आज का मित्रहीन समाज

आज मैत्री दिवस है.प्रत्येक वर्ष अगस्त के प्रथम रविवार को यह मनाया जाता है.

आज की सच्चाई यह है कि फेसबुक जैसे प्लेटफार्म पर मित्र सूची सैकड़ों हज़ारों की संख्या में रहते हुए भी हम सभी प्रायः मित्रहीन ही हैं.

आज के मित्रहीन समाज में मैत्री का महत्व को वही समझ सकता है जो वास्तव में एक-दूसरे के सुख-दुख का साथी हो. 

किंतु जहाॅं सहयोग पूरी तरह से प्रतिस्पर्धा द्वारा विस्थापित किया जा चुका हो वहाॅं मैत्री का निर्वाह हो तो कैसे? 

आज मित्रता समान सतह पर अवस्थित दो व्यक्तियों के मध्य हास-परिहास,आलाप-वार्तालाप की विषयवस्तु भर रह गई है. 

यह हास परिहासादि भी तभी तक जारी रहता है जब तक दोनों की परिस्थितियां एक जैसी रहती है. जैसे हीं परिस्थिति बदलती है मैत्री समाप्त.

  संस्कृत में इससे संबंधित एक श्लोक है-

 कार्यार्थी भजते परस्परम् यावत् कार्यं न सिद्ध्यते।
    प्राप्ते तु परे पारं नौकाया: किं प्रयोजनम्‌।।

कार्यार्थी एक-दूसरे को तभी तक भजते हैं जब तक कि उनका एक-दूसरे से कार्य सिद्ध नहीं हो जाता है.
 यह ठीक उसी तरह है जैसे पार उतर जाने पर नौका को लोग मुड़ कर भी नहीं देखना पसंद करता है. अर्थात् पार उतरने के बाद नाव से कोई प्रयोजन नहीं रह जाता है.

यह मानव स्वभाव है. इसमें किसी का दोष नहीं है. जो विवेकशील हैं उनकी बात भिन्न है.

 कभी-कभी तो ईर्ष्यावश यह मैत्री शत्रुता की सीमा तक कटुता में परिवर्तित हो जाती है. 
और तब मित्रता के रूप में मात्र स्वांग बच जाता है.
इसके उलट पूर्व में मित्रता समान सतह से अधिक असमान सतह पर प्रखर होकर उभरती थी. 

                 श्रीराम और सुग्रीव, श्रीकृष्ण और सुदामा, दुर्योधन और कर्ण, निषादराज गुह और श्रीराम की मैत्री इसके सर्वोत्तम उदाहरण हैं. 
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मित्रता के सम्बन्ध में गोस्वामीजी ने रामचरितमानस में जो कुछ कहा है, वह इसके सभी पक्षों पर यथार्थ में प्रकाश डालता है. प्रसंग उस समय का है जब सीता अन्वेषण में तत्पर भगवान श्रीराम की मैत्री हनुमान ने परिस्थितिवश ऋष्यमूक पर्वत पर निर्वासन झेल रहे वानर राज सुग्रीव से करायी. 
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मित्रता से जुड़ी मानस की इन पाॅंच चौपाइयों को देखिए.
मित्र सुग्रीव से प्रभु श्रीराम कहते हैं—

१. जे न मित्र दुख होहिं दुखारी।तिन्हहि बिलोकत पातक भारी।।
    निज दुख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दुख रज मेरू समाना।।

(जो लोग मित्र के दु:ख से दु:खी नहीं होते, उन्हें देखने से ही बड़ा पाप लगता है.अपने पर्वत के समान दुःख को धूल के समान और मित्र के धूल के समान दुःख को सुमेरु पर्वत के समान जाने)

 २. जिन्ह कें असि मति सहज न आई।ते सठ कत हठि करत मिताई।।
     कुपथ निवारि सुपंथ चलावा। गुन प्रगटै अवगुनन्हि दुरावा।।

(जिसे स्वभाव से ही ऐसी बुद्धि प्राप्त नहीं है, वे मूर्ख हठवश क्यों किसी से मित्रता करते हैं? मित्र का धर्म है कि वह मित्र को बुरे मार्ग से रोककर अच्छे मार्ग पर चलावे. उसके गुण प्रकट करे और अवगुणों को छिपावे.)

 ३. देत लेत मन संक न धर‌ई ।बल अनुमान सदा हित कर‌ई ।।
    बिपति काल कर सतगुन नेहा। श्रुति कह संत मित्र गुन एहा।।

(देने लेने में शंका न रखे.अपने बल के अनुसार सदा हित ही करता रहे. विपत्ति के समय में तो सदा सौ गुना स्नेह करे.वेद कहते हैं कि श्रेष्ठ मित्र के यही लक्षण हैं.)

४. आगें कह मृदु बचन बना‌ई । पाछे अनहित मन कुटिला‌ई।।
    जाकर चित अहि गति सम भाई।अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई।।

(जो सामने तो बना-बना कर कोमल वचन कहता है और पीठ-पीछे बुराई करता है तथा मन में कुटिलता रखता है.)

नोट-यह ९९ प्रतिशत व्यक्तियों का लक्षण है जो आपस में एक दूसरे का मित्र होने का नाटक करते हैं.

 भगवान श्रीराम कहते हैं- हे भा‌ई जिसका मन साॅंप के चाल के समान टेढ़ा है, ऐसे कुमित्र को तो त्यागने में ही भलाई है.)

५. सेवक सठ नृप कृपन कुनारी। कपटी मित्र सूल सम चारी।।
    सखा सोच त्यागहु बल मोरें।सब बिधि घटब काज मैं तोरें ।।

(मूर्ख सेवक, कंजूस राजा, कुलटा स्त्री और कपटी मित्र -ये चारों शूल के समान पीड़ा देने वाले होते हैं. 
भगवान श्रीराम सुग्रीव को कहते हैं- हे सखा मेरे बल पर तुम चिन्ता छोड़ दो. मैं सब प्रकार से तुम्हारे काम आऊॅंगा.)

    राजीव रंजन प्रभाकर 
      ०३.०८.२०२५



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