बुजुर्गों के प्रति हमारा व्यवहार
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आज अंतरराष्ट्रीय वृद्धजन दिवस (०१.१०.२०२२) है.
बुजुर्ग आज प्रायः "अपनों" से हीं "उपेक्षा" का दंश झेलने को अभिशप्त हैं.
उससे भी अधिक चिंता की बात अब ये हो चली है कि ये "उपेक्षा" अब तेजी से "क्रूरता"में बदल रही है.
ये "अपने" उनके कुछ ऐसे अपने हैं जिन्हें हम बेटा-बहू या बेटी-दामाद कहते हैं जिन्हें बनाने संवारने में उन्होंने क्या कुछ सही-गलत नहीं किया.
इन बुजुर्गों को सम्मान देना तो दूर इनसे सीधे मुंह बात इनका अपना हीं बेटा-बेटी नहीं करता;दूसरा भले ही करे.
क्या अनपढ़ क्या पढ़ा लिखा! इस मामले में सभी एक जैसे पाये जा रहे हैं. बल्कि पढ़ा-लिखा तो सूक्ष्म रूप से अपमानित करने में अनपढ़ से एक कदम आगे निकले दीख रहे हैं.
निश्चित रूप से वे भाग्यशाली हैं जो अपने घर में रहकर अपने बेटे-बहू से या उनके बच्चे से आदर-सम्मान एवं सेवा लाभ प्राप्त करते हैं. वरना अब तो पटना जैसे शहरों में भी कई वृद्धाश्रम खुल गये हैं जहां ऐसे उपेक्षित बुजुर्ग अपना अंतकाल व्यतीत करते हैं.
कई वृद्धजनों को तो वृद्धाश्रम में रहना हीं बाद में अच्छा लगने लगता है. कम से कम वहां उन्हें कोई जली-कटी तो नहीं सुनाता है.स्वास्थ एवं चिकित्सीय देखभाल जो होती है सो अलग.
लेकिन सभी लोगों को यह भी नसीब नहीं होता. वृद्धाश्रम में आश्रय का भी अर्थ से सीधा सम्बन्ध है. खैर.
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जवानी की रौ में बूढ़ों का तिरस्कार कालांतर में अपने हीं तिरस्कार को आमंत्रित करना है.
बात इतने पर ही नहीं रूकती बल्कि इसका परिणाम अंततः विनाशकारी सिद्ध होता है.
वृद्धजन की सलाह और अनुभव को जिसने भी तिरस्कृत किया वह नाश को प्राप्त हुआ है.
और यह भी कि जिसने भी उसपर समय रहते अमल किया वह नाश या हानि से बचा रहा.
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एक-दो उदाहरण "रामचरितमानस" से देना चाहता हूं.
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१.युद्ध में नित्य हो रहे पराभव से चिंतित रावण अपनी राक्षसी सभा में बैठ कर सभी सभासदों से विचार कर रहा है कि अब क्या किया जाए?
इस पर रावण का वृद्ध नाना माल्यवंत जो रावण का मंत्री भी था, ने रावण से कहा- राक्षसेन्द्र! जब से तुम सीता को हर लाये हो लंका में नित्य नए-नए उपद्रव हो रहे हैं. बिना युद्ध हुए उन्होंने तुम्हारे दो-दो पुत्रों को मार डाला;सोने की लंका उन्होंने जला डाली. मेरी मानो तो तुम सीता को सादर उन्हें राम के पास पहुंचा कर तुम इस अनावश्यक युद्ध से होने वाली जान माल की हानि से बच जाओगे.
माल्यवंत के इतना कहते हीं रावण गुस्से से भर उठा.
देखिए वह क्या कहता है-
बूढ़ भएसि न त मरतेउं तोही।
अब जनि नयन देखावसि मोही।।
रामचरितमानस, लंका काण्ड (४८-४९)
(तू बूढ़ा हो गया, नहीं तो अभी मैं तुझे पीटता.
भाग!अब मेरी आंखों को अपना मुंह न दिखला.)
उसे अपमानित करने पर रावण को क्या मिला?
अंततः वह नाश हीं नहीं अपितु सर्वनाश को प्राप्त हुआ.
इससे पहले भी वह माल्यवंत को अपमानित कर चुका था जब माल्यवंत ने सीता वापस करने वाली विभीषण की सलाह का समर्थन किया था.
माल्यवंत अति सचिव सयाना।*****
रिपु उतकरस कहत सठ दोउ।दूरि न करहु इहां हइ कोऊ।।
माल्यवंत गृह गयउ बहोरी। कहइ बिभीषण पुनि कर जोरी।।
रामचरितमानस; सुंदर काण्ड (३९-४०)
[रावण-अरे यहां कोई है! इन दोनों को इस सभा से कोई भगाओ तो सही! दोनों (विभीषण और माल्यवंत) शत्रु की महिमा का मेरे सामने बखान करने चला है.]
तब माल्यवंत तो घर लौट गया लेकिन विभीषण भ्राता रावण के पैर पकड़ निहोरा करता रहा और अंत में रावण के लात से मारने पर आहत हो लंका छोड़ श्रीराम की शरण में चला गया.
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२. बड़े-बुजुर्गों की बात को आदर देने से कैसे निषादराज गुह अनिष्ट से बच गए;इसका उदाहरण भी उसी रामचरितमानस में देखा जा सकता है.
