परशुराम लक्ष्मण संवाद.
परशुराम-लक्षमण संवाद
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गोस्वामी तुलसीदासजी रचित रामचरितमानस में वर्णित महत्वपूर्ण संवादों में परशुराम-लक्ष्मण संवाद अपने आप में अनोखा है. यह बताता है कि क्रोध से कैसे तप और तेज तिरोहित होता है.धनुष भंग के बाद का यह संवाद काफी रोचक है. इसका ठीक- ठीक अनुभव रामचरितमानस के रसिक जो रसिक हैं उन्हें अवश्य होगा.
गोस्वामीजी जैसा वर्णन करने की तो मैं सोच भी नहीं सकता तथापि भगवान के ऐश्वर्य, सामर्थ्य या विभूतियों का वर्णन करने का अपनी-अपनी बुद्धि एवं क्षमता के अनुरूप करने का सभी को समान अधिकार है चाहे वह भक्त हो,अभक्त हो,ज्ञानी हो या कामी.
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परशुराम अवतारी पुरुष थे.
ये वही परशुराम थे जिन्होंने एक नहीं बल्कि अनेक बार इस सम्पूर्ण पृथ्वी को क्षत्रियविहीन कर डाला था.
उन्हें भगवान श्रीराम से ठीक पूर्व का अवतार माना जाता है.
मान्यता है कि एक अवतार का जब पृथ्वी पर अवतरण हो जाता है तो उस अवतार के पहले के अवतारी पुरुष का जो पौरुष,तेज,शौर्य एवं पराक्रम होता है उसमें उसी अनुपात में ह्रास होता चला जाता है जिस अनुपात में नये अवतार में उसकी वृद्धि होती चली जाती है. बल्कि एक समय वे सारे बल, तेज पुरूषार्थ आदि नये अवतार में समाहित हो जाता है.
हालांकि ये बात अवतारी चिन्मय शरीरधारी पुरुष के संदर्भ में कही गई है किन्तु प्राकृत पुरुषों के मामले में भी यह उतना ही सत्य है.
पुत्र के जवान होने पर पिता की स्थिति का अनुमान भी इससे लगाया जा सकता है. इसलिए पिता जो बुद्धिमान होते हैं अपना सारा जंजाल पुत्र को सौंप निश्चिंत होना चाहते हैं.
इसका कुछ-कुछ अनुमान एक अन्य उदाहरण से भी समझा जा सकता है जब कोई भारमुक्त पदाधिकारी अपने पहले के रूतबे के मद में अपने बल एवं अधिकार का प्रदर्शन भारग्राही पदाधिकारी के समक्ष हीं करना प्रारंभ कर देता है.
संक्षेप में लौकिक अर्थ में यह कहना पर्याप्त होगा कि श्रीराम भारग्राही पदाधिकारी थे और परशुराम एक भारमुक्त पदाधिकारी.
आज उन्हीं परशुरामजी का धनुष-यज्ञ के पश्चात राम-लक्षमण के साथ हुए संवाद का आत्मानंद के निमित्त वर्णन करने की इच्छा है.आपको भी रूचिकर प्रतीत हो तो आगे पढ़ सकते है.
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मिथिला में महाराज जनक ने अपनी पुत्री सीता के लिए स्वयंवर का आयोजन किया था. भगवान श्रीराम द्वारा शिव का धनुष तोड़ा जा चुका था. सीताजी श्रीराम को वरमाला पहना चुकी थी. स्वयंवर में सीता से विवाह की अभिलाषा लिए हुए आया समस्त नृप समाज का दर्पदलन हो चुका था.
शिव के उस धनुष को उठा कर तोड़ने की बात तो छोड़ दीजिए उसे वे तिल भर हिला सकने में भी असमर्थ साबित हुए.किसी के द्वारा धनुष का बाल बांका भी न होते देख जनक को भारी क्षोभ हुआ कि व्यर्थ हीं उन्होंने अपनी बेटी सीता के विवाह के लिए ऐसा प्रण कर लिया था. वसुधा को वीरविहीन कह जनक विलाप करने लगे. यह स्थिति देख विश्वामित्र जी ने राम को धनुष तोड़ने का आदेश दिया ताकि जनक का संताप दूर हो सके और श्रीराम ने बिना किसी हर्ष या विषाद के शिवजी के उस महान विश्वविदित धनुष को अनायास ही अत्यंत सहजता एवं हस्तलाघव से तोड़ दिया था.
