एक व्याध और व्याघ्र की कथा.

समस्त जीव समुदाय में मनुष्य का स्थान सर्वोपरि है। जितना मष्तिष्क किसी मनुष्य का विकसित है उतना कदाचित् अन्य जीवों का नहीं होता।उचित कहा गया है कि वह मनुष्य का विवेक है जो उसे पशु से श्रेष्ठ बना देता है, वरना मनुष्य भी देखा जाय तो वास्तव में एक पशु हीं है।
लेकिन यही मनुष्य जब अपने विवेक का स्वार्थ से सौदा कर ले तो उसका वह आचरण पशु को भी लज्जित कर देता है।वह जिससे आश्रय पाता है अवसर पाने पर उसे भी क्षति पहुंचाने से नहीं चूकता। हम सभी को इसका किसी न किसी रूप में अनुभव हो तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं कही जा सकती।
यदि सोचिये तो क्या यह एक सर्वविदित तथ्य नहीं है कि जिस प्रकृति ने हमें शरण दे रखा है उसी को उजाड़ने का हमने बीड़ा उठा लिया है। जो जल, जंगल, पर्वत, जमीन एवं समीर हमारा प्राणपोषण करते हैं उसी को आज हम अपने स्वार्थसिद्धि के लिए नष्ट करने पर तुल गये हैं? ऐसा विकर्म-अपकर्म-कुकर्म केवल और केवल विवेकपति मनुष्य हीं कर सकता है।क्या कोई ताकतवर से ताकतवर पशु भी कभी ऐसा करता है? बल्कि कहा जाय तो एक हिंस्र जानवर भी वैसा नहीं करता जो कि एक स्वार्थांध विवेकशून्य व्यक्ति कर बैठता है।खैर, उपदेश देना इस लेखन का अभीष्ट नहीं है बल्कि यह कहने की चेष्टा करना है कि अक्सर हम जब क्रोध, आवेग या आवेश में किसी व्यक्ति की तुलना पशु से करते हैं तो प्रायः ये भूल जाते हैं कि एक जानवर भी आदमी से ज्यादा वफादार हो सकता है। यदि पशु का पशुवत आचरण उसका नैसर्गिक गुण है तो मनुष्य की मनुष्यता भी तो उसका नैसर्गिक गुण होना चाहिए।
क्या ऐसा है?
एक कथा के माध्यम से इसे जानने का प्रयत्न करते हैं।पहले की बात है।
घोर जंगल में एक व्याध आखेट हेतु सावधानीपूर्वक अपने एक एक कदम को आगे बढ़ा रहा था। आंखे चौकन्ना रख वह अभी आगे मुश्किल से अभी दो कदम बढ़ हीं पाया था कि उसने देखा दूर से दो चमकीली आंखें उसे गौर से निहार रही थी। अनुभवी व्याध को यह समझते तनिक भी विलम्ब नहीं हुआ कि वे चमकीली आंखें एक हिंसक व्याघ्र की है जो उसे दूर से हीं छलांग लगा कर उस पर तुरंत आक्रमण करने वाला है। बहेलिया तुरत उछलकर एक पेड़ पर चढ़ गया और दूसरे हीं पल उसने पाया कि बाघ पेड़ के पास आ चुका था। उसने ईश्वर को मन हीं मन धन्यवाद दिया कि आज उसकी जान बच गई।
किन्तु यह क्या! उसने देखा कि जिस पेड़ पर चढ़ कर उसने अपनी जान बचाई उसी की एक डाली पर एक रीछ सो रहा है। रीछ देख व्याध भय से कांप उठा।
आश्चर्य! रीछ के लिए बहेलिये का उस पेड़ पर चढ़ कर अपनी जान बचाने का प्रयत्न करना कोई विशेष महत्व की बात नहीं थी। व्याध को देखकर भी वह निर्विकार उसी तरह सोता रहा।
पेड़ के नीचे खड़े बाघ ने उस रीछपति से कहा- 'हम और तुम दोनों हीं वन के जीव हैं। यह व्याध हम दोनों का ही शत्रु है, तुम उस व्याध को नीचे गिरा दो, वह हमारे उदर में समाकर अपनी सारी व्याधवृत्ति हीं भूल जायेगा। मुझे यहां पहुंचने में यदि कुछ विलम्ब नहीं हुआ होता तो ये व्याध अभी तक जीवित नहीं रहता।'
रीछ ने उत्तर दिया-' यह व्याध मेरे निवासस्थान पर आकर एक प्रकार से मेरी शरण ले चुका है, इसलिये मैं इसे नीचे नहीं गिराऊंगा। यदि गिरा दूं तो धर्म की हानि होगी।'ऐसा कहकर रीछ फिर सो गया।
तब बाघ ने व्याध से कहा-'देखो, इस सोये हुए रीछ को नीचे गिरा दो। मैं तुम्हारी रक्षा करूंगा।'
उसके ऐसा कहने पर व्याध ने उस रीछ को धक्का दे दिया;परन्तु रीछ अभ्यासवश दूसरी डाल पकड़ कर गिरने से बच गया।तब बाघ ने रीछ से कहा -' यह व्याध तुमको गिराना चाहता था;अतः यह अपराधी है।अब इसको तुम बिना देरी किये नीचे धकेल दो।यह इसी योग्य है।'
बाघ के इस प्रकार बारम्बार उकसाने पर भी रीछ ने उस व्याध को नहीं गिराया और 'न परः पापमादत्ते' इस श्लोक का गान करके उसे मुंहतोड़ उत्तर दे दिया।
यह प्राचीन कथा है जो रामायणभूषण-टीका में वर्णित है।
कहने का अभिप्राय यही है कि देखिये कहां गयी मनुष्य की मनुष्यता! दूसरे के एहसान को याद रखना तो दूर ऐसे परोपकार को मूर्खता  मानने लगे हैं। क्या हमारी प्रकृति अब उपकार का बदला अपकार करने की नहीं हो गयी है? जो शरण देता है उसी का शिरच्छेदन करने से हम बाज नहीं आते।
श्रेष्ठ पुरुष दूसरे की बुराई करनेवाले पापियों के पापकर्म को नहीं अपनाते हैं। बदले में उनके साथ स्वयं भी पापपूर्ण बर्ताव नहीं करना चाहते हैं,अतः अपनी प्रतिज्ञा और सदाचार की रक्षा करनी हीं चाहिये।साधुपुरूष अपने उत्तम चरित्र से हीं विभूषित होते हैं। सदाचार ही उनका आभूषण है।
रामायण के एक श्लोक-
न परः पापमादत्ते परेषां पापकर्मणाम।
समयो रक्षितव्यस्तु सन्तश्चारित्रभूषणाः।।
का अर्थ यही है।
                           रामायण, युद्धकांड (११३/४४).
राजीव रंजन प्रभाकर.
०१.१०.२०१९.

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