काल का सूक्ष्म से सूक्ष्मतम एवं विराट से विराटतम इकाई का दिग्दर्शन.
हमारे शास्त्रों में काल को नित्य माना गया है और जो नित्य है, वह भगवन्मय है। नित्य किसे कहेंगे? वह जिसके आदि और अन्त का पता नहीं तथा जो हमारी पकड़ से बाहर हो वही नित्य है।नित्य वही है जिसका न सृजन हो सकता है न हीं विनाश।अंग्रेजी में इसे हीं eternal कहा गया है, अर्थात जो था, है और रहेगा। संसार था, है और हमारे बाद भी रहेगा, इस दृष्टि से स्थूलरूप से यह भी नित्य प्रतीत होता है किन्तु ऐसा है नहीं ;यह भी काल के हीं अधीन है और कदाचित् यदि हम अपने चारों ओर हो रहे सृजन और विनाश को तात्विक रूप से देखने में समर्थ हो जायें तो यह भी दृढ़तापूर्वक कहा जा सकता है कि यह अनेकभेदविधसंकुलितसंसार भी काल का हीं कार्यरूप है जो सृष्टि, स्थिति और लयस्वरुप चक्रक्रम में संचालित है। ये सम्पूर्ण दृश्यवर्ग काल के अधीन उत्पन्न और विलीन होने की घटनामात्र है।
काल समय तथा मृत्यु दोनों का वाचक है। श्रीमद्भगवद्गीता में अर्जुन ने जब भगवान् का विराटरूप का दर्शन किया तो उन्होंने व्याकुल तथा भयाकुल भाव से भगवान् से पूछ हीं दिया-हे मधुसूदन! आप इस उग्ररूप में हैं कौन तथा आपकी प्रवृत्ति क्या है,आप चाहते क्या हैं?आदि।
और देखिये भगवान् ने भी बिना किसी लाग लपेट के अर्जुन को बता हीं दिया।
भगवान् कहते हैं - "अर्जुन! मैं काल हूँ तथा इस समय मेरी प्रवृत्ति और कुछ नहीं बल्कि लोकक्षय में है। सभी योद्धा जो युद्ध में तुम्हारे विरूद्ध हैं, का संहार ध्रुव है; कोई नहीं बचेगा।"
कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो
लोकान्समार्तुमिह प्रवृत्तः।
ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति
सर्वेयेऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः।।
(श्रीमद्भगवद्गीता ११/३२).
काल का मृत्युस्वरूप उपरोक्त वर्णन जो इस श्लोक से स्पष्ट है, से यह निष्कर्ष निकलता है कि काल ईश्वर का हीं एक विग्रह है।संसार में तथा उसके परे भी यदि कुछ व्यापता है तो वह काल हीं है।अध्यात्मरामायण में इसे नारायण का ज्येष्ठपुत्र माना गया है।
शास्त्रों में समयस्वरूप काल की गणना दो स्तरों पर हुई है।
सूक्ष्मतम स्तर पर
इस दृष्टि से समय की सबसे न्यूनतम इकाई 'त्रुटि' है। तीन 'त्रसरेणु' को पार करने में सूर्य के प्रकाश को जो समय लगता है उसे 'त्रुटि' कहा गया है।परमाणु अव्यक्तस्वरूप काल भगवान् का परमसूक्ष्मतम अंश है। दो 'परमाणुओं' के संयोग से 'अणु'का निर्माण होता है और तीन अणुओं का संयोग हीं त्रसरेणु है। किसी झरोखे से आने वाली सूर्य की रोशनी में जो उड़ता हुआ सूक्ष्मकण दृष्टिगोचर होता है वही 'त्रसरेणु' का स्थूलरूप है। सौ त्रुटियों के समतुल्य समय का परिमाण को एक 'वेध' कहा गया है। तीन वेध का एक 'लव' होता है तथा लव की ऐसी तीन इकाई मिल कर 'निमेष' कहलाती है। एक 'क्षण' तीन निमेष के बराबर है। पांच क्षण की एक 'काष्ठा' होती है तथा पन्द्रह काष्ठा का एक 'लघु' तथा पन्द्रह लघु की एक 'नाडिका(दण्ड)' होती है।
