आंतरिक खुशी के लिए
देखा जाय तो हम कोई भी कार्य सुख की प्राप्ति अथवा दुःख की निवृत्ति के लिए हीं करते हैं। यह अलग बात है कि उससे सुख के बदले प्रायः दुःख हीं मिलता हो, परन्तु करते हैं अपने स्वार्थसिद्धि को केन्द्र में रख कर हीं। यहीं अगर हमारा उद्देश्य आंतरिक खुशी की प्राप्ति हो तो हमारा सम्पूर्ण आचरण और कार्यशैली हीं कुछ और हो जाती है।
हमें मालूम ही नहीं है और यदि मालूम है तो इसका अमल ही नहीं है कि जिस वस्तुजन्य या देहजन्य सुख की प्राप्ति के लिए हम छल, कपट, स्वांग,बलात्कार, हिंसा, हत्या तक जैसे घोरकर्म में लिप्त हैं, वह अंततः हमें कहां ले जा रहा है अथवा ले आया है। जिस दिन हमे इसका यथार्थ में अहसास होता है तब तक देर हो चुका होता है।
इतना जान लीजिए हम सभी इस संसार में अपने कर्मों के फल भोगने के लिए हीं आये हैं। जो किये हैं वह भोग रहे हैं एवं जो कर रहे हैं उसे भी भोगना हीं होगा , चाहे इसी जन्म में या फिर अगले जन्म में। कर्म की खेती कभी खाली नहीं जाती।
जानते हैं सुख के बदले दुःख क्यों मिलता है?इसका कारण है हमारा अज्ञान।हम प्रायः यह देखने में असमर्थ होते हैं कि दुःख सुखरुपी फल के बीजस्वरूप उस सुख में हीं स्थित होते हैं।जब हमारी बुद्धि और विवेक का कामना और आसक्ति द्वारा अपहरण हो जाता है तो हम उस सुखरुपी फल को खाने में इतने मगन रहते हैं कि उस दुःखस्वरुप बीज को तुच्छ समझ कर अपने चारो ओर इर्दगिर्द बिखेरते जाते हैं। कालान्तर में यही दुःखरूप बीज देहरुपी खेत में सुख से उत्पन्न बुरी आदतों से सिंचित होकर विशाल दुःखवृक्ष में परिणत हो जाता है जिसकी जड़ें हमारे देह को पीड़ित और अंततः दीन बना कर नष्ट कर देती हैं।
अतः हम सुखी होने के लिये आंतरिक खुशी से क्रमशः दूर होते जा रहे हैं।
आंतरिक खुशी के लिए क्या करना चाहिए?
आंतरिक खुशी का निवास मानसिक शांति में है और मानसिक शांति की पहली शर्त है-निषिद्ध कर्मों का सर्वथा त्याग।
चोरी, व्यभिचार, झूठ, कपट, छल, जबरदस्ती, हिंसा, अभक्ष्यभोजन, प्रमादादि शास्त्रनिषिद्ध नीच कर्म करने से तत्काल भौतिकरूप से जो सुख मालूम पड़ता हो,किंतु चित्त की शांति का तुरंत लोप हो जाता है। उद्विग्नता, अशांति और दण्ड का भय सदैव मन को चंचल किये रहता है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि आंतरिक खुशी की कल्पना भी ऐसे चित्त में नहीं की जा सकती। अतः आंतरिक खुशी की चाहना रखने वालों को निषिद्ध कर्मों से दूर रहने का अभ्यास बढ़ाना चाहिये क्योंकि कदम कदम पर प्रलोभन आपको गिराने के लिए मानो बैठा है।
भोगभुग्न शरीर और त्यागतप्त शरीर में जमीन आसमान का अंतर है। भोगाकर्षण और भोगपरायणता से शरीर निस्तेज और दीन होता चला जाता है और अंतशेष के रूप में दुःख और विषाद के अतिरिक्त कुछ भी नहीं मिलता। व्यक्ति अंत में ठगा महसूस करता है। वह सोचने के लिए मजबूर हो जाता है कि क्या इस दिन के लिये उसने नाना प्रपंचों का आश्रय ले फलां-फलां काम किया!
