कर्मविषयक कुछ शास्त्रोक्त सिद्धांत
कर्म के बारे में ठीक-ठीक जानना अत्यंत कठिन है फिर उसके बारे में कुछ कहना तो और भी कठिन है. बड़े-बड़े लोग इसमें चूक कर जाते हैं. अर्जुन तो मोह में आकर चूक कर हीं रहे थे कि भगवान ने उन्हें उबार लिया. लेकिन हमें उस चूक से बचाने के लिए अब उनकी वाणी हीं रह गई है या फिर शास्त्र में यत्र यत्र- तंत्र बिखरे अनमोल श्लोक जिस पर श्रद्धा एवं विश्वास पूर्वक चलने पर हम गड्ढे में गिरने से बच सकते हैं.
गीता में भगवान ने इस विषय में पहले हीं कह दिया है - "गहना कर्मनो गति:". क्या कर्म है क्या अकर्म है या विकर्म है इसका निर्णय करने में विद्वान और कर्म को तत्व से जानने का दावा करने वाले भी मोहित हो जाते देखे गए हैं.
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जो बुद्धिमान होते हैं वे बहुत सोच समझकर कोई काम करते हैं. फिर भी इस सम्बन्ध में ठीक-ठीक निर्णय करना कोई आसान काम नहीं है. प्रायः अपनी हीं स्वार्थ सिद्धि की दुर्वृत्ति हमारे उस निर्णय लेने की क्षमता को गड़बड़ा देती है.
मोटे अर्थ में जो कर्म व्यक्ति को बांधता हो उसे करने से बचना चाहिए. ऐसा तब हो सकता है जब हमें यह विश्वास करने का कारण हो कि अमुक कार्य करना हमारा कर्तव्य है.
सारांशत: कर्तव्य भाव से किया गया कर्म बंधनकारी नहीं होता है. कर्म करने के बाद भी मन मुक्त रहता है.
लेकिन क्या कर्तव्य है इसे निर्धारित करने में यदि अपना स्वार्थ केंद्र में है तो फिर वह फलरहित हो जाने पर क्लेशकारक हो जाता है. तब मन में क्रोध का संचार होता है. फलाकांक्षा से मोहित चित्त उत्तरोत्तर गलत-सलत निर्णय कराता जाता है जो बंधन को और मजबूत बना देता है.
इसे हीं शास्त्र कर्मपाश में बंधना कहता है.
और ये सभी का अनुभव है कि बंधन में कोई रहना नहीं चाहता.
यदि आप अपनी इच्छा से अपने हीं घर में हैं तो आप बंधन महसूस नहीं करेंगे किंतु जैसे ही कोई आपसे यह बोले कि तुम्हें अपने घर से इतने दिनों तक नहीं निकलना है आप तत्काल बंधन महसूस करने लगेंगे और उसी समय से आपको घर से बाहर निकल खुले में जाने की इच्छा जागृत हो जाएगी.
इसलिए आचार्य शंकर बंध या मोक्ष को अज्ञान कल्पित मानते हैं. इसकी सत्ता हीं अज्ञानता से है. अज्ञानता का हेतु मोह है तथा मोह के मूल में काम है.
यदि काम की पूर्ति हो गई तो वह लोभोत्पादक हो जाता है और यदि नहीं हुई तो उसे क्रोध में परिणत होते देर नहीं लगती.अस्तु.
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शास्त्र कहता है- जिस प्रकार हजारों गायों में बछड़ा अपनी मां को पहचान लेता है और उसके पीछे-पीछे चलता है ठीक उसी प्रकार पूर्वकृत कर्म कर्ता के पीछे-पीछे तब तक चलता है जब तक कि कर्ता उस कर्म के फल को भुगत न ले.
श्लोक देखिए-
यथा धेनु सहस्त्रेषु वत्सो अनुगच्छति मातरम्।
तथा पूर्वकृत कर्म: कर्तारमनुगच्छति ।।
कर्म चाहे शुभ हो अथवा अशुभ बिना फल भुगताए कर्ता को छोड़ने वाला नहीं है. हां;कर्ता यह नहीं जान सकता है कि उसे उस सत्कर्म/कुकर्म या अपकर्म को एकमुश्त भुगतना होगा या किश्तों में,इसी जन्म में अभी इसी वक्त या कभी बाद में अथवा उस किए गए कर्म को भुगतने हेतु दूसरा जन्म भी लेना पड़ सकता है; ऐसी बहुत सारी बातें हैं जिसे कर्ता चाहे लाख प्रयत्न कर ले यथेष्ट रूप में जान हीं नहीं सकता.
