सफलता के लिये अध्ययन कैसे करें?
पहले ही स्पष्ट कर दिया जाना मुझे आवश्यक महसूस होता है कि मैं बता दूं कि मैं कोई कोचिंग नहीं चलाता हूँ न हीं मैं कोई पेशेवर करियर काउंसलर हूँ; इसलिये अध्ययन के संदर्भ में नीचे लिखी बातें किसी को गैर-पेशेवराना या हल्का लेखन मालूम पड़े तो इसे स्वीकार करने में मुझे कोई दिक्कत नहीं है। किन्तु कई मेधावी छात्रों की परीक्षा में प्रयास के बावजूद अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाने की पृष्ठभूमि में जाने पर मैंने पाया कि छात्रजीवन में मैंने अध्ययन के जिन महत्वपूर्ण पहलूओं की अज्ञानतावश उपेक्षा की थी कमोवेश वैसी हीं अज्ञानताजन्य उपेक्षा वे लोग भी कर रहे हैं जिन्हें सफलता का अभी तक इंतजार है। यह भी यहीं कह देने की इच्छा है कि जो कुछ इस संदर्भ में लिखने जा रहा हूँ, वह कुछ नया नहीं है परन्तु कुछ चीजें ऐसी हैं कि वह कभी पुरानी भी नहीं होती और उसकी प्रासंगिकता सदैव बनी रहती है।
छात्रों की सफलता प्राप्ति के लिए उसका किसी विषय में आत्मविश्वास के साथ कुछ लिखना बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि उसने किसी विषय का अध्ययन कैसे किया है।
लिखना सफलता की गारंटी
यहां लिखने का अर्थ कलम-काॅपी के साथ अभ्यास से है चाहे वह गणित के सवाल हल करना हो या मानविकी के विषय पर तर्कपूर्णतरीके से लिखने का प्रयास हो। लिखना अथाह सागर में नाव पर सवार एक छात्र के लिये पार उतरने के निमित्त पतवार है, ऐसा मेरा विश्वास है।
वह बात जो बताना मैं निहायत हीं महत्वपूर्ण समझता हूं वो ये कि अध्ययन का अर्थ मात्र पढ़ने तक सीमित नहीं है। मैने पटना से दिल्ली तक अधिकांश सिविल सेवा प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी करनेवाले कैंडिडेट्स को देखा है और ये पाया है कि वे अपना अधिकांश समय किसी किताब को पढ़ने में हीं खपा देते हैं, लिखते बिल्कुल नहीं या बहुत हीं कम लिखते हैं।जब देखो तब उनके हाथ में कोई किताब हीं रहती है और कलम का ज्यादातर उपयोग वे पुस्तक में पाराग्राफ के किसी किसी अंश को अन्डरलाइन करने में करते हैं। लिखना उन्हें बहुत नहीं भाता है।परिणामस्वरूप वे छात्र जानकारी तो इतना एकत्र कर लेते हैं कि उन्हें विशेषज्ञ कहने में भी संकोच नहीं होता परन्तु विषय की हर खास और आम जानकारी के होते हुए भी जब परीक्षा में वे सफल नहीं होते हैं तो लोगों को बड़ा आश्चर्य होता है। परिवार के लोग जो उनसे इतना आस लगाये रहते हैं उन्हें भी एकबारगी झटका सा लगता है। स्वयं परीक्षार्थी को भी निराशा ही हाथ लगने से उसका मनोबल क्षय होता है। असफलता की पुनरावृति पर यह भी देखा गया है कि उसका मनोबल टूट गया है और उसके लिये कोई भी परीक्षा में सफलता हासिल कर पाना तब और भी मुश्किल हो जाता है। एक स्थिति ऐसी आती है कि अपार जानकारी से लैस और आत्मविश्वास से लबरेज छात्र जो प्रारंभ में सफलता को बायें हाथ का खेल समझता है वही लगातार असफल होने पर छोटे स्तर की परीक्षाओं में भी सफलता प्राप्त करना उसे दुष्कर मालूम पड़ने लगता है। आत्मविश्वास में जो कमी होने लगती है सो अलग।