निषिद्ध कर्मों के त्याग के अनन्तर जो करनीय है वह है भाव परिवर्तन
भाव परिवर्तन आंतरिक खुशी का प्रधान कारक है।
आंतरिक खुशी के लिए अलग से कोई विशेष कार्य करने की आवश्यकता हीं नहीं है;सिवा इसके कि जो कार्य हमारी जीविका का साधनस्वरुप उपस्थित हो, को सेवा भाव से करने की आदत डाली जाय। यदि सेवा भाव का उदय सहजता से उत्पन्न न हो रहा हो तो इतना सुनिश्चित किया जाय कि कार्य जो हम कर रहे हैं उसी को और मनोयोगपूर्वक करें। ऐसा करते रहने से कार्यकुशलता में वृद्धि तो होती ही है मन भी उत्फुल्ल एवं खुश होता चला जाता है। समय 'काटने' की आवश्यकता नहीं होती है। कार्य और समय हीं सहचर बन जाता है। जिस व्यक्ति का समय सहचर बन जाय उसका कहना हीं क्या! ध्यान रहे कि हम जो कर रहे होते हैं वह धर्मविरूद्ध, शास्त्रविरूद्ध एवं लोकविक्रुष्ट न हो।
सुखी होने की कामना का त्याग आवश्यक है।
मनुष्य प्रारब्धवश प्राप्त सुख और दुःख को उसी प्रकार सहन करे जिस तरह से वह सर्दी और गर्मी को सहता है। क्या सर्दी या गर्मी मनुष्य के अधीन है? नहीं न! उसी प्रकार सुख और दुःख भी मनुष्य के अधीन नहीं है। जो उसके अधीन है वह है उसका कर्म जिसे पर्याप्त सावधानी से करने की आवश्यकता होती है और इसी में हम विभिन्न रूप से चूकते हैं, कभी कर्म फल के प्रति आसक्तिभाव के चलते तो कभी अपने कर्म को फलोन्मुखी बनाने के चक्कर में कर्त्तव्यकर्म में हीं त्रुटि बरत कर तो कभी कर्मविमुख होकर।
तभी तो श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।। (२/४७)
(तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल का हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो)
इसलिए जो हमारे अधिकार में है उसी पर ध्यान केन्द्रित कर जीवन को वास्तविक रूप से आनन्दमय बनाने का उद्योग किया जाय और जीवन आनन्दमय तभी होगा जब हमारे जीवन में संतोष आयेगा और संतोष तभी आयेगा जब भगवान् पर विश्वास दृढ़ होगा। जैसे-जैसे यह विश्वास दृढ़ होगा विषयानुराग में कमी आएगी, चित्त की उद्विग्नता समाप्त होने लगेगी मन स्वस्थ रहने रहेगा और जिसका तन और मन दोनों स्वस्थ हो जाय तो आंतरिक खुशी आपहीं बताइए इसके अतिरिक्त भी कुछ है?
राजीव रंजन प्रभाकर.
२९.१०.२०१९.
हमें मालूम ही नहीं है और यदि मालूम है तो इसका अमल ही नहीं है कि जिस वस्तुजन्य या देहजन्य सुख की प्राप्ति के लिए हम छल, कपट, स्वांग,बलात्कार, हिंसा, हत्या तक जैसे घोरकर्म में लिप्त हैं, वह अंततः हमें कहां ले जा रहा है अथवा ले आया है। जिस दिन हमे इसका यथार्थ में अहसास होता है तब तक देर हो चुका होता है।
इतना जान लीजिए हम सभी इस संसार में अपने कर्मों के फल भोगने के लिए हीं आये हैं। जो किये हैं वह भोग रहे हैं एवं जो कर रहे हैं उसे भी भोगना हीं होगा , चाहे इसी जन्म में या फिर अगले जन्म में। कर्म की खेती कभी खाली नहीं जाती।
जानते हैं सुख के बदले दुःख क्यों मिलता है?इसका कारण है हमारा अज्ञान।हम प्रायः यह देखने में असमर्थ होते हैं कि दुःख सुखरुपी फल के बीजस्वरूप उस सुख में हीं स्थित होते हैं।जब हमारी बुद्धि और विवेक का कामना और आसक्ति द्वारा अपहरण हो जाता है तो हम उस सुखरुपी फल को खाने में इतने मगन रहते हैं कि उस दुःखस्वरुप बीज को तुच्छ समझ कर अपने चारो ओर इर्दगिर्द बिखेरते जाते हैं। कालान्तर में यही दुःखरूप बीज देहरुपी खेत में सुख से उत्पन्न बुरी आदतों से सिंचित होकर विशाल दुःखवृक्ष में परिणत हो जाता है जिसकी जड़ें हमारे देह को पीड़ित और अंततः दीन बना कर नष्ट कर देती हैं।
अतः हम सुखी होने के लिये आंतरिक खुशी से क्रमशः दूर होते जा रहे हैं।
आंतरिक खुशी के लिए क्या करना चाहिए?
