रावण का अंत


 राम रावण युद्ध का एक प्रसंग है-
 प्रभु अपने निषंग से एक से एक बाण निकालकर युद्धस्थ-सन्नद्ध रावण की ग्रीवा को लक्ष्य कर सरसंधान करते हैं और क्षणमात्र में रावण का मस्तक धर से विलग हो दूर रणभूमि में जा गिरता है. 
परन्तु यह क्या! अगले हीं पल रावण के रूण्ड पर नवीन मुंड का उदय हो जाता है और रावण का राम के प्रति उपहासमय अट्टहास से रणभूमि गूंज उठती है. 
 यह देख श्रीराम अपने कोदण्ड एक बार पुनः खींच कर रावण पर बाण से प्रहार करते हैं; रावण का न केवल दसों शीश बल्कि बीसो भुजाएं भी प्रभु के बाण से कटकर दूर जा गिरती हैं किन्तु अगले हीं पल उन भुजाओं और सिर का रावण के धर में सृजन हो जाता देख प्रभु हतप्रभ हैं.
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भगवान प्रहार पर प्रहार किये जा रहे हैं. परिणाम है कि भगवान के बाण से भुजाओं और शीश के काटे जाने से पूरा रणक्षेत्र पटा पड़ा जा रहा है किन्तु तत्क्षण हीं नवीन भुजाओं और नवोदित मस्तक से लैस रावण पूर्ववत चुनौती देता हुआ अट्टहास करते नहीं थकता.
युद्ध में समक्ष उपस्थित दुर्वध्य रावण है कि मरता हीं नहीं.          
         प्रभु को हैरान और परेशान देख रावण जो उपहास और अट्टहास कर रहा था सो अलग.
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श्रीराम के ललाट पर उभर आए स्वेदबिंदु उनके श्रमित मुखमंडल को और भी लुभावना बना दे रहे हैं
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भगवान परम कौतुकी हैं. वे बिभीषण के प्रीति की परीक्षा लेना चाहते हैं किन्तु इसका वर्णन इस प्रसंग का अभीष्ट नहीं है. 
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रणभूमि में यह खबर तो फैल हीं गई बल्कि लंका नगर में भी यह बात चली गई कि श्रीराम के बाण से रावण के सिर और हाथ तो कट जा रहे हैं किन्तु रावण का वध श्रीराम के बस की बात नहीं है. यह खबर नगरनिसिचरों में नवीन उत्साह का संचार कर रहा था.
धीरे-धीरे जब यह बात अशोक वाटिका में सीताजी के पास पहुंची तो वह निराशा में डूब गयी. 
अशोक वाटिका में त्रिजटा नामक राक्षसी थी.वह सीताजी की हितैषी थी तथा लंका में एक वही थीं जो विपत्ति की घड़ी में समय-समय पर सीताजी को भगवान राम के प्रताप को सुनाकर उन्हें ढांढस बंधाया करती थी.
             आज जब वह सीताजी के पास पहुंचीं तो माता सीता उनसे रुआंसी होकर बोली- मां! लगता है यह दुष्ट रावण मरने वाला नहीं है. नहीं तो क्या वह मेरे स्वामी के बाण से अब तक बचा रह पाता? यह मेरा अभाग्य हीं है जो प्रभु के बाण वर्षा के बावजूद वह दुष्ट जीवित है. 
यह कह सीताजी फूट-फूट के रोने लगी.
त्रिजटा ने उसे सांत्वना देते हुए कहा- बेटी! ऐसी बात नहीं है. राम के बाण का प्रताप तो ऐसा है कि रावण क्षण में कालकवलित हो जाय. लेकिन वे जानबूझकर अपना एक भी बाण रावण के वक्ष को लक्ष्य कर नहीं चला रहे हैं. यदि ऐसा करें तो रावण वहीं ढ़ेर हो जाय.
सीताजी ने विह्वल होकर पूछा- इसका क्या अर्थ माते? मैं कुछ समझ नहीं पा रही. तब प्रभु उस दुष्ट की छाती में बाण क्यों नहीं मारते?
त्रिजटा ने कहा- सुमुखी! इसका कारण है. प्रभु यह जानते हैं कि अनुरक्त रावण के हृदय में तुम निवास कर रही हो और तुम्हारे हृदय में श्रीराम बसते हैं जिनके उदर में चौदहो भुवन समाये हुए हैं. इसलिए प्रभु रावण के वक्ष को यदि लक्ष्य करें तो समस्त सृष्टि का हीं संहार हो जाय.
सीते! यही कारण है कि प्रभु रावण के उर को न बेध कर उसके मस्तक और भुजाओं का हीं छेदन कर रहे हैं. 
सीताजी यह सुन रोने लगी.
 वे रोते हुए बोलीं- तब तो मां यह कभी नहीं मरेगा?
         त्रिजटा- अरे नहीं पगली! बार-बार अपने सिर और भुजाओं का कटा पहाड़ देख जब क्रोधोन्मत्त रावण का ध्यान तुमसे छूट जाएगा उसी क्षण प्रभु उसकी छाती को अपने बाण से बेधकर उसे प्राणमुक्त कर देंगे. इस तरह उसका अंत भी हो जाएगा और यह सृष्टि भी बची रह जाएगी.
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रामचरितमानस में वर्णित है कि प्रभु ने कभी भी रावण की छाती को अपने बाण का लक्ष्य नहीं बनाया.
उन्होंने बिभीषण की ओर देख उसके प्रीति की परीक्षा जरूर ली और फिर एकतीस बाण एक साथ अपने सरासन से चला कर रावण का अंत कर दिया.
 किंतु उन एकतीस बाणों में से एक भी बाण रावण की छाती के निमित्त नहीं था. 
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रावण का अंत कैसे हुआ,वह इस दोहा एवं चौपाई से स्पष्ट हो जाता है-
दो.-खैंचि सरासन श्रवण लगि छाड़े सर एकतीस।
     रघुनायक सायक चले मानहुॅं काल फनीस ।।
                                                  (लंकाकाण्ड १०२)
सायक एक नाभि कर सोषा।
अपर लगे भुज सिर करि रोषा।।
लै सिर बाहु चले नाराचा।
सिर भुज हीन रुंड महि नाचा।।
धरनि धस‌इ धर धाव प्रचंडा।
तब सर हति प्रभु कृत दुइ खंडा।।
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      धन्य हैं तुलसीदास और उनकी कवित्व शक्ति और उतनी हीं विलक्षण है उनकी युक्ति. 
               भगवान राम हम सभी पर कृपा करें.
                            
                                             राजीव रंजन प्रभाकर.
                                                 ०८.०१.२०२३.

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