जहां असफलता से उत्पन्न निराशा के भाव पर काबू पाना परीक्षार्थी का प्रथम दायित्व है वहीं उतना ही महत्वपूर्ण यह भी है कि वह दुबारा तैयारी करने के पहले अपने अध्ययन के तरीके का भी विश्लेषण करे जिससे उसे यह पता चल सके कि उससे चूक कहां हुई।अधिकांश मामलों में यही निष्कर्ष निकलेगा कि उसने लिखने का अभ्यास उतना नहीं किया जितना कि होना चाहिए था। फलस्वरूप अप्रभावी ढंग से तथ्यों को मात्र रख देने से या प्रश्न की अपेक्षाओं के विपरीत किताबी स्मरण को यथावत लिख देने से परीक्षक को यह पता चलते देर नहीं लगती कि परीक्षार्थी को उस टाॅपिक के संदर्भ में जो कुछ याद था उसे उसने लिख मात्र दिया है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि ऐसा प्रभावहीन प्रयास की अंकप्रदायी क्षमता बहुत कम होती है।
उपरोक्त बातें कहने का आशय यह नहीं है कि पढ़ना अनावश्यक है बल्कि यह कि पढ़ना अध्ययन के लिए जरूरी तो है लेकिन पर्याप्त नहीं।
हम सभी को इसका कमोबेश अनुभव है कि 'पढ़ने' से अधिक एकाग्रता 'समझने'में चाहिये और 'समझने' से ज्यादा मानसिक श्रम उस समझे हुए टाॅपिक को 'गुनने' में लगता है और उस टाॅपिक पर सम्यक रूप से लिखना तब ही सम्भव हो पाता है जब कि वह पढ़े जाने के उपरांत अच्छी तरह से समझ-बूझ लिया गया हो।पूछे गये प्रश्न की अपेक्षानुरूप लिखना तो और भी कठिन हो जाता है भले ही उस विषय के बारे में हमारी जानकारी यथेष्ट भी हो तब भी। इस प्रकार पढ़ना अध्ययन की मात्र प्रारम्भिक अवस्था है जिसे हम प्रमादवश शुरू और अंतिम दोनों अवस्था मान लेते हैं। हम यहां मात्र ये रेखांकित करना चाहते हैं कि तथ्यों को सही ढंग से समझ-बूझ लेने का यह अर्थ कदापि नहीं है कि हम उसे प्रभावोत्पादक ढंग से लिख भी सकते हैं। इसके लिये सम्यक अभ्यास की आवश्यकता होती है जिसकी हम क्रूरतापूर्ण उपेक्षा कर देते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं है कि निरन्तर लिखने के अभ्यास से प्रस्तुतीकरण में जो निखार आता है उसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता है। लिखावट में जो सुधार होता है सो अलग।
परीक्षा में सफलता इस बात पर निर्भर नहीं करती है कि हम कितना जानते हैं बल्कि परीक्षा हमारी उस हुनर की होती है कि हम नियत समय में पूछे गये प्रश्न के परिपेक्ष्य में 'अपनी बात' कितने बेहतर तरीके से लिखकर कह सकते हैं। परीक्षा एक प्रकार से परीक्षक के साथ अप्रत्यक्ष वार्तालाप है जिसके आधार पर परीक्षक आपका अध्ययन के स्तर के बारे में दूर बैठा जानकारी प्राप्त कर लेता है। कभी कभी तो आपका लिखा आपके व्यक्तित्व के संदर्भ में भी एक इंडिकेटर का काम कर देता है।
मैं अध्ययन को सफलता पाने की दृष्टि से तब हीं सार्थक समझता हूँ जब अध्ययन में व्यतीत समय को पढ़ने और लिखने में बराबर रूप से बांट दिया जाय। इसके बाद जो आत्मविश्वास जागृत होता है वह ऐसा करनेवाला हीं समझ सकता है। उदाहरणस्वरूप यदि हमने अध्ययन हेतु छः घंटे का समय निर्धारित किया हुआ है तो यदि हम तीन घंटा पढ़े व समझे गये विषय को विभिन्न तरीके से लिखने में नहीं लगाते हैं तो मेरे लिए यह अध्ययन में एक खोट है।
इसके सहारे मेधावी की कौन कहे एक सामान्य छात्र भी सफलता का स्वाद चख ले तो कोई आश्चर्य नहीं।
पढ़ें कैसे?
