आप कौन हैं ?

आप कौन हैं?
मैं एक प्राणी हूॅं. 
'अजीब बात है ये कोई जवाब हुआ!
प्राणि तो सभी हैं. मेरा मतलब है कि हैं कौन?
मैं एक मनुष्य हूॅं 
देखिए आप बात को घुमाने की कोशिश मत कीजिए.
मेरा आप से कौन हैं, से मेरा पूछने का तात्पर्य यह है कि आप का 'नाम' क्या है, 'कहाॅं' रहते हैं, 'क्या' करते हैं वग़ैरह वग़ैरह. 
आप से पूछा जा रहा है तो आप भाव खा रहे हैं जी?

मेरा नाम अ.ब.स है मैं धरती पर रहता हूॅं और जीने के लिए काम करता हूॅं.

तो आकाश में कौन रहता है? 

रहता है न? कितने हीं पक्षी हैं जिनका आशियाना यह मुक्ताकाश है. ऐसे प्राणी नभचर कहलाते हैं.

ज्यादा बनिए नहीं आप अपना परिचय ठीक से दीजिए; समझ गये न?

मेरा नाम अ.ब.स है, मैं क.ख.ग शहर में रहता हूॅं और सरकार का एक मुलाज़िम हूॅं.
वो तो ठीक है लेकिन इस परिचय में भी कमी हीं रह गया है. 
मतलब केंद्र सरकार में कि राज्य सरकार में? 
राज्य सरकार में.
मतलब इतने से हो गया परिचय?

राज्य सरकार के किस सेवा सम्वर्ग से हैं, किस विभाग में आदि आदि.
 आप या तो बहुत चालाक हैं या अत्यंत मंदबुद्धि. 

मंदबुद्धि तो आप दिखते नहीं फिर आप चालाकी कर रहे हैं ताकि मेरी जिज्ञासा एक बार में शांत नहीं हो या मैं आगे कुछ पूछना हीं छोड़ दूॅं; यही न?

 उत्तर-अरे नहीं आप ग़लत समझ गये. ट.ठ.ड सेवा सम्वर्ग में प.फ.ब विभाग के, च.छ.ज पद पर पदस्थ हूॅं.

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मतलब कि संज्ञा से किसी को कोई मतलब नहीं; सभी को विशेषण से लगाव है अर्थात् सभी उपाधि के प्रेमी हैं. 

 यही कारण है कि पदाधिकारी अपने नाम के साथ अपनी सेवा का नाम को संक्षिप्त रूप में कोष्ठ बद्ध कर लिखना पसंद करता है. 

उपाधि जनमानस में अपनी विशिष्टता का बोध कराने के लिए आवश्यक समझा जाता है. 

वरना पहचान का संकट का सामना करना पड़ता है. 

हर व्यक्ति अपनी पहचान बनाने के लिए अधीर है जिसकी परिणति उपाधि प्राप्त कर हीं की जाती है. 
कभी-कभी ये 'उपाधि' मेहनत की बजाय 'उपाय' से प्राप्त की जाती है जिसमें चापलूसी,धोखाधड़ी सहित उपाधियों का क्रय-विक्रय भी शामिल है.

चूॅंकि उपाधि पहचान प्रदाता के रूप में सर्वस्वीकृत तथ्य है इसलिए सेवा निवृत्ति के बाद भी नाम के साथ पदनाम को से.नि. संक्षेपण के साथ लिखकर संतोष प्राप्त किया जाता है.
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यही कारण है कि कोई व्यक्ति पढ़ा-लिखा होने का सबूत देने के लिए अपने नाम के साथ अपनी डिग्री को भी संक्षिप्त रूप से लिखना पसंद करता है.
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यही कारण है कि किसी साहित्यकार को कोई औपचारिक उपाधि प्राप्त नहीं होने पर वह स्वयं हीं उपाधि रूप में कोई उपनाम या तखल्लुस रख लेता है.

यदि संयोगवश कोई पुरस्कार प्राप्त कर लेता है तो इसे औपचारिक उपाधि के रूप में उपयोग करना प्रायः नहीं भूलता. 
जैसे पद्मश्री, पद्मभूषण आदि ---

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बिना उपाधि के जीना बेकार सा लगने लगता है. उपाधि प्रेम छूटता नहीं. जहाॅं भी उपाधि है वहाॅं अहंकार है. 

या कहिए तो उपाधि अहंकार का मूर्त रूप हैं. 
जितनी बड़ी उपाधि अहंकार रूपी मूर्ति की काया उतनी हीं विशालकाय.
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एक सर्व समर्थ ईश्वर हीं हैं जो सही अर्थों उपाधिरहित हैं.
उन्हें उपाधि से कोई प्रेम नहीं है. 
अर्थात् जो उपाधि से युक्त है वह व्यक्ति है तथा जो उपाधि से रहित है वह अव्यक्त है.
अव्यक्त हीं अनादि है,निर्विशेष है, निर्विकार है, बांकि सभी अहंकार रूपी विकार से न्यूनाधिकता में ग्रस्त हैं.
         उस अव्यक्त को हीं हम ईश्वर कहते हैं जो तत्क्षण अपने को वैसा बना लेते हैं जैसी उस क्षण हमारी भावना रहती है.
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जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि हैं मैं नाहि।
प्रेम गली अति सांकरी जा में दुओ न समाए।।

जब व्यक्ति में यह भाव आता है तभी उपाधि का प्रेम छूट जाता है और मात्र हरि से हीं प्रयोजन रह जाता है.

नारायण! नारायण!

राजीव रंजन प्रभाकर.
१५.०८.२०२५.

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