यह देख ईर्ष्या और पराभव से उत्पन्न क्रोध के मारे वे राजागण जहां तहां उठकर जमा हो गए और गाल बजाना चालू कर दिए.
कोई कह रहा था कि दोनों बालक(राम-लक्ष्मण) को पकड़ कर बांध लो; धनुष तोड़ देने से क्या होता है! हमलोगो के रहते वह क्या सोचता है कि वह सीता को ब्याह कर घर ले जा सकता है? नहीं ऐसा कदापि नहीं हम होने देंगे. अगर जनक कुछ मदद करें तो हम मिलकर सारा खेल हीं बिगाड़ दें.
ये देख लक्ष्मण को क्रोध तो आ रहा था किंतु भगवान श्रीराम ने उन्हें शांत रहने का इशारा किया.
ये राजागण शोर-गुल मचा ही रहे थे कि एकाएक परशुरामजी का यज्ञ स्थल पर पदार्पण होता है.
उनके पहुंचते ही राजाओं की घिग्घी बंध गई. मानो बटेरों के बीच बाज का आगमन हो गया हो.
अभी तक जो राजा क्रोध,दंभ और अहंकार के वशीभूत राम लक्ष्मण या जनक के प्रति अनाप-शनाप बके जा रहे थे, परशुरामजी को देखते ही ठंडे पड़ गये और दुबक कर अपने-अपने आसन पर जा बैठे.
तत्पश्चात सभी अपने-अपने आसन से उठकर अपने पिता का नाम ले-लेकर परशुरामजी को दंडप्रणाम कर अपना परिचय देने लगे.
परशुरामजी यदि तभी किसी राजा को प्रेम से देख भर भी ले रहे थे तो उन्हें ऐसा लगता कि अब परशुरामजी का कुठार उनके गरदन तक पहुंचने हीं वाला है.
ये था क्षत्रियों के बीच जमदग्नि पुत्र ब्रह्मर्षि परशुराम का आतंक!
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परशुराम-क्यों रे जनक? ये राजाओं की भीड़ तूने क्यों जमा कर रखा है?
महाराज जनक चुप. जामजग्नि परशुराम का पराक्रम एवं क्रोध सर्वविदित था.
साहस कर उन्होंने अपनी पुत्री सीता के स्वयंवर समारोह के आयोजन की बात कह सीताजी को उनके चरणों में प्रणाम कराया. परशुरामजी ने प्रसन्न होकर सीताजी को अखंड सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद दिया.
फिर विश्वामित्रजी उनसे मिले;दोनों भाई राम-लक्ष्मण ने भी परशुराम के चरण-रज को अपने शीश पर लगा उन्हें दंडप्रणाम किया.
परशुरामजी राजपुत्र श्रीराम के मुखारविंद को देख ठगे से रह गए. फिर ध्यान हटाकर इधर-उधर देखने पर समीप ही शिव के टूटे धनुष पर उनकी नजर पड़ गई.
धनुष को दो चाप खंडों में टूटा देख परशुराम के क्रोध की सीमा न रही.
क्रोधांध परशुराम ने जनक से पूछा- अरे जड़ जनक! ये महादेव का धनुष कैसे टूटा? किसने तोड़ा है?
जल्दी बता;नहीं तो अभी इसी वक्त जहां तक तुम्हारा राज है वहां तक की पृथ्वी को मैं उलट कर रख दूंगा.
और हां जल्दी बता हीं नहीं बल्कि उसे इस राजसमाज से अलग कर मुझे दिखा;नहीं तो यहां आए सभी राजा तुम्हारे चलते नाहक मेरे हाथों मारे जाएंगे.
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जनक ने चुप्पी साध ली. इस बार उन्हें कुछ उत्तर देते नहीं बन रहा था. बताने का मतलब था श्रीराम को परशुराम का क्रोधभाजन बनाना.