उपर 'लिखने' के संदर्भ में बहुत कुछ लिखने का अर्थ यह नहीं है कि 'पढ़ने' के महत्व की उपेक्षा हो जाय। बिना पढ़े कुछ लिखने की बात सोची भी नहीं जा सकती, खासकर प्रतियोगिता परीक्षाओं में, चाहे आपका base कितना ही मजबूत क्यों न हो।
क्या हम पूरी थाली में जो भोजन होता है उसे एक बार में खा सकते हैं? नहीं न! लेकिन यह हम सभी को अनुभव है कि प्रत्येक कौर के साथ थाली में रखा भोजन शनैः शनैः हम उदरस्थ कर लेते हैं।इसी को हम One by One Approach कहते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि इस approach से पढ़ने पर विषय का विशालतम दायरा भी न केवल पकड़ में आ जाता है बल्कि उसकी विशालता को साधक(अध्ययनशील छात्र)अपने निष्ठापूर्ण श्रम से अपने हाथ की कठपुतली बना डालता है। ये जानते हुए कि किसी भी विषय का विस्तार एवं परास प्रायः असीमित होता है, अस्तु परीक्षा के दृष्टिकोण से हम क्या पढ़ें इसे पढ़ने से पहले ही तय कर लेना बहुत ही लाभदायक है। ठीक उसी प्रकार जैसे खाने की मेज पर रखे हर भोजन को हम नहीं खाते हैं, मात्र उसी को खाने के लिए चयन करते हैं जो हमें पसन्द होता है। इसको हम selective reading(study) कहेंगे। सफलता के लिये यह नितान्त आवश्यक है। वरना सभी टाॅपिक को समानरूप से साधना लगभग असम्भव होता है। मैं यहाँ किसी genius के बारे में चर्चा नहीं कर रहा हूँ।
जिस प्रकार हम भोजन धीरे-धीरे करते हैं क्योंकि इससे हमें पचाने में मदद मिलती है उसी प्रकार पढ़ना भी हमें धीरे-धीरे हीं चाहिये। इसको reading with a pause कहा गया है। यह पढ़े गये पाराग्राफ को digest करने में सहायता करता है। तेजी से पढ़ना निपटने जैसा ही है। इससे कोई विशेष फायदा मेरी समझ में नहीं है।
जैसे एकबार भोजन कर लेने से भोजन करने की आवश्यकता खत्म नहीं होती उसी तरह एक बार पढ़ लेने से पढ़ने की आवश्यकता समाप्त नहीं हो जाती है। अतः repeated reading से चीजें बेहतर समझ में आने लगती हैं। हम अब उस Matter को understand करने लग जाते हैं। उस सम्बंध में हम अपने समझ से उसे निरूपित करने के लिए स्वयं उदाहरण अथवा example खोज पाने में समर्थ हो जाते हैं। और जब हम पुस्तक में बताये गये विषयवस्तु के सदृश अपने विवेक और पूर्वार्जित ज्ञान या अनुभव के सहारे उदाहरण देने या बनाने में सफल हो जाते हैं तो यह कहा जा सकता है कि हम उस subject matter को appreciate कर पाने में सफल रहे हैं।
उसके बाद बारी आती है समझे गये टाॅपिक पर अपने समझ के हिसाब से तर्क वितर्क करने की जिसे critical analysis कहेंगे।यदि ऐसा है तो क्यों है? क्या इसमें सुधार की सम्भावना है या नहीं, आदि आदि।इसे critical reading कहते हैं। इस आधार पर हम किसी सर्वमान्य या सर्वस्वीकार्य तथ्य में तर्कपूर्ण संशोधन,आलोचना या समीक्षा करने में भी समर्थ हो जाते हैं और यही तो उच्चस्तरीय परीक्षा में प्रश्न का उद्देश्य होता है! जहाँ छात्रों से अपने शब्दों में आलोचना या समीक्षा करने को कहा जाता है और वह गाइड या दूसरे के नोट्स को रटकर कुछ लिख देता है और अपने सफलता की सम्भावना को स्वयं क्षीण कर लेता है।
critical reading से एक उच्च कोटि की विचारणक्षमता का प्रादुर्भाव होने लगता है जिसे Higher Order Thinking Skill(HOTS) कहते हैं।
अतः विद्यार्थी को अपने में critical reading की आदत डालनी चाहिये।
हांलाकि प्रस्तुत लेखन थोड़ा उपदेशात्मक जरुर हो गया है किन्तु इस प्रकार से लिखने पढ़ने की योग्यता यदि अभ्यास से अर्जित कर ली जाय तो सफलता उसी प्रकार निकल कर सामने आती है जैसे हाइड्रोजन एवं आक्सीजन के अणुओं का आपस में संयोग जल की उपलब्धि करा जाता है। अब लिखने और पढ़ने में कौन हाइड्रोजन और कौन आक्सीजन के समतुल्य है,इसका निर्णय हम पाठक के उपर छोड़ देते हैं। लेकिन इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि चाहे competition कितना हीं tough क्यों न हो सफलता प्राप्ति हेतु हमें इन दोनों (reading&writing) को maximize या optimize करना होगा।
राजीव रंजन प्रभाकर.