एक नाडिका से काल के जितने परिमाण का बोध होता है उसे इस प्रकार समझाया गया है। छः पल तांबे के पात्र जिसमें एक प्रस्थ जल आ सके, में यदि चार अंगुल की चार माशे की स्वर्णनिर्मित सलाई से पात्र के पेंदे में छिद्र कर पात्र को जल में रख दिया जाय तो जितना समय में उक्त छिद्र से जलपात्र में एक प्रस्थ जल समाकर वह पात्र जल में पूर्णरुप से डूब जाय, समय के उसी परिमाण को नाडिका कहते हैं।
इसके बाद की समय की छोटी इकाइयों से हम अपेक्षाकृत अधिक अवगत हैं। मैं यहाँ समय की अंग्रेजी इकाई सेकेंड, मिनट तथा घंटा की बात नहीं कर रहा हूँ।
दो नाडिका का एक 'मुहूर्त'होता है। छः या सात नाडिका के समतुल्य समय एक 'पहर' या 'याम' कहलाता है। पृथ्वी पर चार पहर का एक दिन तथा चार पहर का एक रात होता है। 'अष्टयाम' जिसमें हम दिन-रात पर्यन्त भगवद्भजन का अनुष्ठान करते हैं, वह 'अष्टयाम' आठो पहर या याम अर्थात समय का हीं बोधक है।
भारतीय परम्परा में 'सप्ताह' को समय की इकाई के रूप में मान्यता नहीं है। समय की यह विदेशज इकाई है।
दिन अर्थात 'दिवस' के बाद भारतीय परम्परा में काल की अगली इकाई जो है वह 'पक्ष' है जो पन्द्रह-पन्द्रह दिनों के लिए भेद से कृष्णपक्ष तथा शुक्लपक्ष कहलाता है। दो पक्षों का एक 'मास' तथा दो मास की एक ऋतु होती है। छः मास का एक अयन होता है जो भेद से दो यथा उत्तरायन एवं दक्षिणायन कहलाते हैं। दो अयनों की अवधि को हीं मनुष्यलोक में वत्सर, सम्वत्सर, इडावत्सर या वर्ष कहा गया है।
मनुष्य की परमायु एक सौ वर्ष की मानी गयी है।
काल की वृहत से वृहत्तम अथवा विराट से विराटतम स्तर पर गणना.
मनुष्यलोक के एक मास की अवधि पितरों के लिये एक दिन और एक रात के बराबर है। इसी प्रकार मनुष्यलोक में जो एक वर्ष होता है वह देवताओं के लिये एक दिन और एक रात है जिसे 'दिव्यदिवस' कहा जाता है। ऐसे ३६० दिव्यदिवस की अवधि देवताओं के निमित्त एक 'दिव्यवर्ष' कहलाता है।
सैकड़ों दिव्यवर्ष से परिमित कालखण्ड को युग कहा गया है। युग भेद से चार हैं जिसे सतयुग, त्रेता, द्वापर तथा कलियुग से जाना जाता है। मान्यता है कि सतयुग में धर्म अपने चारों चरण में विद्यमान रहता है जिसका एक - एक चरण क्रमशः क्षीण होकर त्रेता में तीन, द्वापर में दो और कलियुग में अंततः एक शेष रह जाता है। शास्त्रानुसार कलियुग की अवधि १२०० दिव्यवर्ष की होती है किन्तु धर्म के बढ़ते चरणों के अनुसार द्वापर, त्रेता तथा सतयुग में क्रमशः २४००, ३६०० तथा ४८०० दिव्यवर्ष होते हैं।
गणना से चारों युगों यथा सतयुग, त्रेता, द्वापर एवं कलियुग जो एकसाथ चतुर्युगी कहा जाता है, में गणना से १२००० दिव्यवर्ष होते हैं।
महर्लोक से ब्रह्मलोकपर्यन्त एक सहस्त्र चतुर्युगी का एक दिन तथा एक सहस्त्र चतुर्युगी की एक रात्रि होती है। इसी को रात्रि को ब्रह्मरात्रि कहते हैं जिसमें सर्वलोकपितामह ब्रह्माजी शयन करते हैं।उस रात्रि का अंत होने पर इस लोक का कल्प आरम्भ होता है;उसका क्रम जब तक ब्रम्हाजी का दिन रहता है तब तक चलता रहता है।
इस प्रकार ब्रह्माजी का एक दिन हीं कल्प है। उस एक कल्प में चौदह मनु हो जाते हैं। प्रत्येक मनु इकहत्तर चतुर्युगी से कुछ अधिक काल तक अपना अधिकार भोगता है। एक मनु का भोगकाल हीं मन्वन्तर कहलाता है। प्रत्येक मन्वन्तर में भिन्न-भिन्न मनुवंशी राजालोग, सप्तर्षि, देवगण, इन्द्र और उनके अनुयायी गन्धर्वादि साथ-साथ अपना अधिकार भोगते हैं।