भरतजी जब श्रीराम को अयोध्या वापस ले जाने हेतु गुरु वशिष्ठ, माताओं सहित मनाने चले तो उन्होंने यह सोचकर कि सबकुछ तो श्रीराम का हीं है सो साथ में राज्याभिषेक की समस्त वस्तुओं सहित चतुरंगिनी सेना को भी उन्होंने साथ ले लिया.
उन्होंने यह सोचकर ऐसा किया कि वन में हीं अपने स्वामी का राज्याभिषेक कुलगुरू वशिष्ठ से पूरे धूमधाम से करा दिया जाएगा.
श्रीराम के सखा और सेवक निषादराज गुह को यह समाचार मिला कि श्रीराम के भाई भरत श्रीराम से मिलने चित्रकूट जाने हेतु श्रृंगवेरपुर के निकट आ पहुंचे हैं.लेकिन साथ में उनकी चतुरंगिनी सेना भी है.
चतुरंगिनी सेना के साथ होने से गुह को यह स्वाभाविक संदेह हुआ कि कहीं श्रीराम से मिलने के बहाने भरत श्रीराम को मारने की सोच कर तो नहीं जा रहे हैं ताकि वे निष्कंटक राज कर सकें! अन्यथा चतुरंगिनी सेना को साथ लेकर जाने का क्या मतलब?
मन में यह बात आते हीं निषादराज गुह तैश में आ गए और सोचने लगे कि उनके जीते जी तो यह संभव नहीं है कि भरत श्रीराम का बाल भी बांका कर सकें.
निषादराज ने तुरंत अपने समाज के वीरजनों को बुलाकर कहा- सबलोग सावधान हो जाओ. नावों को कब्जे में लेकर उन्हें डूबा कर घाटों को रोक दो. सब लोग भरत से युद्ध में लड़कर मरने के लिए तैयार हो जाओ. मैं भरत से सामने लोहा लूंगा और अपने जीते जी भरत को गंगा पार नहीं उतरने दूंगा. वह सोच रहा है वन में राम नि:सहाय है! उसे इस निषाद के बल का अनुमान हीं नहीं है! कायर कहीं का!
इतना कहते ही निषाद समाज के सभी शूरवीर कवच पहन कर सिर पर लोहे का टोप लगा अपने-अपने फरसे,भाले एवं बरछों के साथ निकल पड़े.
जैसे वे निकले तो किसी ने छींक दिया.
इस पर एक निषाद समाज के एक बूढ़े ने सगुन विचार कर कहा- निषादराज! भरत से मिल लो. लेकिन लड़ाई मत करना. भरत श्रीराम को मनाने जा रहे हैं. हमरा शकुन अनुमान कहता है कि विरोध नहीं है.
यह सुनकर निषादराज गुह ने कहा- बूढ़ा ठीक कह रहा है. जल्दी में मूर्ख हीं कोई काम करता है. भरतजी का शील-स्वभाव जाने बिना हम लोग उनसे लड़ने के लिए एकाएक चल पड़े सो ठीक नहीं है.
अतएव हे वीरों! तुमलोग इकठ्ठे हो कर सब घाटों को रोक लो, मैं जाकर पहले भरतजी का भेद लेकर आता हूं.उनके मनोभाव को परख कर हीं आगे कुछ किया जाएगा. वैर और प्रेम किसी के छिपाने से भी नहीं छिपते. तुरंत सब कुछ पता चल जाएगा. तब जैसा कहूंगा वैसा आगे करना.
चौपाई देखिए-
बूढ़ु एकु कह सगुन विचारी।
भरतहि मिलिअ न होइहि रारी।।
रामहि भरत मनावन जाहीं।
सगुन कहइ अस बिग्रहु नाहीं।।
सुनि गुह कहइ नीक कह बूढ़ा।
सहसा करि पछिताहि बिमूढ़ा।।
भरत सुहाई सीलु बिनु बूझें।
बड़ि हित हानि जानि बिनु जूझें।।
रामचरितमानस; अयोध्या काण्ड (१९१-१९२)
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ऐसे अन्य प्रसंग भी रामचरितमानस में मिलते हैं.
बूढ़े जामवंत की सीख ने हीं पवनसुत हनुमान को अपनी शक्ति एवं बल का अहसास कराया जिससे वे समुद्र पार जाने में समर्थ हो सके.
बूढ़े जामवंतजीकी सलाह पर ही श्रीराम ने अंगद को अपना दूत बनाकर भेजा था.
कहने का सारांश यही है कि परिवार एवं समाज में वृद्धजन की सलाह प्रायः लाभदायक हीं होता है.
उनके सलाह को यदि हम outdated and inappropriate with respect to the current age समझ कर न माने तो भी उन्हें अपमानित करने का अधिकार किसी को नहीं है.
उन्हें सम्मानित या अपमानित कर हम अपने हीं संस्कार एवं व्यवहार का परिचय देते हैं.
जहां तक सम्मान देने पर क्या कुछ प्राप्त हो सकता है, वह निम्नलिखित श्लोक से स्पष्ट है-
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम।।
(जो व्यक्ति सुशील और विनम्र होते हैं, बड़ों का अभिवादन व सम्मान करने वाले होते हैं तथा अपने बुजुर्गों की सेवा करने वाले होते हैं। उनकी आयु, विद्या, कीर्ति और बल इन चारों में वृद्धि होती है.)
राजीव रंजन प्रभाकर.
०१.१०.२०२२.
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