"अभाव,""प्रभाव" एवं "स्वभाव".
ट्रेन के सेकेंड क्लास के कूपे में बैठा हूॅं. पटना जा रहा हूॅं. कल दीवाली का त्योहार है. पटना में पत्नी को छोड़ कर और कोई नहीं है,बेटी भी पढ़ाई के सिलसिले में बाहर हीं है.
पर्व-त्यौहार के आकर्षण, उमंग और उत्साह का उम के साथ धीरे-धीरे कम होता जाना अनहोनी बात नहीं है. यही त्योहार था जब एक महीना पहले से ही पाईं-पाई जमा कर पटाखा खरीदना होता था;उसे घर के लोगों से छिपा कर छत पर धूप में सुखाना होता था, वगैरह-वगैरह. फिर पटाखा फोड़ने का कम्पिटीशन!
हम हीं क्या; हमारे समय के लड़कों का कमोवेश वही कार्यकलाप था जो मैंने उपर कहा.
आज की तरह टीवी-मोबाइल-कम्प्यूटर वगैरह तो था नहीं जिसमें बच्चे जनमते हीं डूबे रहते हैं.
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ट्रेन में कोई खास भीड़ नहीं थी. सीट भी आसानी से मिल गई. त्योहार की वजह से लगता है जिन्हें घर जाना था इससे पहले जाने वाली गाड़ी से निकल गए.
ट्रेन में रोज की सवारी करने वाले हीं अधिक थे. उनकी संख्या भी कुछ खास नहीं थी. वैसे दैनिक यात्री के लिए यह इंटरसिटी एक्सप्रेस बहुत उपयोगी है. मुझे भी जब सप्ताहांत में जब कभी पटना जाना होता है तो इसी ट्रेन का सहारा होता है.
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सहयात्रियों के बीच चल रहे वार्तालाप,यदि आप उस वार्तालाप में भाग न लें, को सुनना प्राय: रोचक होता है. कभी-कभी तो ये वार्तालाप ज्ञानवर्धक भी होता है.
किसी प्रसंग पर चल रहे वार्ता के क्रम में एक यात्री बोल रहे थे-व्यक्ति कोई कार्य दो हीं स्थितियों के अधीन करता है.
उन्होंने आगे कहा-पहली स्थिति है “अभाव” की.
किसी “अभाव” विशेष के अधीन उसकी पूर्ति में किया गया समग्र प्रयास हीं समेकित रूप से “कार्य” कहलाता है.
मन की दूसरी स्थिति है “प्रभाव” की. इसमें मन परवश होकर अर्थात् किसी के प्रभाव में आकर कोई कार्य करता है. हम स्वयं अपनी इच्छा से उस कार्य को नहीं करते बल्कि अपनी इच्छा का दमन कर यानी दूसरे के डर से,या प्रलोभन से,या दबाव में आकर उस काम को करते हैं.
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मैं सोच रहा हूॅं कि वे जो कुछ कह रहे हैं,बिल्कुल सही है. लेकिन एक तीसरी स्थिति भी बनती है जिसके अधीन कार्य करना श्रेयस्कर होता है. यह न "अभाव" की स्थिति है न हीं "प्रभाव" की.
वह स्थिति है अपने “स्वभाव” के अधीन रहकर कर्म करने की.
“स्वभाव” के अधीन किया गया कोई प्रयास हमें आत्मोन्नति के सोपान पर खींच कर ले आता है.
इसके अधीन किए गए कर्म को हम "सहज कर्म" कह सकते हैं. यह सहज कर्म दोषयुक्त भी हो तो भी उसका परित्याग ठीक नहीं है.
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इसी को भगवान गीता में अर्जुन से कहते हैं-
“सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्”
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किसका सहज कर्म क्या है यह हम सभी के आत्मानुसंधान का विषय है.
राजीव रंजन प्रभाकर.
११.११.२०२३.
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