एक स्वरचित लघु कविता

प्रभु!
मैं अपनी वाणी पर नियंत्रण कर न सका;
इस वजह से जग में किसी का प्रिय हो न सका;
कभी अपनों ने कहा मैं कुछ भी बोल देता हूॅं
कभी ग़ैरों ने कहा कि मेरा बोलना सही नहीं रहता;
कभी-कभी तो बेवजह अपमानित भी हुआ;
जहां भी गया लोगों को मैं प्रायः खलता हीं रहा;
ज्यादा लोगों को मेरी बात जंची हीं नहीं, अच्छी हीं नहीं लगी.
               ***
तो मैंने भी अब सोच लिया है प्रभु!
मैं सिर्फ वे जो पूछेंगे उतना हीं कहूंगा, उतना हीं बोलूंगा; बातचीत तो बिल्कुल भी नहीं करूंगा 
****
अब मैं बातचीत करुंगा तो तुम्हारे साथ;
हॅंसूंगा तो तुम्हारे साथ;
झगड़ूंगा तो तुम्हारे साथ;
लड़ूंगा तो तुम्हारे साथ;
मज़ाक भी करूंगा तो तुम्हारे साथ 
और हाॅं!
रोऊंगा भी तो तुम्हारे हीं चरणों में.
  ****
मुझे मालूम है तुम मेरी उन बातों का बुरा नहीं मानोगे; क्योंकि तुम नीयत देखते हो अदायगी नहीं 
मेरी बातों से नाराज़ भी तुम शायद न होगे
और अपमानित तो तुम किसी को करते हीं नहीं
सो मुझे क्यों करोगे!
    
          -राजीव रंजन प्रभाकर.

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