधार पुत्र मेघनाद को भी मार दिया.यदि आज तुम रण से भाग न गये तो मैं वह सारा वैर निकाल लूंगा. आज मैं तुम्हें निश्चय हीं काल के हवाले कर दूंगा. तुम आज कठिन रावण के पाले पड़े हो."
रावण के दुर्वचन सुनकर और उसे कालवश जान कृपानिधान श्रीरामजी ने हंसकर कहा -"तुम्हारी सारी प्रभुता, जैसा तुम कहते हो, बिल्कुल सच है. पर अब व्यर्थ की बकवाद न कर अपना पुरूषार्थ दिखलाओ.
रावण! तुम व्यर्थ बकवाद करके अपने सुंदर यश का नाश न करो. क्षमा करना तुम्हें नीति सुनाता हूँ, सुनो!
संसार में तीन प्रकार के पुरूष होते हैं - - पाटल(गुलाब), आम और कटहल के समान. एक (पाटल) फूल देते हैं, एक (आम) फूल और फल दोनों देते हैं और एक (कटहल) में केवल फल हीं लगते हैं.
इसी प्रकार पुरूषों में एक कहते हैं (करते नहीं), दूसरे कहते और करते भी हैं और एक (तीसरे) केवल करते हैं, पर वाणी से कहते नहीं."
रावण श्रीरामजी की ये बाते सुनकर बहुत देर खूब जोर से अट्टहास कर हंसता रहा;फिर बोला," यह तापस तो मुझे ज्ञान सिखाने लगा! ओहो! अब समझा! तुम मुझसे डर गये. है न! तभी तो कहूँ कि ये तपस्वी बहकी बहकी बाते क्यों करने लगा!
अरे तपस्वी जब तुमने मुझसे बैर ठाना तब तुझे ये समझ नहीं आया कि मैं क्या करने जा रहा हूँ. अब अपनी दीनता को अपने नीतिवचन सुनाकर ढ़कना चाहता है! ये चातुरी तुम्हारी अब चलनेवाली नहीं है. अब तुम अपने किये का फल भोग."
दुर्वचन कहता हुआ रावण क्रुद्ध होकर वज्र के समान बाण छोड़ने लगा. अनेकों आकार के बाण दौड़े और दिशा, विदिशा, आकाश और पृथ्वी, सब जगह छा गये.
श्रीरघुवीर ने क्षणभर में हीं रावण के सभी बाणों को अपने एक अग्निबाण से भस्म कर दिया.
राम रावण का द्वन्द्व युद्ध इस तरह आरम्भ हो चुका था.
(उपरोक्त व्याजरूपेण वर्णित प्रसंग श्रीरामचरितमानस के लंकाकांड से उद्धृत एवं आधारित है)
राजीव रंजन प्रभाकर.
१५.०३.२०२०.
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