०६.१०.२०१९.
छात्रों की सफलता प्राप्ति के लिए उसका किसी विषय में आत्मविश्वास के साथ कुछ लिखना बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि उसने किसी विषय का अध्ययन कैसे किया है।
लिखना सफलता की गारंटी
यहां लिखने का अर्थ कलम-काॅपी के साथ अभ्यास से है चाहे वह गणित के सवाल हल करना हो या मानविकी के विषय पर तर्कपूर्णतरीके से लिखने का प्रयास हो। लिखना अथाह सागर में नाव पर सवार एक छात्र के लिये पार उतरने के निमित्त पतवार है, ऐसा मेरा विश्वास है।
वह बात जो बताना मैं निहायत हीं महत्वपूर्ण समझता हूं वो ये कि अध्ययन का अर्थ मात्र पढ़ने तक सीमित नहीं है। मैने पटना से दिल्ली तक अधिकांश सिविल सेवा प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी करनेवाले कैंडिडेट्स को देखा है और ये पाया है कि वे अपना अधिकांश समय किसी किताब को पढ़ने में हीं खपा देते हैं, लिखते बिल्कुल नहीं या बहुत हीं कम लिखते हैं।जब देखो तब उनके हाथ में कोई किताब हीं रहती है और कलम का ज्यादातर उपयोग वे पुस्तक में पाराग्राफ के किसी किसी अंश को अन्डरलाइन करने में करते हैं। लिखना उन्हें बहुत नहीं भाता है।परिणामस्वरूप वे छात्र जानकारी तो इतना एकत्र कर लेते हैं कि उन्हें विशेषज्ञ कहने में भी संकोच नहीं होता परन्तु विषय की हर खास और आम जानकारी के होते हुए भी जब परीक्षा में वे सफल नहीं होते हैं तो लोगों को बड़ा आश्चर्य होता है। परिवार के लोग जो उनसे इतना आस लगाये रहते हैं उन्हें भी एकबारगी झटका सा लगता है। स्वयं परीक्षार्थी को भी निराशा ही हाथ लगने से उसका मनोबल क्षय होता है। असफलता की पुनरावृति पर यह भी देखा गया है कि उसका मनोबल टूट गया है और उसके लिये कोई भी परीक्षा में सफलता हासिल कर पाना तब और भी मुश्किल हो जाता है। एक स्थिति ऐसी आती है कि अपार जानकारी से लैस और आत्मविश्वास से लबरेज छात्र जो प्रारंभ में सफलता को बायें हाथ का खेल समझता है वही लगातार असफल होने पर छोटे स्तर की परीक्षाओं में भी सफलता प्राप्त करना उसे दुष्कर मालूम पड़ने लगता है। आत्मविश्वास में जो कमी होने लगती है सो अलग।
जहां असफलता से उत्पन्न निराशा के भाव पर काबू पाना परीक्षार्थी का प्रथम दायित्व है वहीं उतना ही महत्वपूर्ण यह भी है कि वह दुबारा तैयारी करने के पहले अपने अध्ययन के तरीके का भी विश्लेषण करे जिससे उसे यह पता चल सके कि उससे चूक कहां हुई।अधिकांश मामलों में यही निष्कर्ष निकलेगा कि उसने लिखने का अभ्यास उतना नहीं किया जितना कि होना चाहिए था। फलस्वरूप अप्रभावी ढंग से तथ्यों को मात्र रख देने से या प्रश्न की अपेक्षाओं के विपरीत किताबी स्मरण को यथावत लिख देने से परीक्षक को यह पता चलते देर नहीं लगती कि परीक्षार्थी को उस टाॅपिक के संदर्भ में जो कुछ याद था उसे उसने लिख मात्र दिया है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि ऐसा प्रभावहीन प्रयास की अंकप्रदायी क्षमता बहुत कम होती है।