हां; वह अपनी- अपनी बुद्धि के अनुसार अनुमान लगाने के लिए स्वतंत्र है.
इससे सम्बन्धित एक श्लोक देखिए-
अवश्यमेव हि भोक्तव्यं कृतकर्मशुभाशुभम्।
नाभुंक्तं क्षीयते कर्म जन्मकल्पकोटिशतैरपि।।
पिछले जन्म का वह कर्म जो फल में परिणत नहीं हो पाया या आंशिक रूप से ही फलित हो पाया वही वर्तमान जन्म में प्रारब्ध कहलाता है जिसे व्यक्ति को भुगतना हीं पड़ता है.
पुरूषार्थ (वर्तमान कर्म) के अनुसार यदि उसका फल नहीं मिल रहा हो तो यह समझना चाहिए कि प्रारब्ध (जो संचित कर्म से निर्धारित होता है)पुरूषार्थ (जो क्रियमान कर्म से निर्मित होता है) पर प्रबल है. यदि प्रत्यक्षतः कोई हीन अथवा नीच कर्म करने के बावजूद किसी की बढ़ती देखने में आवे तो समझना चाहिए उसका पूर्वजन्मकृत सत्कर्म प्रबल प्रारब्ध के रूप में फलित हो रहा है तथा उसका वर्तमान का हीन अथवा नीच कर्म आगे फल देने हेतु संचित हो रहा है.
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विद्वानों का यह भी मत है कि सत्कर्म के फलीभूत होने में जितना समय लगता है उससे कहीं जल्दी मनुष्य को अपने खराब कृत्यों के फल को चखना पड़ता है. कर्मफल भुगतने पापक्षय के दृष्टिकोण से इसे अच्छा हीं समझना चाहिए. क्योंकि जब अच्छे या बुरे दोनों फलों को हमें चखना हीं है तो क्यों न पहले अपने बुरे कर्मों के फल पहले ही भुगत लिया जाए तथा आगे से कर्म करने में यथेष्ट सावधानी बरता जाए.
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प्रारब्ध और पुरुषार्थ के बीच का यह संघर्ष जीवनपर्यंत चलता रहता है. कौन- कब विजयी होता दिखता है, इसे ज्ञान नेत्र से ही देखा जा सकता है.
योगवशिष्ठ में इसकी कल्पना दो बलशाली भैंसा जो सतत एक-दूसरे से सिंह फंसा कर लड़ते रहते हैं, से की गई है. समय-समय पर ये एक दूसरे को पछाड़ते देखे जाते हैं.
इससे यह स्पष्ट होता है कि हम जो भी लौकिक-पारमार्थिक कार्य करते हैं वह फलविहीन हो ही नहीं सकता. इसलिए कर्म करने में अत्यंत सावधानी बरतने की आवश्यकता है. यदि कर्म दूषित हुआ तो पक्का मानिए कि वह जो फल देगा वह आज न कल हमारे क्लेश का हेतु बनेगा.
इसी प्रकार हमारे द्वारा किए गए अच्छे कार्य भी प्रसादोत्पादक होंगे. यह मेरे ख्याल से यह एक विशुद्ध विज्ञान है. जैसे पदार्थ विज्ञान में न्यूटन की गति के नियम को जो प्रतिष्ठा प्राप्त है उसी प्रकार की व्यापकता इस कर्मफल के सिद्धांत को प्राप्त है.
गोस्वामी तुलसीदासजी ने मानस में अपने तरीके से इसकी घोषणा कर दी है-
कर्म प्रधान विश्व रचि राखा।
जो जस करहि सो तस फल चाखा।।
किसी वैज्ञानिक नियम या सिद्धांत में तो कुछ अपवाद या लागू होने की कतिपय शर्तें भी हो सकती हैं; किंतु इस कर्मफल के सिद्धांत में किसी अपवाद की कोई गुंजाइश नहीं है.
राजीव रंजन प्रभाकर.
२८.०७.२०२२.
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