सेवक हनुमान जब स्वामी श्रीराम से पहली बार मिले
ऋष्यमूक पर्वत पर सुग्रीव अपने पार्षदों के साथ बैठे थे. ये उनके दुर्दिन के दौर थे. बालि भय से भयकम्पित सुग्रीव के लिए ऋष्यमूक पर्वत ही वह शरणस्थली थी जहां बालि शापवश नहीं आ सकता था. सदैव सशंकित सुग्रीव प्राणभय से अपने सुंदर गर्दन को घुमा-घुमाकर पर्वत के चहुंओर हमेशा यह देखने की कोशिश करता कि कहीं बालि ने उसकी टोह में कोई गुप्तचर तो नहीं भेजा है.
सीतावियोग से दुखार्त राम-लक्ष्मण की आंखें सीतान्वेषण में तत्पर हो इधर-उधर देख रही थी. पर्वत पर बैठे सुग्रीव ने उन्हें दूर से हीं देख लिया. उन्हें देखते हुए सुग्रीव का हृदय शंका और भय से भर आया था.
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"हनुमान! क्या तुम भी वही देख रहे हो जो मैं देख रहा हूं?" सुग्रीव ने भयार्त नेत्रों से अपने सेवक हनुमान की तरफ देखकर कहा.
"हनुमान! मुझे तो वे दोनों क्षत्रिय इधर हीं आते दिख रहे हैं. प्रत्यक्षतः ऐसा दिख रहा है कि ये किसी को खोज रहे हैं. हो न हो मेरे लिए ज्येष्ठ किंतु कालरुप बालि ने इन्हें मेरा पता लगाने भेजा हो. तुम उस बलिष्ठ बालि को नहीं जानते किंतु मैं उसके स्वभाव से भलिभांति परिचित हूं. वह बहुत ही क्रूर है.भले ही शापवश वह यहां नहीं आए किंतु पता लगते हीं मेरा वध करने की नीयत से वह अपनी सम्पूर्ण वानरी सेना को यहां भेज देगा.
मेरे प्रिय हनुमान!तुम ऐसा करो कि किसी युक्ति से इनके इस निर्जन बिपिन में घूमने के प्रयोजन पता करो. अगर तुम्हें ये पता चल जाय कि ये बालि के प्रपंच से परिचालित होकर मेरे लिए अरण्यान्वेषण कर रहे हैं तो तुम दूर से ही मुझे संकेत दे देना. मैं भला क्या कर सकता हूं; यहां से भी मैं किसी अज्ञात स्थल को अपने प्राण रक्षार्थ तुरंत भाग लूंगा. हा! विधाता की भी मेरे लिए क्या योजना है;समझ में नहीं आता. घड़ी-दो-घड़ी के लिए राजा क्या बना जान ही गंवाने की आ पड़ी है.
और राजा क्या मैं अपने मन से बना था? तत्समय नृपविहीन किष्किंधावासी ने हीं तो उसका राज्याभिषेक कर दिया था. पर क्या क्रोधांध बालि ये सच्चाई सुनने के लिए तैयार भी है? उसका मन तो मेरे प्रति इतना मलिन हो चुका है कि इस सफाई का उसके लिए कोई अर्थ नहीं." विह्वल सुग्रीव अपनी व्यथा हनुमान को कहे जा रहे थे.
