अक्खड़ तुलसी

आज तुलसी जयंती है.  इस पावन दिवस पर उनकी स्मृति में उनके व्यक्तित्व पर चर्चा करना हीं प्रस्तुत लेखन का अभीष्ट है.
*******************************************************
तुलसीदास जी के बारे में कहा गया है कि वे बहुत अक्खड़ स्वभाव के व्यक्ति थे.
         वही व्यक्ति प्रायः ऐसा हो पाता है जिसे संसार से कुछ खास लेना-देना नहीं होता है. जहाॅं आपको संसार से कुछ लेना-देना हुआ तो फिर आप अक्खड़ नहीं हो सकते. संसार से लेना-देना रखते हुए अक्खड़ता का मात्र स्वांग भर किया जा सकता है.
  
            अक्खड़ को न पुरस्कार की कामना होती न ही तिरस्कार का भय. तुलसी इन्हीं लोगों में से एक थे. 
 तुलसी का काम अपने इष्टदेव श्रीराम को भजना भर था. शरीर की यात्रा जो कुछ मिल जाए उसी पर निर्भर था.
           वे आजकल के संन्यासी या कथावाचक की तरह तो थे नहीं जो लाखों रुपए की धनराशि बतौर प्रवचन शुल्क एडवांस में वसूल कर और हवाई जहाज से यात्रा कर करके वातानुकूलित वातावरण में व्यासगद्दी पर बैठ कहते हैं कि पैसा हाथ का मैल है; धन मिथ्या है,इसके पीछे मत भागो. 
     Hypocrisy की भी हद होती है!

तुलसी अक्खड़ इतने थे कि उन्होंने स्वयं अपने बारे में लिखा है-
          
      धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूतु कहौ, जोलहा कहौ कोऊ।
काहूकी बेटीसों, बेटा न ब्याहब, काहूकी जाति बिगार न सोऊ।।
तुलसी सरनाम गुलामु है रामको, जाको, रूचै सो कहै कछु ओऊ।
मांगि कै खैबो, मसीतको सोइबो, लैबोको एकु न दैबेको दोऊ।। (कवितावली, उत्तरकांड,106)
  
चाहे कोई धूर्त कहे अथवा परमहंस कहे;राजपूत कहे या जुलाहा कहे, मुझे किसी की बेटी से तो बेटे का ब्याह करना नहीं है, न मैं किसी से सम्पर्क रखकर उसकी जाति हीं बिगाड़ूंगा। तुलसीदास तो श्रीरामचंद्र का प्रसिद्ध गुलाम है, जिसको जो रूचे सो कहो। मुझको तो मांग के खाना और मस्जिद(देवालय) में सोना है ;न किसी से एक लेना है न दो देना है।
                            ****
तुलसी आगे कहते हैं-
मेरे कोऊ कामको न हौं काहूके कामको।
(कवितावली, उत्तरकांड,107)
(कोई मेरे काम का नहीं है और न मैं किसी के काम का हूँ)
*******************************************************
तुलसी के अक्खड़पन का एक रोचक उदाहरण और है. इसमें तो उन्होंने हद कर दी.
 कहते हैं उनके ज़िद के चलते वृंदावन में वृंदावनबिहारीलाल को श्रीरामरूप धारण कर तुलसी को दर्शन देना पड़ा.

सभी जानते हैं कि तुलसी के इष्ट श्रीराम थे. कहते हैं तुलसीदास जी एक बार तीर्थयात्रा पर निकले. इसी क्रम में ब्रजभूमि घूमने आए. वहां का नजारा कुछ उन्हें अलग ही लग रहा था. वे देखते क्या हैं कि यहाॅं तो सभी राधा-राधा की हीं रट रहा है. राम का तो कोई नाम हीं नहीं ले रहा.
 राम को भजने वाले तुलसी जो अबतक सर्वत्र अपनी भक्ति और रचना से प्रसिद्धि को प्राप्त हो चुके थे,को यह बात बड़ी अजीब लगी.
क्षुब्ध होकर उनके मुख से निकला-
वृंदावन ब्रजभूमि में कहा राम सों बैर।
राधा राधा रटत है आक ढ़ाक अरू खैर।।

वृंदावन बिहारी के मंदिर में पहुंच कर तुलसी भगवान कृष्ण को नमन करने हीं वाले थे कि तभी वहां का महंथ परशुराम दास तुलसी को आहत करने या मज़ाक उड़ाने या कदाचित उन्हें जांचने के निमित्त हीं कि देखें तुलसी भगवान कृष्ण की प्रतिमा पर अपना शीश नवाते हैं कि नहीं क्योंकि तुलसी के इष्टदेव तो कृष्ण हैं नहीं; उनके इष्टदेव तो श्रीराम हैं. 
इसलिए श्रीकृष्ण की प्रतिमा को जब तुलसी शीश नवाने जा हीं रहे थे कि महंथ ने यह कहना शुरू कर दिया–

अपने अपने इष्ट को नमन करे सब कोय।
बिना इष्ट के परशुराम नवै सो मूरख होय।।

 महंथ की बात सुनकर उसकी चाल को तुलसी तार ग‌ए. 