यह दृश्य देखकर जो दुष्ट एवं कुटिल राजा थे उनकी बांछे खिल गई. मन ही मन वे अत्यंत हर्षित हो गए.
जनक को परशुराम द्वारा मजा चखाये जाने की वे अपनी सांसें रोक प्रतीक्षा करने लगे.
स्थिति सम्हालने के लिए श्रीराम अत्यंत विनीत भाव से आगे आये और सिर नवाकर परशुरामजी से बोले- हे नाथ! आप नाराज़ न हों. शम्भु के धनुष को तोड़ने वाला आपका कोई सेवक हीं होगा.क्या आज्ञा है प्रभु! मुझसे क्यों नहीं कहते?
परशुराम (कुपित होकर)- हूंह!सेवक वह होता है जो स्वामी की सेवा करे न कि अपने स्वामी को हीं चुनौती देना शुरू कर दे.
सुन लो राम! जिसने भी त्रिपुरारी के इस धनुष को तोड़ा है वह मेरा सहस्त्रबाहु के समान शत्रु है. इसे अच्छी तरह से जान लो. परशुराम का गौर वर्ण क्रोध से अरूण हो चला था.
लक्ष्मण जो पास ही ये सब सुन रहे थे,को रहा नहीं गया.
उन्होंने परशुराम को देख उन्हें चिढ़ाने के लहजे में कहा- हे मुनि!ऐसे-ऐसे कितने छोटे-मोटे धनुहीं को तो राजपुत्रगण अपने लड़कपन एवं खेलकूद में हीं तोड़ते आए हैं. तब तो मुनि को ऐसा क्रोध करते कभी नहीं देखा गया. मुझे ताज्जुब होता है कि इस धनुहीं के टूट जाने पर मुनि इतना क्रुद्ध क्यों हो रहे हैं.
हे मुनि!इसका कोई विशेष कारण हो तो मुझे भी बता कर कृतार्थ करें.
यह सुनते ही परशुरामजी का क्रोध और उफान मारने लगा.
वे बोले- अरे नालायक नृप किशोर! तूं कहीं कालवश तो सम्हाल कर नहीं बोल रहा है?मूर्ख!तुझे शिव का वह महान विश्वविदित धनुष धनुहीं जान पड़ता है?
लखन लाल बोले- मुनिवर! आप व्यर्थ क्रोधित हो रहे हैं. धनुष छोटा हो या बड़ा- है तो धनुष हीं न? राम तो उसे नया समझ कर उठाये किंतु वे क्या जाने कि वह धनुष पुराना-धुराना था जिसे महाराज जनक ने डेंट-पेंट कर नया बना दिया गया था. अब उनके उनके छूते हीं वह धनुष टूट गया तो इसमें उनका क्या दोष. अब तो यही न उपाय हो सकता है कि किसी तरह दोनों चापखंडों को आपस में जुड़वाने का कोई उपाय सोचा जाए. महाराज जनक को कहिए कोई कारीगर बुलाकर टूटे दोनों पार्टों का वेल्डिंग करवा दें.
वेल्डिंग कर देने से आपका गुस्सा शांत तो हो जायेगा न?
इस धृष्टतापूर्ण उत्तर सुन परशुराम तिलमिला उठे.
क्रोधित परशुराम ने अपने कुठार को देखते हुए कहा- रे छोरा! तूं तो बड़ा उद्दंड है रे!
बालक! आश्चर्य है कि किसी ने तुझे मेरे बारे में नहीं बताया है.लगता है तूं मुझे निरा मुनि समझ कर हीं ऐसा दुस्साहस कर रहा है. क्या तूं नहीं जानता कि मैं कौन हूं? तुझे अपने क्षत्रिय होने का बहुत घमंड है न? तो सुन!अरे मैं परशुराम हूं जिसने इस पृथ्वी को एक बार नहीं अनेकों बार क्षत्रिय विहीन कर डाला है. मैं वह परशुराम हूं जिसने सहस्त्रबाहु जैसे वीर क्षत्रिय के हजार बाहु को बिना श्रम अपने कुठार से अलग कर हवा में लहरा दिया था. मैं वह परशुराम हूं जिसने अपने पिता की आज्ञा से अपनी माता तक का बध किया है.