यह ब्रह्माजी की प्रतिदिन की सृष्टि है जिसमें तीनों लोकों की रचना होती है।
जैसा कि उपर इंगित किया गया है ब्रह्मरात्रि जिसमें सर्वलोकपितामह शयन करते हैं वही प्रलयरात्रि है। इस काल में हीं सर्वलोकपितामह सृष्टिरचनारूप पौरूष को स्थगित करके जब निश्चेष्टभाव से शयन करते हैं उस समय सारा विश्व उन्हीं में लीन हो जाता है। सूर्य - चन्द्रमादि से रहित वह रात्रि प्रलयरात्रि है जिस अवधि में तीनों लोक ब्रह्माजी के शरीर में छिप जाते हैं किन्तु शेषजी के मुख से निकली हुई अग्निरूप भगवान् की शक्ति से तीनों लोक जलने लगते हैं और उस ताप से व्याकुल होकर भृगु आदि मुनीश्वरगण महर्लोक से जनलोक को चले जाते हैं। इतने में ही सातों समुद्र प्रलयकाल के प्रचण्ड पवन से उमड़कर अपने उत्ताल तरंगों से त्रिलोकी को डुबो देते हैं। तब उस जल के भीतर भगवान् शेषशायी योगनिद्रा से नेत्र मूंदे शयन करते हैं तथा जनलोकनिवासी मुनिगण उनकी स्तुति किया करते हैं।
इस प्रकार काल की गति से एक-एक सहस्त्र चतुर्युग के रूप में प्रतीत होनेवाले दिन-रात के हेरफेर से सौ वर्ष की ब्रह्माजी की परमायु भी पूरी हो जाती है।
ब्रह्माजी की आयु के आधे भाग को परार्ध कहते हैं। अब तक पहला परार्ध बीत चुका है, दूसरा चल रहा है। पहले परार्ध का आरम्भ ब्राह्म नामक कल्प से हुआ जिसमें ब्रह्माजी की उत्पत्ति हुई थी।
वर्तमान द्वितीय परार्ध में जो कल्प चल रहा है वह इस परार्ध के आरम्भ का हीं कल्प है। यह श्वेतवाराह कल्प के नाम से विख्यात है तथा यह कल्पखंड वैवस्वत मनु द्वारा शासित रहने के कारण वैवस्वत मन्वन्तर के अंतर्गत है।
यह दो परार्ध का काल अव्यक्त, अनन्त, अनादि, विश्वात्मा श्रीहरि का एक निमेष माना जाता है।
यह परमाणु से लेकर द्विपरार्धपर्यंत फैला हुआ काल सर्वसमर्थ होने पर भी सर्वात्मा श्रीहरि पर किसी प्रकार की प्रभुता नहीं रखता।
हम जब कोई शुभसंकल्प के अधीन कोई कार्य करते हैं तो अपने स्थान, नाम, गोत्रादि के साथ संकल्प लेते हैं। काल की इन्हीं उपरोक्त विशिष्टियों का उल्लेख उस संकल्प में किया जाता है जो शास्त्रविहित है, यथा-
ॐ विष्णवे नमः,ॐ विष्णवे नमः,ॐ विष्णवे नमः,। ॐ अद्य ब्रह्मणोऽह्णि द्वितीय परार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरेऽष्टाविंशतितमें कलियुग कलिप्रथम चरणे भूर्लोके जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे - - - - क्षेत्र - - - - नगरे - - - - नाम संवत्सरे - - - - मासे - - - - (शुक्ल/कृष्ण) पक्षे - - - - तिथौ - - - - वासरे - - - शर्मा/वर्मा/गुप्तोऽहम प्रातः(मध्याह्ने, सायं) सर्वकर्मसु शुद्ध्अयर्थं श्रीभगवत्प्रीत्यर्थं च अमुक कर्म करिष्ये।
काल का यह विग्रह वास्तव में विलक्षण है तथा जिज्ञासुओं के लिये इसकी जानकारी रोचक और लाभप्रद हो सकती है;इसी धारणा से कालविषयक उपरोक्त चर्चा विनम्रतापूर्वक निवेदित है।
सर्वसमर्थ श्रीहरि सभी का कल्याण करें।
आलेखस्त्रोत: (श्रीमद्भगवद्गीता एवं श्रीमद्भागवत)
राजीव रंजन प्रभाकर.