उपरोक्त बातें कहने का आशय यह नहीं है कि पढ़ना अनावश्यक है बल्कि यह कि पढ़ना अध्ययन के लिए जरूरी तो है लेकिन पर्याप्त नहीं।
हम सभी को इसका कमोबेश अनुभव है कि 'पढ़ने' से अधिक एकाग्रता 'समझने'में चाहिये और 'समझने' से ज्यादा मानसिक श्रम उस समझे हुए टाॅपिक को 'गुनने' में लगता है और उस टाॅपिक पर सम्यक रूप से लिखना तब ही सम्भव हो पाता है जब कि वह पढ़े जाने के उपरांत अच्छी तरह से समझ-बूझ लिया गया हो।पूछे गये प्रश्न की अपेक्षानुरूप लिखना तो और भी कठिन हो जाता है भले ही उस विषय के बारे में हमारी जानकारी यथेष्ट भी हो तब भी। इस प्रकार पढ़ना अध्ययन की मात्र प्रारम्भिक अवस्था है जिसे हम प्रमादवश शुरू और अंतिम दोनों अवस्था मान लेते हैं। हम यहां मात्र ये रेखांकित करना चाहते हैं कि तथ्यों को सही ढंग से समझ-बूझ लेने का यह अर्थ कदापि नहीं है कि हम उसे प्रभावोत्पादक ढंग से लिख भी सकते हैं। इसके लिये सम्यक अभ्यास की आवश्यकता होती है जिसकी हम क्रूरतापूर्ण उपेक्षा कर देते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं है कि निरन्तर लिखने के अभ्यास से प्रस्तुतीकरण में जो निखार आता है उसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता है। लिखावट में जो सुधार होता है सो अलग।
परीक्षा में सफलता इस बात पर निर्भर नहीं करती है कि हम कितना जानते हैं बल्कि परीक्षा हमारी उस हुनर की होती है कि हम नियत समय में पूछे गये प्रश्न के परिपेक्ष्य में 'अपनी बात' कितने बेहतर तरीके से लिखकर कह सकते हैं। परीक्षा एक प्रकार से परीक्षक के साथ अप्रत्यक्ष वार्तालाप है जिसके आधार पर परीक्षक आपका अध्ययन के स्तर के बारे में दूर बैठा जानकारी प्राप्त कर लेता है। कभी कभी तो आपका लिखा आपके व्यक्तित्व के संदर्भ में भी एक इंडिकेटर का काम कर देता है।
मैं अध्ययन को सफलता पाने की दृष्टि से तब हीं सार्थक समझता हूँ जब अध्ययन में व्यतीत समय को पढ़ने और लिखने में बराबर रूप से बांट दिया जाय। इसके बाद जो आत्मविश्वास जागृत होता है वह ऐसा करनेवाला हीं समझ सकता है। उदाहरणस्वरूप यदि हमने अध्ययन हेतु छः घंटे का समय निर्धारित किया हुआ है तो यदि हम तीन घंटा पढ़े व समझे गये विषय को विभिन्न तरीके से लिखने में नहीं लगाते हैं तो मेरे लिए यह अध्ययन में एक खोट है।
इसके सहारे मेधावी की कौन कहे एक सामान्य छात्र भी सफलता का स्वाद चख ले तो कोई आश्चर्य नहीं।
पढ़ें कैसे?