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लखन लाल उपहास करते हुए बोले- हूंह;अहो मुनि! बार बार जो आप मुझे अपना कुठार दिखा रहे हैं तो सुनिए, जिससे आप बात कर रहे हैं वो भी कोई कुम्हर-बतिया नहीं है जो उंगली दिखाने से कुम्हला जाय. हम भी आपके कांधे पर कुठार देख कुछ सोच कर हीं बोल रहे हैं वरना हमारे कुल में ब्राह्मण के चरणों में प्रणाम किया जाता है न कि उनपर वीरता दिखाई जाती है. आपको पता नहीं है कि हम सूर्यवंशी गाय, ब्राह्मण और हरि के जनों पर बहादुरी नहीं दिखाते है? बांकि आप क्षत्रिय के रोष को तो जानते हीं होंगे. मैं ये कुछ अभिमानवश नहीं बल्कि क्षत्रिय स्वभाववश कह रहा हूं.
ये सुन परशुराम पिताकर विश्वामित्रजी से कहा- कौशिक! यह लड़का तो बहुत उद्दंड है साथ ही कटुबादी भी. देखने में यह जितना सुंदर है मन इसका उतना हीं मलीन है. मानो स्वर्ण कलश में पूरा का पूरा मानो विष भरा हो.
नहीं!-नहीं! इसका तो बध करना हीं उचित है. इसे पता भी है कि यह किसके सामने ये सब कहने का दुस्साहस कर रहा है?
क्षण भर में यह उद्दंड मेरे कुठाराघात से ढ़ेर होने वाला है. क्यों यह नाहक यमपुरी की यात्रा करने को इतना उत्सुक है?
कौशिक! यदि तुम इसे बचाना चाहते हो तो इसे मेरे बारे में ठीक से बता दो कि मैं कौन हूं. यह मुझे हल्के में न लें.
इस पर लखनलाल ने फिर परशुराम के क्रोध में आहूति डालते हुए कहा- हे ब्राह्मण! आपके रहते अपनी शूरवीरता के बारे में आपसे बेहतर कौन बखान कर सकता है? विश्वामित्र जी को व्यर्थ हीं आप अपनी शूरवीरता को बताने कह रहे हैं. आप अब तक जितना स्वयं अपने बारे में कह चुके हैं वही क्या कम है? कुछ और अपने बारे में बखानना हो तो वो भी कर हीं डालिए. मैं अपनी खीज रोक धीरज के साथ उसे भी सुन लूंगा.
परशुराम उपस्थित जनसमूह को सम्बोधित करते हुए बोले- देख लो जनकपुर के लोगों! यह सूर्यवंशी निरा अशंक,कुबुद्धि कुलांगार बालक अब मरना हीं चाहता है; फिर अब कोई मुझे दोष नहीं देना.
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विश्वामित्र जी मन-ही-मन सोच रहे थे परशुराम इन दोनों भाईयों को साधारण क्षत्रिय कुलोद्भव समझ रहे हैं. इन्हें अब तक कदाचित आभास नहीं हुआ है कि ये लोहे की खांड़ हैं जिन्हें ये क्रोधावेश में महज ईख की खांड़ समझ बैठे हैं.
विश्वामित्र जी प्रकाश्यत: बोले- मुनिवर! छोटे की बातों को क्या धरना. बालकों के दोष को साधु क्षमा कर देते हैं.
परशुराम- क्या क्षमा! ये क्षमा का पात्र है? इसके कंठ में कुठार मैंने नहीं डाला तो फिर मैंने व्यर्थ हीं इस परसु को धारण कर परसुराम कहलाया.
नगर के उपस्थित समस्त नर-नारी परशुराम के क्रोध से भयभीत हैं किन्तु लखनलाल हैं कि बिना किसी डर-भय के परशुरामजी को नि:शंक होकर कटु एवं तिक्त उत्तर दे- देकर उनके क्रोध में आहूति डालते जा रहे हैं.
सब सोच रहे हैं कि ये छोटा राजकुंवर तो सचमुच बहुत खुराफाती है.परशुराम को अपने व्यंगवाण से कैसे घायल किए जा रहा है; डर भी नहीं हो रहा है. इधर परशुरामजी का गौरवर्ण क्रोध से लाल होता जा रहा है. शरीर क्रोध थर-थर कांप रहा है.