१४.१०.२०१९.
काल समय तथा मृत्यु दोनों का वाचक है। श्रीमद्भगवद्गीता में अर्जुन ने जब भगवान् का विराटरूप का दर्शन किया तो उन्होंने व्याकुल तथा भयाकुल भाव से भगवान् से पूछ हीं दिया-हे मधुसूदन! आप इस उग्ररूप में हैं कौन तथा आपकी प्रवृत्ति क्या है,आप चाहते क्या हैं?आदि।
और देखिये भगवान् ने भी बिना किसी लाग लपेट के अर्जुन को बता हीं दिया।
भगवान् कहते हैं - "अर्जुन! मैं काल हूँ तथा इस समय मेरी प्रवृत्ति और कुछ नहीं बल्कि लोकक्षय में है। सभी योद्धा जो युद्ध में तुम्हारे विरूद्ध हैं, का संहार ध्रुव है; कोई नहीं बचेगा।"
कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो
लोकान्समार्तुमिह प्रवृत्तः।
ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति
सर्वेयेऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः।।
(श्रीमद्भगवद्गीता ११/३२).
काल का मृत्युस्वरूप उपरोक्त वर्णन जो इस श्लोक से स्पष्ट है, से यह निष्कर्ष निकलता है कि काल ईश्वर का हीं एक विग्रह है।संसार में तथा उसके परे भी यदि कुछ व्यापता है तो वह काल हीं है।अध्यात्मरामायण में इसे नारायण का ज्येष्ठपुत्र माना गया है।
शास्त्रों में समयस्वरूप काल की गणना दो स्तरों पर हुई है।
सूक्ष्मतम स्तर पर
इस दृष्टि से समय की सबसे न्यूनतम इकाई 'त्रुटि' है। तीन 'त्रसरेणु' को पार करने में सूर्य के प्रकाश को जो समय लगता है उसे 'त्रुटि' कहा गया है।परमाणु अव्यक्तस्वरूप काल भगवान् का परमसूक्ष्मतम अंश है। दो 'परमाणुओं' के संयोग से 'अणु'का निर्माण होता है और तीन अणुओं का संयोग हीं त्रसरेणु है। किसी झरोखे से आने वाली सूर्य की रोशनी में जो उड़ता हुआ सूक्ष्मकण दृष्टिगोचर होता है वही 'त्रसरेणु' का स्थूलरूप है। सौ त्रुटियों के समतुल्य समय का परिमाण को एक 'वेध' कहा गया है। तीन वेध का एक 'लव' होता है तथा लव की ऐसी तीन इकाई मिल कर 'निमेष' कहलाती है। एक 'क्षण' तीन निमेष के बराबर है। पांच क्षण की एक 'काष्ठा' होती है तथा पन्द्रह काष्ठा का एक 'लघु' तथा पन्द्रह लघु की एक 'नाडिका(दण्ड)' होती है।
एक नाडिका से काल के जितने परिमाण का बोध होता है उसे इस प्रकार समझाया गया है। छः पल तांबे के पात्र जिसमें एक प्रस्थ जल आ सके, में यदि चार अंगुल की चार माशे की स्वर्णनिर्मित सलाई से पात्र के पेंदे में छिद्र कर पात्र को जल में रख दिया जाय तो जितना समय में उक्त छिद्र से जलपात्र में एक प्रस्थ जल समाकर वह पात्र जल में पूर्णरुप से डूब जाय, समय के उसी परिमाण को नाडिका कहते हैं।
इसके बाद की समय की छोटी इकाइयों से हम अपेक्षाकृत अधिक अवगत हैं। मैं यहाँ समय की अंग्रेजी इकाई सेकेंड, मिनट तथा घंटा की बात नहीं कर रहा हूँ।