उपर 'लिखने' के संदर्भ में बहुत कुछ लिखने का अर्थ यह नहीं है कि 'पढ़ने' के महत्व की उपेक्षा हो जाय। बिना पढ़े कुछ लिखने की बात सोची भी नहीं जा सकती, खासकर प्रतियोगिता परीक्षाओं में, चाहे आपका base कितना ही मजबूत क्यों न हो।
क्या हम पूरी थाली में जो भोजन होता है उसे एक बार में खा सकते हैं? नहीं न! लेकिन यह हम सभी को अनुभव है कि प्रत्येक कौर के साथ थाली में रखा भोजन शनैः शनैः हम उदरस्थ कर लेते हैं।इसी को हम One by One Approach कहते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि इस approach से पढ़ने पर विषय का विशालतम दायरा भी न केवल पकड़ में आ जाता है बल्कि उसकी विशालता को साधक(अध्ययनशील छात्र)अपने निष्ठापूर्ण श्रम से अपने हाथ की कठपुतली बना डालता है। ये जानते हुए कि किसी भी विषय का विस्तार एवं परास प्रायः असीमित होता है, अस्तु परीक्षा के दृष्टिकोण से हम क्या पढ़ें इसे पढ़ने से पहले ही तय कर लेना बहुत ही लाभदायक है। ठीक उसी प्रकार जैसे खाने की मेज पर रखे हर भोजन को हम नहीं खाते हैं, मात्र उसी को खाने के लिए चयन करते हैं जो हमें पसन्द होता है। इसको हम selective reading(study) कहेंगे। सफलता के लिये यह नितान्त आवश्यक है। वरना सभी टाॅपिक को समानरूप से साधना लगभग असम्भव होता है। मैं यहाँ किसी genius के बारे में चर्चा नहीं कर रहा हूँ।
जिस प्रकार हम भोजन धीरे-धीरे करते हैं क्योंकि इससे हमें पचाने में मदद मिलती है उसी प्रकार पढ़ना भी हमें धीरे-धीरे हीं चाहिये। इसको reading with a pause कहा गया है। यह पढ़े गये पाराग्राफ को digest करने में सहायता करता है। तेजी से पढ़ना निपटने जैसा ही है। इससे कोई विशेष फायदा मेरी समझ में नहीं है।
जैसे एकबार भोजन कर लेने से भोजन करने की आवश्यकता खत्म नहीं होती उसी तरह एक बार पढ़ लेने से पढ़ने की आवश्यकता समाप्त नहीं हो जाती है। अतः repeated reading से चीजें बेहतर समझ में आने लगती हैं। हम अब उस Matter को understand करने लग जाते हैं। उस सम्बंध में हम अपने समझ से उसे निरूपित करने के लिए स्वयं उदाहरण अथवा example खोज पाने में समर्थ हो जाते हैं। और जब हम पुस्तक में बताये गये विषयवस्तु के सदृश अपने विवेक और पूर्वार्जित ज्ञान या अनुभव के सहारे उदाहरण देने या बनाने में सफल हो जाते हैं तो यह कहा जा सकता है कि हम उस subject matter को appreciate कर पाने में सफल रहे हैं।
उसके बाद बारी आती है समझे गये टाॅपिक पर अपने समझ के हिसाब से तर्क वितर्क करने की जिसे critical analysis कहेंगे।यदि ऐसा है तो क्यों है? क्या इसमें सुधार की सम्भावना है या नहीं, आदि आदि।इसे critical reading कहते हैं। इस आधार पर हम किसी सर्वमान्य या सर्वस्वीकार्य तथ्य में तर्कपूर्ण संशोधन,आलोचना या समीक्षा करने में भी समर्थ हो जाते हैं और यही तो उच्चस्तरीय परीक्षा में प्रश्न का उद्देश्य होता है! जहाँ छात्रों से अपने शब्दों में आलोचना या समीक्षा करने को कहा जाता है और वह गाइड या दूसरे के नोट्स को रटकर कुछ लिख देता है और अपने सफलता की सम्भावना को स्वयं क्षीण कर लेता है।
critical reading से एक उच्च कोटि की विचारणक्षमता का प्रादुर्भाव होने लगता है जिसे Higher Order Thinking Skill(HOTS) कहते हैं।
अतः विद्यार्थी को अपने में critical reading की आदत डालनी चाहिये।
हांलाकि प्रस्तुत लेखन थोड़ा उपदेशात्मक जरुर हो गया है किन्तु इस प्रकार से लिखने पढ़ने की योग्यता यदि अभ्यास से अर्जित कर ली जाय तो सफलता उसी प्रकार निकल कर सामने आती है जैसे हाइड्रोजन एवं आक्सीजन के अणुओं का आपस में संयोग जल की उपलब्धि करा जाता है। अब लिखने और पढ़ने में कौन हाइड्रोजन और कौन आक्सीजन के समतुल्य है,इसका निर्णय हम पाठक के उपर छोड़ देते हैं। लेकिन इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि चाहे competition कितना हीं tough क्यों न हो सफलता प्राप्ति हेतु हमें इन दोनों (reading&writing) को maximize या optimize करना होगा।
राजीव रंजन प्रभाकर.
०६.१०.२०१९.
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