रामचरितमानस महाकवि सूर की दृष्टि में
कहा जाता है कि एक बार बादशाह अकबर ने अपने नवरत्न में से एक रहीम कवि(अब्दुर्रहीम खानखाना) को तुलसीदास के पास तुलसी को अपना मनसबदार बनाने की बादशाह की इच्छा का संदेश लेकर भेजा.
जानते हैं तुलसीदासजी ने बादशाह को अपने मित्र रहीम के मार्फत क्या उत्तर भिजवाया?
हम चाकर रघुवीर के पटौ लिखो दरबार।
तुलसी अब का होहिंगे नर के मनसबदार।।
~Tulsidas.
कहने का आशय कि तुलसी तो रघुवीर का चाकर है;जब तुलसी को राम ने हीं अपने दरबार का पट्टा लिख दिया है तो आदमी(अकबर) के दरबार का पट्टा लिखवा कर (मनसब लेकर) तुलसी क्या करेगा?
उपरोक्त घटना से पहले भी एक घटना घट चुकी थी. जब तुलसीदास की कीर्ति बहुत फैल चुकी थी तो अकबर ने अपने दरबार में बुलाकर कोई चमत्कार दिखाने को कहा था और तुलसी ने मना कर दिया था.
तुलसीदास ने साफ कह दिया -मैं कोई चमत्कार नहीं जानता.
फलस्वरूप तुलसीदास को बन्दी बना लिया गया.
बाद में जब बादशाह को अपनी भूल का अहसास हुआ तो तुलसी को कारागार से मुक्त कर दिया गया. किंतु यह एक अलग प्रकरण है. कहा जाता है कि हनुमान चालीसा को तुलसीदास ने बंदीगृह में हीं रचा था.
बादशाह को तुलसीदास का इंकार पहले हीं चुभ चुका था तिस पर फिर मनसब को तुलसी द्वारा ठुकराया जाना!
किंतु बेपरवाह तुलसीदास को इससे क्या मतलब!
संतन को सीकरी से क्या काम!
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अक्खड़ को सत्ता पसंद नहीं करता. सत्ता को वही व्यक्ति पसंद है जो उसका चारण करता हो.
मामला यदि दो धर्मों के बीच का हो तो यह स्थिति सत्ता हासिल करने में भी बहुत सहायक हो जाती. ऐसी स्थिति में सत्ता प्रतिष्ठान युक्ति से काम लेना शुरू कर देता है.
इसके अतिरिक्त सत्ता प्रतिष्ठान यदि एक व्यक्ति में समाहित हो तो उसमें एक प्रवृत्ति यह भी देखी गई है कि वह कभी-कभी समान प्रतिभा,मेधा और कीर्ति वाले कलाकारों, हस्तियों या व्यक्तियों से एक दूसरे की आलोचना या निंदा सुनना चाहता है.
इस तरह से दोनों को लड़ाने में सत्ता प्रतिष्ठान को आनंद मिलता है. कहने की आवश्यकता नहीं है कि इसके लिए वे बड़ी सूक्ष्मता से युक्तियों का सहारा लेते हैं.
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इसी तरह का एक प्रयास एक बार बादशाह अकबर ने भी किया.
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सूरदास और तुलसीदास समकालीन थे. वे आपस में कभी मिले थे या नहीं, ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता. हां ये बात जरूर है कि दोनों एक दूसरे की रचना,मेधा, प्रतिभा के कायल थे.
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बादशाह अकबर के दरबार में एक बार सूरदास को बुलाया गया.
अकबर ने उनसे पूछा- सूरदास जी! आप और तुलसीदास दोनों बहुत बड़े कवि हैं.आप दोनों ही बहुत अच्छी कविता करते हैं. हम मुगलों को भी इस बात का फख्र है. चुनाॅंचे हम आपसे ये जानना चाहते हैं कि आपकी रचना "सूरसागर" अच्छी है या गोस्वामीजी की "रामचरितमानस"?
सूरदास जी ये सुन एक क्षण को रूके.
फिर उन्होंने कहा- जहांपनाह! बात ऐसी है कि कविता तो मेरी हीं अच्छी है. लेकिन जहां तक गोस्वामीजी की बात है तो उन्होंने "रामचरितमानस" में कविता की हीं कहां है? उन्होंने तो रामचरितमानस में भगवान शंकर की कृपा से सम्पूर्ण राममंत्र को हीं रच दिया है. उन मंत्रों की सहायता से यदि कोई चाहे तो इस लोक के सुख की बात तो क्या सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त आनंद को प्राप्त कर सकता है.
यह सुन अकबर को सूरदास जी से आगे कुछ पूछने की आवश्यकता नहीं रह गई.
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एक मानस प्रेमी ने अपने पूज्य पिताजी के संदर्भ में लिखा है------
मेरे पिताजी अपने जीवन काल में १००८ बार "रामचरितमानस" का पाठ पूरा कर चुके थे. जीवन भर उन्होंने रामचरितमानस को छोड़ कोई दूसरी धार्मिक पुस्तक को हाथ नहीं लगाया. जब मैंने अपने अत्यंत वृद्ध हो चले पिता से कहा कि आपने तो जीवन भर "मानस" का पाठ किया है तो मेरे लिए और मेरे जैसे अन्य मानस प्रेमियों के लिए आशीर्वादस्वरूप कुछ बताइए.
तो पिताजी ने कहा- तो कागज-कलम ले आओ. मैं तुम्हें मानस की कुछ चौपाइयों को लिखा दूॅं. इन्हें एकांत में काशी की ओर मुख करके यदि श्रद्धापूर्वक तुम १०८ बार हवन कर लो तो ये चौपाइयां सिद्ध मंत्र में परिवर्तित हो जाती हैं.
फिर इसे जब-तब मन ही मन या बोल कर जप करके अपने अभीष्ट की प्राप्ति कर सकते हो.
भिन्न-भिन्न प्रयोजनों की सिद्धि के लिए उक्त मानस प्रेमी ने आगे उन-उन चौपाइयों के बारे में भी लिखा है जिन्हें उनके पूज्य पिताजी द्वारा लिख लेने को कहा गया था.
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उपरोक्त पंक्तियों में मैंने जो कुछ लिखा है,वह सनातन धर्म की विश्वप्रसिद्ध पत्रिका "कल्याण" के "कृपानुभूति विशेषांक" में उन्हीं मानस प्रेमी के द्वारा अपने पूज्य पिताजी के बारे में प्रकाशित लेख पर आधारित है.
इसे मैंने स्मरण से आपको समर्पित किया है.
राम चरित जे सुनत अघाहीं।
रस बिसेष जाना तिन्ह नाहीं॥
सच है कि "रामचरितमानस" को महज एक काव्य रचना समझना नासमझी के अलावा कुछ भी नहीं है.
राजीव रंजन प्रभाकर.
२१.०१.२०२३
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