दो नाडिका का एक 'मुहूर्त'होता है। छः या सात नाडिका के समतुल्य समय एक 'पहर' या 'याम' कहलाता है। पृथ्वी पर चार पहर का एक दिन तथा चार पहर का एक रात होता है। 'अष्टयाम' जिसमें हम दिन-रात पर्यन्त भगवद्भजन का अनुष्ठान करते हैं, वह 'अष्टयाम' आठो पहर या याम अर्थात समय का हीं बोधक है।
भारतीय परम्परा में 'सप्ताह' को समय की इकाई के रूप में मान्यता नहीं है। समय की यह विदेशज इकाई है।
दिन अर्थात 'दिवस' के बाद भारतीय परम्परा में काल की अगली इकाई जो है वह 'पक्ष' है जो पन्द्रह-पन्द्रह दिनों के लिए भेद से कृष्णपक्ष तथा शुक्लपक्ष कहलाता है। दो पक्षों का एक 'मास' तथा दो मास की एक ऋतु होती है। छः मास का एक अयन होता है जो भेद से दो यथा उत्तरायन एवं दक्षिणायन कहलाते हैं। दो अयनों की अवधि को हीं मनुष्यलोक में वत्सर, सम्वत्सर, इडावत्सर या वर्ष कहा गया है।
मनुष्य की परमायु एक सौ वर्ष की मानी गयी है।
काल की वृहत से वृहत्तम अथवा विराट से विराटतम स्तर पर गणना.
मनुष्यलोक के एक मास की अवधि पितरों के लिये एक दिन और एक रात के बराबर है। इसी प्रकार मनुष्यलोक में जो एक वर्ष होता है वह देवताओं के लिये एक दिन और एक रात है जिसे 'दिव्यदिवस' कहा जाता है। ऐसे ३६० दिव्यदिवस की अवधि देवताओं के निमित्त एक 'दिव्यवर्ष' कहलाता है।
सैकड़ों दिव्यवर्ष से परिमित कालखण्ड को युग कहा गया है। युग भेद से चार हैं जिसे सतयुग, त्रेता, द्वापर तथा कलियुग से जाना जाता है। मान्यता है कि सतयुग में धर्म अपने चारों चरण में विद्यमान रहता है जिसका एक - एक चरण क्रमशः क्षीण होकर त्रेता में तीन, द्वापर में दो और कलियुग में अंततः एक शेष रह जाता है। शास्त्रानुसार कलियुग की अवधि १२०० दिव्यवर्ष की होती है किन्तु धर्म के बढ़ते चरणों के अनुसार द्वापर, त्रेता तथा सतयुग में क्रमशः २४००, ३६०० तथा ४८०० दिव्यवर्ष होते हैं।
गणना से चारों युगों यथा सतयुग, त्रेता, द्वापर एवं कलियुग जो एकसाथ चतुर्युगी कहा जाता है, में गणना से १२००० दिव्यवर्ष होते हैं।
महर्लोक से ब्रह्मलोकपर्यन्त एक सहस्त्र चतुर्युगी का एक दिन तथा एक सहस्त्र चतुर्युगी की एक रात्रि होती है। इसी को रात्रि को ब्रह्मरात्रि कहते हैं जिसमें सर्वलोकपितामह ब्रह्माजी शयन करते हैं।उस रात्रि का अंत होने पर इस लोक का कल्प आरम्भ होता है;उसका क्रम जब तक ब्रम्हाजी का दिन रहता है तब तक चलता रहता है।
इस प्रकार ब्रह्माजी का एक दिन हीं कल्प है। उस एक कल्प में चौदह मनु हो जाते हैं। प्रत्येक मनु इकहत्तर चतुर्युगी से कुछ अधिक काल तक अपना अधिकार भोगता है। एक मनु का भोगकाल हीं मन्वन्तर कहलाता है। प्रत्येक मन्वन्तर में भिन्न-भिन्न मनुवंशी राजालोग, सप्तर्षि, देवगण, इन्द्र और उनके अनुयायी गन्धर्वादि साथ-साथ अपना अधिकार भोगते हैं।
यह ब्रह्माजी की प्रतिदिन की सृष्टि है जिसमें तीनों लोकों की रचना होती है।