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यह देख श्रीराम आगे आए और अत्यंत विनीत भाव से परशुरामजी से बोले-मुनिवर! लखनलाल बालक है उस पर क्रोध नहीं कीजिए. बालक और बर्रे का स्वभाव एक जैसा होता है. ये दोनों छेड़ने से और उत्पात करना शुरू कर देते है.
राम के मुख से विनती भरे शब्दों को सुन परशुराम थोड़े ठंडे पड़े.
वे बोले -राम! एक तुम हो जो कितना मृदु वचन बोल रहे हो और ये तुम्हारा भाई? ये तुम्हारे जैसा क्यों नहीं है? ये नीच मुझे काल समान क्यों नहीं देखता? ये दुष्ट तो है हीं, पापी भी मालूम देता है. देखो न अभी भी मुझे देख कुटिलता से मुस्कुरा रहा है. क्रोध जाय तो कैसे?
अरे कोई है यहां? इस दुष्ट को मेरी नज़रों से कोई दूर तो करो.
लखन टपक पड़े- उपाय तो मुनि के अपने हाथ में हीं है.
आंखें मूंद लेने पर वैसे ही कुछ नहीं दिखता है. फिर हम भी नहीं दिखेंगे.
ये सुन परशुराम दांत पीसते हुए बोले- पता नहीं क्यों, मैं इसकी इतनी उद्दंडता को कैसे सहन कर पा रहा हूं.
सोचता हूॅं माता-पिता के ऋण तो मैं पहले ही उतार चुका हूं इसके गले में कुठार डाल थोड़े श्रम में हीं अपने गुरु के ऋण को भी उतार लूं.
लखन व्यंग्यपूर्ण हंसी हंसकर बोले- हाॅं! अब आप व्यवहारिक रास्ते पर आये. बोलिए कितना देने पर आपके गुरुजी का ऋण उतर जाएगा, तुरंत मैं अपनी थैली खोल दूॅं.
ये सुन राम लखन लाल को आंखों से डांटते हैं. महाराज जनक भी रूष्ट होकर बोले-बस करिये लखन! बहुत हुआ.
श्रीराम ने विनम्रतापूर्वक कहा-
भला उसे आपके बारे में यथार्थ ज्ञान रहता तो ऐसा कहता?
यदि आप मुनि के स्वभाव अनुरूप आते तो वह निश्चय ही आपके चरणों में शीश डाल आपके चरण रज को मस्तक में लगाता. असल में उससे भूल उसके क्षत्रिय स्वभाव वश हुआ है. उसने मुनि को हाथ में धनुष और कांधे पर कुठार देख अपने क्षत्रिय जाति से उत्पन्न स्वभाववश ऐसा उत्तर दिया है.
मुनिवर! अन्यथा कोई कारण नहीं कि वह ऐसा करें.
परशुराम- राम! तूं भी बड़ा छलिया मालूम पड़ता है. एक तरफ तूं मुझसे विनीत होकर बात करता है दूसरी तरफ तुम्हारा भाई अशिष्टता की पराकाष्ठा पार किए जा रहा है. मैं सब समझ रहा हूॅं यह सब तुम्हारी सम्मति से हो रहा है? तूं अपने को बहुत होशियार समझता है क्या? नहीं-नहीं, ये सब तुम्हारी हीं चाल है.
बहुत हुआ;पहले तूं मुझसे युद्ध कर. नहीं तो राम कहलाना छोड़.
श्रीराम मन-ही-मन सोचे. गुनाह लखन का और उल्टा क्रोध मुझ पर कर रहे हैं.