आंतरिक खुशी का निवास मानसिक शांति में है और मानसिक शांति की पहली शर्त है-निषिद्ध कर्मों का सर्वथा त्याग।
चोरी, व्यभिचार, झूठ, कपट, छल, जबरदस्ती, हिंसा, अभक्ष्यभोजन, प्रमादादि शास्त्रनिषिद्ध नीच कर्म करने से तत्काल भौतिकरूप से जो सुख मालूम पड़ता हो,किंतु चित्त की शांति का तुरंत लोप हो जाता है। उद्विग्नता, अशांति और दण्ड का भय सदैव मन को चंचल किये रहता है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि आंतरिक खुशी की कल्पना भी ऐसे चित्त में नहीं की जा सकती। अतः आंतरिक खुशी की चाहना रखने वालों को निषिद्ध कर्मों से दूर रहने का अभ्यास बढ़ाना चाहिये क्योंकि कदम कदम पर प्रलोभन आपको गिराने के लिए मानो बैठा है।
भोगभुग्न शरीर और त्यागतप्त शरीर में जमीन आसमान का अंतर है। भोगाकर्षण और भोगपरायणता से शरीर निस्तेज और दीन होता चला जाता है और अंतशेष के रूप में दुःख और विषाद के अतिरिक्त कुछ भी नहीं मिलता। व्यक्ति अंत में ठगा महसूस करता है। वह सोचने के लिए मजबूर हो जाता है कि क्या इस दिन के लिये उसने नाना प्रपंचों का आश्रय ले फलां-फलां काम किया!
निषिद्ध कर्मों के त्याग के अनन्तर जो करनीय है वह है भाव परिवर्तन
भाव परिवर्तन आंतरिक खुशी का प्रधान कारक है।
आंतरिक खुशी के लिए अलग से कोई विशेष कार्य करने की आवश्यकता हीं नहीं है;सिवा इसके कि जो कार्य हमारी जीविका का साधनस्वरुप उपस्थित हो, को सेवा भाव से करने की आदत डाली जाय। यदि सेवा भाव का उदय सहजता से उत्पन्न न हो रहा हो तो इतना सुनिश्चित किया जाय कि कार्य जो हम कर रहे हैं उसी को और मनोयोगपूर्वक करें। ऐसा करते रहने से कार्यकुशलता में वृद्धि तो होती ही है मन भी उत्फुल्ल एवं खुश होता चला जाता है। समय 'काटने' की आवश्यकता नहीं होती है। कार्य और समय हीं सहचर बन जाता है। जिस व्यक्ति का समय सहचर बन जाय उसका कहना हीं क्या! ध्यान रहे कि हम जो कर रहे होते हैं वह धर्मविरूद्ध, शास्त्रविरूद्ध एवं लोकविक्रुष्ट न हो।
सुखी होने की कामना का त्याग आवश्यक है।
मनुष्य प्रारब्धवश प्राप्त सुख और दुःख को उसी प्रकार सहन करे जिस तरह से वह सर्दी और गर्मी को सहता है। क्या सर्दी या गर्मी मनुष्य के अधीन है? नहीं न! उसी प्रकार सुख और दुःख भी मनुष्य के अधीन नहीं है। जो उसके अधीन है वह है उसका कर्म जिसे पर्याप्त सावधानी से करने की आवश्यकता होती है और इसी में हम विभिन्न रूप से चूकते हैं, कभी कर्म फल के प्रति आसक्तिभाव के चलते तो कभी अपने कर्म को फलोन्मुखी बनाने के चक्कर में कर्त्तव्यकर्म में हीं त्रुटि बरत कर तो कभी कर्मविमुख होकर।
तभी तो श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।। (२/४७)
(तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल का हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो)
इसलिए जो हमारे अधिकार में है उसी पर ध्यान केन्द्रित कर जीवन को वास्तविक रूप से आनन्दमय बनाने का उद्योग किया जाय और जीवन आनन्दमय तभी होगा जब हमारे जीवन में संतोष आयेगा और संतोष तभी आयेगा जब भगवान् पर विश्वास दृढ़ होगा। जैसे-जैसे यह विश्वास दृढ़ होगा विषयानुराग में कमी आएगी, चित्त की उद्विग्नता समाप्त होने लगेगी मन स्वस्थ रहने रहेगा और जिसका तन और मन दोनों स्वस्थ हो जाय तो आंतरिक खुशी आपहीं बताइए इसके अतिरिक्त भी कुछ है?
राजीव रंजन प्रभाकर.
२९.१०.२०१९.
Comments