जैसा कि उपर इंगित किया गया है ब्रह्मरात्रि जिसमें सर्वलोकपितामह शयन करते हैं वही प्रलयरात्रि है। इस काल में हीं सर्वलोकपितामह सृष्टिरचनारूप पौरूष को स्थगित करके जब निश्चेष्टभाव से शयन करते हैं उस समय सारा विश्व उन्हीं में लीन हो जाता है। सूर्य - चन्द्रमादि से रहित वह रात्रि प्रलयरात्रि है जिस अवधि में तीनों लोक ब्रह्माजी के शरीर में छिप जाते हैं किन्तु शेषजी के मुख से निकली हुई अग्निरूप भगवान् की शक्ति से तीनों लोक जलने लगते हैं और उस ताप से व्याकुल होकर भृगु आदि मुनीश्वरगण महर्लोक से जनलोक को चले जाते हैं। इतने में ही सातों समुद्र प्रलयकाल के प्रचण्ड पवन से उमड़कर अपने उत्ताल तरंगों से त्रिलोकी को डुबो देते हैं। तब उस जल के भीतर भगवान् शेषशायी योगनिद्रा से नेत्र मूंदे शयन करते हैं तथा जनलोकनिवासी मुनिगण उनकी स्तुति किया करते हैं।
इस प्रकार काल की गति से एक-एक सहस्त्र चतुर्युग के रूप में प्रतीत होनेवाले दिन-रात के हेरफेर से सौ वर्ष की ब्रह्माजी की परमायु भी पूरी हो जाती है।
ब्रह्माजी की आयु के आधे भाग को परार्ध कहते हैं। अब तक पहला परार्ध बीत चुका है, दूसरा चल रहा है। पहले परार्ध का आरम्भ ब्राह्म नामक कल्प से हुआ जिसमें ब्रह्माजी की उत्पत्ति हुई थी।
वर्तमान द्वितीय परार्ध में जो कल्प चल रहा है वह इस परार्ध के आरम्भ का हीं कल्प है। यह श्वेतवाराह कल्प के नाम से विख्यात है तथा यह कल्पखंड वैवस्वत मनु द्वारा शासित रहने के कारण वैवस्वत मन्वन्तर के अंतर्गत है।
यह दो परार्ध का काल अव्यक्त, अनन्त, अनादि, विश्वात्मा श्रीहरि का एक निमेष माना जाता है।
यह परमाणु से लेकर द्विपरार्धपर्यंत फैला हुआ काल सर्वसमर्थ होने पर भी सर्वात्मा श्रीहरि पर किसी प्रकार की प्रभुता नहीं रखता।
हम जब कोई शुभसंकल्प के अधीन कोई कार्य करते हैं तो अपने स्थान, नाम, गोत्रादि के साथ संकल्प लेते हैं। काल की इन्हीं उपरोक्त विशिष्टियों का उल्लेख उस संकल्प में किया जाता है जो शास्त्रविहित है, यथा-
ॐ विष्णवे नमः,ॐ विष्णवे नमः,ॐ विष्णवे नमः,। ॐ अद्य ब्रह्मणोऽह्णि द्वितीय परार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरेऽष्टाविंशतितमें कलियुग कलिप्रथम चरणे भूर्लोके जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे - - - - क्षेत्र - - - - नगरे - - - - नाम संवत्सरे - - - - मासे - - - - (शुक्ल/कृष्ण) पक्षे - - - - तिथौ - - - - वासरे - - - शर्मा/वर्मा/गुप्तोऽहम प्रातः(मध्याह्ने, सायं) सर्वकर्मसु शुद्ध्अयर्थं श्रीभगवत्प्रीत्यर्थं च अमुक कर्म करिष्ये।
काल का यह विग्रह वास्तव में विलक्षण है तथा जिज्ञासुओं के लिये इसकी जानकारी रोचक और लाभप्रद हो सकती है;इसी धारणा से कालविषयक उपरोक्त चर्चा विनम्रतापूर्वक निवेदित है।
सर्वसमर्थ श्रीहरि सभी का कल्याण करें।
आलेखस्त्रोत: (श्रीमद्भगवद्गीता एवं श्रीमद्भागवत)
राजीव रंजन प्रभाकर.
१४.१०.२०१९.
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