एक वार्तालाप: भगवान और उनके एक भोगासक्त साधक के बीच.
एक वार्तालाप: भगवान और उनके एक भोगासक्त साधक के बीच.
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भगवान अपने भक्तों को बहुत सुविधा दिये हुए हैं. और हम हैं कि *******
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जरा देखिए.
वे कहते हैं- मेरी भक्ति जरा भी कठिन नहीं है; बात ये है कि तुमने उसे कठिन समझ रखा है.
मेरी तुमसे कोई विशेष अपेक्षा तो है नहीं. यदि तुम अपने मन और बुद्धि को मेरे में लगा ले तो इतने से हीं तूं मेरा भक्त हो गया. क्योंकि ऐसा तेरा मन और बुद्धि मेरे में निवेश होने पर समझो कि तुम मुझमें हीं निवास कर रहे हो.
बस और कुछ करने की आवश्यकता हीं नहीं.
साधक कहता है- ये बातें सुनने में तो बड़ी सरल लगती है प्रभु!पर ऐसा हो नहीं पाता. मैं ठहरा सांसारिक प्राणी!इस संसार में तुम्हारे में मन बुद्धि लगाना इतना आसान भी नहीं है.और भी तरह के काम-धंधे हैं इस साधक को. तुम समझते हीं नहीं!
भगवान कहते हैं- अच्छा कोई बात नहीं. इससे भी सरल उपाय है.तुम मुझे प्राप्त करने की इच्छा तो कर हीं सकते हो.अभ्यास से वही करो. जब इतने तरह की तुम लौकिक इच्छा कर सकते हो तो मेरी प्राप्ति की इच्छा क्यों नहीं?तुम अभ्यास से मात्र इतना हीं करो. इसी से तू मेरा भक्त हो जाएगा.
साधक- हूं, बात तो ठीक है;सरल भी मालूम पड़ती है. लेकिन अन्य सांसारिक इच्छाओं के सामने तुम्हें पाने की इच्छा का ख्याल हीं नहीं आता है. मैं सच कह रहा हूं.
भगवान- ठीक है. यदि यह अभ्यास भी तुम करने में स्वयं को असमर्थ पाते हो तो भी उपाय है.
साधक -वह क्या?
भगवान कहते हैं यदि तू अभ्यास में भी अपने को असमर्थ पाता है तो फिर तूं अपने इस सांसारिक जीवन में जो भी लौकिक-पारमार्थिक कर्म करता है उसे तुम मुझे अर्पण कर दे.फिर बिना किसी बाधा के जो तूं कर रहा है किया कर.उससे भी तूं सुगमतापूर्वक मुझे हीं प्राप्त होगा.
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साधक कुछ देर सोचने लग जाता है.
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भगवान कहते हैं-क्या सोच में पड़ गए?अपने कर्मों को मुझमें अर्पण करने का भी मन नहीं है क्या तेरा? क्या दुविधा है तेरी? बता तो सही.
साधक कुछ नहीं बोलता.
भगवान फिर सोचकर कहते हैं- तो फिर तू मात्र एक काम कर. इसी से तुझे तत्काल शांति मिल जाएगी.
यदि तू अपने सम्पूर्ण कर्मों को मुझे भी अर्पण न कर सके अर्थात् मेरे लिए सभी कर्म न कर सके तो उन कर्मों को जो तूं कर रहा है, में फल की इच्छा का त्याग कर दे; क्योंकि फलेच्छा हीं बांधने वाली है.इसके त्याग मात्र से तुम्हें तत्काल शांति मिल जाएगी.
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बात सोलह आने सही है.फल की इच्छा को पाल कर देखिए.चित्त कितना चंचल रहता है. कभी-कभी अत्यंत उद्विग्न भी.
फलेच्छा से शांति का अपहरण हो जाता है. यह प्रायः सभी का अनुभव है.
किंतु फल की इच्छा का त्याग भी हम जैसे कामी के लिए कोई कम कठिन उद्योग नहीं है.
काश इसके आगे भी भगवान समाधानस्वरुप कोई उपाय बताते!
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यदि इच्छा का त्याग न हो सके तो इच्छा को आसक्ति में बदलने में रोकने पर हम अपनी पूरी शक्ति लगा दें. क्योंकि, जहां तक मेरी समझ है, इच्छा जब आसक्ति में बदल जाती है तो हमसे कोई-न-कोई अनुचित कार्य करा हीं देती है.
हम दीन हो जाते हैं,दशा दयनीय हो जाती है. व्यक्तित्व निस्तेज हो जाता है,आदि-आदि.
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भगवान और साधक के मध्य का यह वार्तालाप और कुछ नहीं बल्कि भगवद्गीता के बारहवें अध्याय जो भक्तियोग के नाम से जाना जाता है, के निम्नांकित श्लोकों पर आधारित है जिसे मैंने आपके समक्ष निवेदित किया है.
इसमें भगवान अर्जुन को कहते हैं-
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धि निवेशय।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशय:।।(12/8)
(तूं मुझमें मन को लगा और मुझमें हीं बुद्धि को लगा; इसके उपरांत तू मुझमें ही निवास करेगा.इसमें कुछ भी संशय नहीं है)
अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम्।
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय।।(12/9)
(यदि तू मन को मुझमें लगाने में भी समर्थ नहीं है तो हे अर्जुन! अभ्यास के द्वारा मुझको प्राप्त होने के लिए इच्छा कर.)
अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव।
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि।।(12/10)
(यदि तू उपर्युक्त अभ्यास में भी असमर्थ है तो केवल मेरे लिए कर्म करने के ही परायण हो जा.इस प्रकार मेरे निमित्त कर्मों को करता हुआ भी मेरी प्राप्तिरूप सिद्धि को ही प्राप्त होगा.)
अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रित:।
सर्वकर्मफलत्यागं तय: कुरू यतात्मवान्।।(12/11)
(यदि मेरी प्राप्तिरूप योग के आश्रित होकर उपर्युक्त साधन को करने में भी तू असमर्थ है तो मन-बुद्धि आदि पर विजय प्राप्त करनेवाला होकर सब कर्मों के फल का त्याग कर.)
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भगवान ने कर्मफल की इच्छा के त्याग को सभी साधनों से श्रेष्ठ कहा है.
देखिए उसी अध्याय का निम्नांकित श्लोक-
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्।।(12/12)
(अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है; ज्ञान से मुझ परमेश्वर के स्वरूप का ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यान से भी सभी कर्मों के फल की इच्छा का त्याग श्रेष्ठ है; क्योंकि त्याग से तत्काल ही परम शांति होती है.)
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राजीव रंजन प्रभाकर.
०३.०७.२०२२.
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