         अक्खड़ तो थे हीं;वह सोचने लगे- वैसे तो मैं प्रतिमा पर शीश नवाता हीं पर जब यह महंथ इस हरकत पर उतर हीं आया तो अब श्रीकृष्ण की प्रतिमा पर उन्हें शीश नहीं झुकाना.
तुलसी रूक गये और मूर्ति में श्रीकृष्ण की उस मनोहारी छवि को निहारते हुए भावविभोर होकर कहने लगे- वाह प्रभु! आज तो आपकी छटा हीं निराली. नाथ! आज तो आपका रंग-ढंग ही निराला देख रहा हूॅं. माथे पर का मुकुट का तो कहना हीं क्या! तिस पर मोरपंख!
 वाह!वाह!वाह! 
और तो और आज तो मैं देख रहा हूॅं हाथ में धनुष-बाण की जगह मुरली आ गयी. 
प्रभु आप भी परम कौतुकी हो!
वास्तव में आपकी लीला अपरम्पार है स्वामी!.
 इस विग्रह में भी आप बड़े भले जॅंच रहे हो.आज आपकी इस अनोखे रूप-रंग एवं विन्यास देख प्रभु मेरा तो मन प्रसन्न हो गया. 
खैर.
नाथ! लेकिन जो हो;मैं अपना मस्तक आपके चरणों में तभी नवाऊॅंगा जब आपके हाथ में प्रभु धनुष-बाण हो न कि मुरली.
तुलसी कहते हैं-
  कहा कहौं छवि आपकी भले बने हो नाथ।
  तुलसी मस्तक तब नवै जब धनुष-बाण हो हाथ।।
*******************************************************
 कहते हैं वहां महंथ परशुराम दास सहित उपस्थित सभी लोगों ने देखा कि एकाएक श्रीकृष्ण की उस प्रतिमा के हाथों में की मुरली धनुष-बाण में बदल गयी और तुलसीदास भगवान श्रीराम के चरणों में गिर पड़े.
*******************************************************
   वह भक्त हीं क्या जिसकी लाज भगवान न रखें!
                                      (गोसाईंचरित पर आधारित)
******************************************************
नोट-बिना इष्टदेव के पूजा का कोई मतलब नहीं है. बात इतनी भर है कि जैसे कोई बालक मिठाई या खिलौना के लिए अपने माता-पिता से हीं जिद करता है अथवा नहीं मिलने पर उन्हीं से कोई शिकायत भी रखता करता है न कि किसी रिश्तेदार या पड़ोसी से; उसी तरह कोई भक्त अपने इष्टदेव पर आश्रित रहते हुए अपने लौकिक-अलौकिक प्राप्तव्य की पूर्ति हेतु उन्हीं इष्टदेव की पूजा,अर्चना,अभ्यर्थना या याचना करना पसंद करता है और इसमें उसका अपने इष्टदेव से शिकायत रखना/करना तक शामिल है.
           जानने की बात यह है कि ऐसा कर वह अपना अभीष्ट प्राप्त भी कर लेता है. तुलसी ने वही किया;
क्योंकि भक्त स्वयं को अपने इष्टदेव का निजजन मानता है न कि परिजन या पुरजन. 
रामकृष्ण परमहंस कहते थे जैसे क‌ई जगह गड्ढा खोदने के बदले एक हीं जगह गड्ढा खोदने से जल निकलना तय है उसी प्रकार एक इष्टदेवमात्र पर हीं सर्वभावेन आश्रित रहकर तथा उसे हीं भजकर जगत की लौकिक कामना सिद्धि से लेकर ब्रह्म की प्राप्ति तक तय है. 
इसका यह मतलब भी नहीं है कि अपने इष्टदेव से इतर अन्य देवी-देवतागण उस भक्त के लिए असम्मान्य होते हैं. कोई भी भक्त उन देवी-देवताओं के चरणों में भी श्रद्धापूर्वक शीश झुकाता है. भक्त उन विग्रहों में भी वह अपने इष्टदेव को हीं देखता है. 
उनकी उपेक्षा,निरादर,तिरस्कार का तो कोई प्रश्न हीं नहीं उठता है; बल्कि वह तो पाप है.
यह सनातन धर्म की विशेषता है.
                                                राजीव रंजन प्रभाकर.
                                                   २३.०८.२०२३.
                                               (श्रावण शुक्ल सप्तमी)

Comments

Popular posts from this blog

साधन चतुष्टय

न्याय के रूप में ख्यात कुछ लोकरूढ़ नीतिवाक्य

भावग्राही जनार्दनः