"मैं" और मेरा "मन"
मुझे देर हो गई है. बहुत जरूरी काम से जाना है. पहले से यात्रा की कोई योजना नहीं थी. तुरंत ट्रेन पकड़ना है.किसी शुभचिंतक ने बताया अमुक ट्रेन का अभी समय हो चला है. जल्दी कीजिए.
मैं तुरंत स्टेशन की ओर चल पड़ता हूं.यदि ट्रेन समय पर चल रही होगी तो शायद हीं पकड़ पाऊंगा.
"मन" है कि ट्रेन लेट चल रही हो ताकि मैं उसे पकड़ सकूं. प्लेटफार्म पर पहुंचते-पहुंचते ट्रेन खुल जाती है. ट्रेन बिल्कुल समय से चल रही थी.
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मैं जहां गया था वहां से मुझे अब वापस लौटना है.
पिछले अनुभव से सबक लेकर मैं समय पर आकर ट्रेन में अपना स्थान ग्रहण कर चुका हूं.
"मन" है कि ट्रेन बिल्कुल समय से खुले.जरा भी लेट न हो.
ट्रेन है कि चल हीं नहीं रही. पता चला आगे ट्रैक में कुछ खराबी आ गई है.ठीक होने में करीब एक घंटा लग सकता है तब चलेगी.
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मित्रों! दोनों स्थितियों में परिस्थितियों से जकड़ा एवं "मन" के व्यामोह से बंधा "मैं" वही है.
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परिस्थितियां जब अनुकूल होती है तो "मन" हर्षित होता है और जब प्रतिकूल होती है तब यह "मन" विषादग्रस्त हो जाता है.
यह हम सभी का अनुभव है.
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अनुकूल परिस्थिति को सुख के रूप में परिभाषित किया गया है और प्रतिकूल परिस्थिति को दुख के रूप मे.
सुख से अहंकार तथा घमंड पुष्पित-पल्लवित होता है तो दुख में धैर्यरूपी धनुष की प्रत्यंचा ढीली होनी चाहती है .
इसीलिए सुख के समय में यदि व्यक्ति अपने अहंकार की परीक्षा लेना शुरू कर दे और दुख के समय में अपने धैर्य की तो "मन" कितना भी सुख में उद्दंड हो या दुख में व्यथित,वह "मैं" को नुक़सान नहीं पहुंचा सकता है.
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मन के ताप और संताप को दूर करने का एक हीं उपाय है; वह है "शिव" के नाम का जप.
कामनापूर्ति में डाले गए विघ्न से क्षुब्ध देवर्षि नारद का जब मन भगवान से क्रुद्ध हुआ तो उन्होंने हरि को हीं कठोर वचन कहना शुरू कर दिया. बाद में भूल का अहसास होने पर दुख से दग्ध एवं उद्विग्न नारद को भगवान ने यही कहा था-
"मुनि!आप शंकरजी के शतनाम का जप करो, इससे हृदय को तुरंत विश्राम मिलेगा,मन शांत होगा.शिवजी के समान मुझे कोई प्रिय नहीं है, इस विश्वास को भूलकर भी छोड़ना.
जपहु जाइ संकर सत नामा।
होइहि हृदयॅ़ं तुरत बिश्रामा।।
कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें
अस परतीति तजहु जनि भोरें।।
आईए हम प्रार्थना करें कि हमारा "मन" सदैव "शिव" में स्थित हो.
महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामना.
राजीव रंजन प्रभाकर.
१८.०२.२०२३
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