भारत का संविधान: अवसर एवं चुनौतियां.
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R.R.Prabhakar |
सरकार का यह कदम सराहनीय है। हममे से प्रत्येक का यह कर्तव्य है कि हम अपने शासन प्रणाली को जाने।इसके लिए संविधान एवं उसके विभिन्न पहलुओं की समझ को बढ़ाना न केवल नागरिक हित में है बल्कि राष्ट्रहित मे भी है।हमारा संविधान उस समय के योग्य से योग्यतम भारतीय प्रतिभा के संयुक्त एवं निष्ठापूर्ण प्रयास का प्रतिफल है।साथ हीं उनकी नीयत भी साफ थी।सभी का उद्देश्य एक था कि कैसे इस देश का पुनर्निर्माण हो जहां सभी को यह अहसास यथार्थ मे हो कि उसके हित की अनदेखी कर यह निर्माण नहीं हो रहा है। इसलिए संविधान इस निर्माण की रुपरेखा तय करने वाला एक दस्तावेज बना जो देशवासी को वह सबकुछ हथेली पर रखे आंवले की तरह साफ दिखाने मे सक्षम हो ताकि सभी निर्माण प्रक्रिया में बराबर के भागीदार बन सके।
भारत जैसे बहुलतावादी देश मे जहाँ भाषाई, क्षेत्रीय तथा धार्मिक विविधता मे एकता ही उसकी ताकत सदियो से रही है, के लिये एक सर्वसम्मत शासन प्रणाली को विकसित एवं क्रियान्वित करनेवाला दस्तावेज तैयार करना कहीं से सरल नहीं था। हमें यह भी देखना होगा कि जब यह शासन दस्तावेज तैयार हो रहा था उस समय देश मे सर्वत्र हाहाकार मचा हुआ था, अंग्रेज सम्पूर्ण देश को अराजक एवं बदहाल छोड़कर जाने को आमादा थे, समूचा उत्तर भारत साम्प्रदायिकता की भीषण ज्वाला मे जल रह था,नवसृजित सीमा के दोनों तरफ जानेवाली रेलगाड़ियों का गंतव्य पर पहुंचते पहुंचते मुर्दावाहन मे तब्दील हो जाना आम था।कोई दस लाख लोग मारे गए थे साहब! रजवाड़े मेढ़क की तरह उछलकर यत्र तत्र भागने को आतुर थे। सेना और पुलिस एक अजीब तरह की स्थिति से दो चार थे। यह सत्ता का हस्तांतरण/विभाजन कम सर्वनाश ज्यादा था। ऐसे में संविधान बनाने का उद्योग मानवीय सोच के सरलतम स्तर पर बेवक्त की शहनाई बजाना हम कह सकते हैं, किन्तु नहीं। इन परिस्थितियों ने जो चुनौती उपस्थित किया उसे अवसर के रूप मे बदल दिया गया।अपने संविधान को इस परिप्रेक्ष्य मे भी देखने,समझने और गुनने की जरूरत है।
अगर हमारे संविधान मे वे सारी खूबियां हैं जो हमें एक मजबूत राष्ट्र के रुप मे बने रहने का संबल एवं ताकत मुहैया कराने में अक्षय स्त्रोत का कार्य करती हैं तो उसकी जड़ हम उन्हीं परिस्थितियों मे तलाRश सकते हैं जिनका साक्षी हमारे संविधान निर्माताओं को व्यथापूर्ण ढ़ंग से होना पड़ा। विभाजन काल की वीभत्स एवं प्रतिकूल परिस्थितियों को संविधान निर्माताओं ने एक अवसर के रुप मे लेकर एक ऐसे संविधान का निर्माण कर दिया जिसमें भारत आज भी अपना भविष्य देखता है चाहे हम आज लाख कमियां इस दस्तावेज मे निकाल कर रख दें।
किन्तु ऐसा होते हुए भी यह कहना बचकाना ही होगा कि आज की परिस्थितियां अपेक्षाकृत कम चुनौतीपूर्ण है।
आज का भारत जिन समस्याओं से जूझ रहा है वे संविधान निर्माण काल मे नहीं रही थी। संविधान निर्माण काल मे भारत को राष्ट्र के रूप मे अपमानित महसूस कराने हेतु आतंकवाद, वैचारिकअनुदारवाद-आर्थिक उदारवाद,उग्रवाद, माओवाद जैसी विचारधारायें नहीं जन्म ले पायी थी। उदारीकरण ने आर्थिक विषमता को इतना वीभत्स बना दिया है कि इसकी चर्चा मे मात्र यह कहना पर्याप्त होगा कि देश आज देश कम बाजार ज्यादा है तथा नागरिक को उपभोक्ता कहना कहीं अधिक उपयुक्त होगा। आज व्यक्ति समाज को परास्त करने के लिए कदम कदम पर मौके की तलाश मे है। कानूनी फैसले सामाजिक मान्यताओं को सही गलत करार देने के लिये बेकरार हैं। सोशल मीडिया पब्लिक ओपिनियन को तय कर रहा है।
क्या इन समस्याओं का हल हम अपने संविधान मे खोज सकते हैं? इसका उत्तर बहुत कुछ हमारी संविधान मे आस्था और विश्वास पर निर्भर है। प्रायः ऐसा होते देखा जाता है कि यदि हम स्वयं को किसी कार्य मे असफल पाते हैं तो इसका कारण स्वयं से भिन्न व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति मे तलाशते हैं। हमारे संविधान को भी समय समय पर इन आलोचनाओं का शिकार होना पड़ता है। इस सम्बंध मे बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर का संविधान सभा मे अंग्रेजी मे दिया गया वह वक्तव्य विशेष रुप से उल्लेखनीय तथा मनन योग्य है जो निम्न है-
"I feel that the Constitution is workable, it is flexible and it is strong enough to hold the country together both in peace time and in wartime. Indeed , if I may say so , if things go wrong under the new Constitution , the reason will not be that we had a bad Constitution. What we will have to say is that Man was vile"
राजीव रंजन प्रभाकर
29.11.2018.
29.11.2018.
R.R.Prabhakar
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