रामगीता
अध्यात्मरामायण का उत्तरकांड पंचम सर्ग का शीर्षक 'रामगीता' है। यह जो रामगीता है,जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, ग्रंथकार ने भगवान राम के श्रीमुख से ज्ञानतत्व का विवेचन करा कर यह प्रतिपादित किया है कि अविद्या का नाश हो जाने से परमात्मा और जीवात्मा का भेद समाप्त हो जाता है। तब विहित कर्म करने की भी आवश्यकता नहीं रह जाती है क्योंकि कर्म देहान्तरप्राप्ति का साधनमात्र है। जीव और ब्रह्म की एकता का अनुभव की परिणति आत्मानंद की अनुभूति हैं जो वाह्य जगत के लिए अगम एवं अगोचर है।वाह्य जगत की दृष्टि मे मात्र इतना ही भासता है कि अमुक जीव अपना प्रारब्ध फल का भोग कर रहा है।वह प्रारब्ध फल भोग रहा है या आत्मानंद मे विचरण कर रहा है, इसका पता सिद्ध से सिद्ध और विज्ञ से विज्ञ को भी नहीं हो सकता।कर्तव्यशेष तथा जीवनमुक्त आत्मा के लिए भोग या रोग या यहाँ तक कि योग की भी कोई सत्ता नहीं है। रामगीता मे यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है कि मोक्ष प्राप्ति का साधन ज्ञान ही है (सकाम)कर्म नहीं।
इसे इस प्रकार व्याख्यायित किया गया है कि चूंकि कर्म इन्द्रियों का विषय से संयोग का प्रतिफल है इसलिए किसी भी सकाम कर्म के हेतु के मूल मे अविद्या ही है और अविद्या से उद्भूत कर्म इसका विरोधी नहीं हो सकता। तदनुसार ज्ञान प्राप्ति हेतु यह वांछनीय है कि साधक पहले अपने वर्ण तथा आश्रम के अनकूल विहित कर्म आसक्ति रहित भाव से उस समय तक करता रहे जब तक कि उसके चित्त का मैल धुल कर निर्मल न हो जाय, तदनन्तर साधक को चाहिए कि वह अपने विहित कर्मोँ को भी त्याग कर आत्मज्ञान प्राप्ति का उद्योग करे।अगर आत्मज्ञान की प्राप्ति को कर्म की संज्ञा दी जाय तो इसका त्याग भी वह कर सकता है यदि इसका परिपाक सात्विक अहंकार मे होता हो जो कि एक प्रकार से फिर कर्म के फंदे मे पड़ने जैसा है।
रामगीता मे भगवान ने यह उपदेश दिया है संसारबंधन से मुक्त होने का उपाय अज्ञान का नाश ही है जो कर्म(सकाम कर्म) से अर्थात योग, यज्ञ, दान, इत्यादि से सम्भव नहीं है क्योंकि कर्म का सम्पादन कारकादि के बिना अकल्पनीय है। जब ज्ञान का प्रादुर्भाव होता है तो अविद्या का समस्त कारकादि सहित लय हो जाता है। तब साधक मे कर्ता-भोक्तापन के भाव आप से आप विलीन हो जाते हैं तथा कोई कर्तव्य शेष नहीं रह जाता है।उसका यह स्थूल शरीर रहे या जाय इससे अब उसका कोई प्रयोजन नहीं रह जाता।सूक्ष्म और कारण शरीर को तो उसने पहले ही त्याग दिया है।बंधनमुक्त वह आत्मज्ञानी सदैव आत्मानंद मे ही विचरण करता है। उसका शरीर उस मुक्तात्मा के साथ उसी प्रकार रहता है जिस तरह किसी गजराज के गले मे कोई मणिमाल शोभता हो जो उसके गले मे रहे या गिरे, कुंजर को कोई क्लेश नहीं। नाग के कंठ मे मणिमाल है या गिर गया, यह संसारियों के मध्य कौतुक, हर्ष अथवा विषाद की विषयवस्तु हो सकता है,हाथी का क्या!
इस विश्लेषण से कम से कम इतना तो पता चल ही जाता है कि कर्म को समझना ही जब इतना कठिन है तो इसके त्याग को फिर कैसे समझा जाय और त्याग को भलिभांति समझे बिना कर्म का त्याग करना और भी दुरूह है तथा यह भी कि misconceived त्याग दम्भ उत्पन्न कर साधक को उसी अविद्या के गर्त मे धकेल देता है जिससे वह निवृत्त होकर संसार से मुक्त होना चाहता है।
इसी के परिपेक्ष्य मे ज्ञान भक्ति एवं वैराग्य के पारदर्शी विद्वान साधक एवं भगवान राम के अनन्य भक्त गोस्वामी तुलसीदासजी ने सब कुछ तज कर केवल और केवल भगवान राम से अनपायनी एवं निर्भरा भक्ति मांगा और उन्होंने भगवान के चरणकमल मे वर्धमान प्रेम को ही जप, तप, योग, ज्ञान, पूजा-उपासना का अंतिम फल माना। सत्य है कि प्रभु के चरणों में प्रीति ही जिनका साध्य है उसके लिये मोक्ष भी तृण समान है। गोस्वामीजी के धन्यग्रंथ मानस मे जिसे टीकाकारों ने रामगीता के रुप में वर्णन किया है, वह उत्तरकांड के ४२ वें दोहा से प्रारंभ है।इसमें भगवान ने सकल साकेतवासी को बुला कर उनसे विनम्रतापूर्वक यही दृढ़ता से धारण करने का आग्रह किया है कि ज्ञान अगम है और इसलिए इसकी प्राप्ति का उद्योग अत्यंत ही दुस्तर है(ज्ञान अगम प्रत्यूह अनेका)।भगवान कहते हैं कि इसका साधन बहुत ही कठिन है और फिर यदि कोई इसमे सफल हो भी जाता है तथापि वह मेरे प्रेमपीयूष से वंचित ही रह जाता है क्योंकि इसका आस्वादन मेरे भक्त ही कर पाते हैं। इसलिए हे अयोध्यावासियों!मेरी आपसे यही विनती है सभी आशा और भरोसा आप मुझ पर ही करते हुए अपने अपने कर्मो को बिना किसी वैर एवं विग्रह के करने मे संलग्न रहें और यथालाभ संतोष को धारण करें। अयोध्या के मेरे प्रियजनो, आप यह यदि समझ लेते हैं कि मनुष्य तन की प्राप्ति का हेतु विषयभोग नहीं है तो आपके मन, वचन और कर्मों का मल आप से आप धुलता चला जायेगा।और आप ही कहिये कि मेरी ऐसी भक्ति मे कौन सी कठिनाई है!
भगवान राम के मुखपद्म से निःसृत सर्वसाधनसुलभ, सकललोककल्याणकारी एवं कलिमलदहनकारी इस रामगीता को आधार बना कर जो मैने यत्किंचित वर्णन करने की चपलता की है वह अपूर्ण तो है हीं; कोई आश्चर्य नहीं कि ज्ञानीजनों की दृष्टि मे त्रुटिपूर्ण भी हो। इसे भगवद्प्रेमी तथा ज्ञानोपासक दोनो सहसा हीं क्षमा कर देंगें, ऐसा मेरा विश्वास है।
राजीव रंजन प्रभाकर
16.11.2018.
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