श्रीराम प्रकटत: बोले- मुनिवर! आप कृपा करके कुपित न होइये. हम सूर्यवंशी कभी भूलकर भी ऐसा नहीं कर सकते हैं. ऋषि-मुनि का आशीर्वाद हीं सूर्यवंश की प्रभुता का हेतु है. हम आपके बराबर कभी हो हीं नहीं सकते. कहां परसु सहित आपका बड़ा नाम परशुराम और कहां मेरा लघु नाम राम. कहीं सिर और पैर एक दूसरे की बराबरी कर सकते हैं? मुनिवर!आप हमसे सहज हीं श्रेष्ठ हैं. मुनि का आशीर्वाद हम सूर्यवंशियों के लिए संजीवनी है. यदि इतने पर भी आपका क्रोध शांत नहीं हो रहा हो तो हे विप्र-मुनिवर! मेरा मस्तक स्वामी के कुठार के आगे है. विप्र! अब अपराध तो मुझसे हो गया अब जिस विधि स्वामी का रीस उतर जाय मेरे इस मस्तक का इस्तेमाल प्रभु कीजिए.
परशुराम स्वयं को राम द्वारा बार-बार मुनि एवं विप्र के रूप में संबोधन सुन और कुपित हो गये.
वे बोले- मैं देख रहा हूॅं कि तुम भी अपने बन्धु समान हीं कुटिल हो.राम! क्या तुम मुझे निरा मुनि या विप्र हीं समझ बैठे हो जो अनेक बार मुझे मुनि-मुनि व विप्र-विप्र कह मेरा अपमान करने की चेष्टा कर रहे हो.
मैं कैसा मुनि या विप्र हूं तुझे बताऊं?
तो सुनो राम! मैं थोड़े में समझाता हूॅं कि मैं कैसा विप्र हूॅं. मैं वह विप्र हूॅं जिसका धनुष स्त्रुवा है और बाण आहूति.तूं मेरे क्रोध को उस यज्ञ की अग्नि जान तथा राजाओं की चतुरंगिनी सेना मेरे उस यज्ञ की समिधाएं हैं जिसमें विपुल बार मैंने कोटि-कोटि राजाओं को अपने फरसे से बलि देकर यज्ञ की पूर्णाहुति की है. समझ गये न?
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यह सुन श्रीराम बोले- आप मुझे गलत न समझें मुनिवर. कृपा कर मेरी विनती भी सुनिए.
यह विप्र वंश की हीं प्रभुता है कि जो आपसे डरता है वह अभय हो जाता है.
यदि आप को लगता है कि यह राम आप को विप्र वा मुनि समझ अपमानित कर रहा है जबकि आप स्वयं को शूरवीर हीं मान रहे हैं;तो आप भी सुनिए फिर ऐसा कौन वीर इस महितल पर उत्पन्न हुआ है जिससे यह राम लड़ने में समर्थ न हो. रघुवंशी के समक्ष यदि काल भी युद्ध में उपस्थित हो जाय तो भी कोई इस राम को कोई फर्क नहीं पड़ता.
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राम के मुख से ये बचन सुन परशुराम की मति में आश्चर्यजनक परिवर्तन हुआ.
उन्होंने अपने हाथ का विष्णु धनुष राम को थमाकर उन्हें जांचने के निमित्त अपना संदेह दूर करने की चेष्टा की.
वे देखते हैं कि वह विष्णु-धनुष आप-से-आप श्रीराम के हाथ में चला गया.
श्रीराम के हाथ में विष्णु धनुष का आप-से-आप चले जाने से उनका सारा संदेह जाता रहा. वे तुरंत श्रीराम की चरण वंदना करने हेतु झुके. किंतु श्रीराम ने उन्हें ऐसा करने नहीं दिया. झुकते परशुराम को उन्होंने फुर्ती से उठा लिया.
विष्णु का वह धनुष इस तरह राम के पास स्वयमेव जाते हीं परशुराम समझ गये कि भगवान ने अपना नवीन अवतार ग्रहण कर लिया है; अब परशुराम को पृथ्वी पर नहीं रहना था. वे महेंद्र पर्वत पर तप हेतु चले गए तथा अपना शेष जीवन का कालक्षेप वहीं किया.
जनकपुर में क्षणभर को व्याप्त तनावपूर्ण वातावरण एक बार फिर उल्लास,उत्साह और उमंग में बदल चुका था.
मुनि विश्वामित्र महाराज जनक से बोले- राजन!राम और सीता का विवाह तो धनुष टूटते हीं हो गया तथापि अब तुम अपने कुल और रीति अनुरूप विवाहोत्सव की तैयारी करो.
राजीव रंजन प्रभाकर.
२४.११.२०२२.
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