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ब्रह्मचारी का रुपधारण किए हनुमान ने विनम्रतापूर्वक पूछा- धृष्टता क्षमा हो!हे श्याम एवं गौरशरीरधारी! हे अलौकिक ओज एवं तेजसम्पन्न युवकद्वय! आप कौन हैं? इस कठोर शिला एवं कंटकाच्छादित वनखंड में घोर घाम तथा तप्तवायु को सहन कर आप क्यों विचरण कर रहे हैं? क्या आप ब्रह्मा, विष्णु, महेश-इन तीनों देवताओं में से कोई हैं? या आप दोनों नर और नारायण हैं? अथवा आप सम्पूर्ण लोकों के स्वामी स्वयं भगवान हैं जिन्होंने लोगों को भवसागर से पार उतारने तथा पृथ्वी का भार नष्ट करने के लिए मनुष्य रूप में अवतार लिया है? क्षमा करें सुंदर सुकुमार वीर! अपने कोमलपद से विचरणे का प्रयोजन यदि आप बताने योग्य समझते हैं तो हे वीरवर!मुझे इसका यश प्रदान करें.निषंगचापसायकधारण किये आपके इस क्षत्रियरूप को देख मैं अत्यंत मोहित हो रहा हूं.
भगवान श्रीराम ने कहा- विप्र! हम कौशलेश दशरथ के पुत्र हैं. मेरा नाम राम है और यह मेरा अनुज लक्ष्मण है. पिता के वचन को शिरोधार्य कर मैं वन को आया था. वन में हीं मेरी पत्नी वैदेही का राक्षसों ने अपहरण कर लिया है. भूदेव! इसीलिए हम इस वन में अपनी प्रिया की खोज में भटक रहे हैं.
मेरा परिचय तो यही है विप्र! कृपा करके अब आप अपने बारे में भी बुझा कर कहिए.
यह सुनते ही हनुमान ने अपने प्रभु को पहचान लिया. वे ब्राह्मण का वेश त्याग तत्क्षण अकुलाकर प्रभु के पैरों पर गिर पड़े.शरीर पुलकित है,मुख से वचन नहीं निकल रहा. नेत्रों से नीर बह रहे हैं;साथ ही अपने नाथ को पहचान लेने से हृदय में अपार हर्ष हो रहा है.
हनुमानजी बोले- हे स्वामी! मुझ जैसे मंदमति वानर-बुद्धि जीव का आपसे परिचय पूछना तो समझ में आता है क्योंकि मैंने वर्षों बाद आपको देखा और वह भी एक तपस्वी के वेष में;किंतु आप मनुष्य की तरह कैसे पूछ रहे हैं?
प्रभु आपकी माया प्रबल है.मैंने अपने स्वामी (आप) को नहीं पहचाना! हनुमान ने विह्वल होकर कहा. मेरे नयनों को धिक्कार है जो अपने नाथ को भी न पहचान सकीं. मेरे मुख को भी धिक्कार है जो अपने स्वामी से ही उनका परिचय मांगे.
हनुमान के प्रेमाश्रु से प्रभु के चरण भींग गये. रघुनाथजी ने उठाकर हनुमान को अपने हृदय से लगा लिया. उनके नेत्रों के जल हनुमान के माथे को सींचकर जुड़ा रहे थे.
लताऐं हिलने लगी. मृगशावक अपने-अपने हीं जगह पर कूदने लगे. तप्त वायु की प्रकृति मलियानिल हो चली. पेड़ों पर बैठे शकुन्त अनायास चहचहाने लगे.
भक्त का अपने भगवान से मिलन हो रहा था.
स्वामी को अनुकूल देख पवनकुमार ने दोनों भाइयों को कंधे पर बिठा लिया और ऋष्यमूक की तरफ चले.
सुग्रीव जो पर्वत पर से हीं यह सब देख रहे थे,आश्वस्त हो चले कि खतरा जैसा कुछ भी नहीं अपितु कंधे पर दोनों भाइयों को बिठाये हनुमान का प्रसन्न मुखमंडल उन्हें संकेत दे रहा था कि सब कुछ अच्छा है और आगे भी अच्छा ही होनेवाला है.
(श्रीराम-हनुमान का यह मिलन का प्रसंग मैंने गोस्वामीजी रचित रामचरितमानस के किष्किन्धाकाण्ड में वर्णित प्रकरण का आश्रय लेकर लिखा है जिसके वर्णन दोष को पाठक पहचान कर भी अनजान बने रहें;ऐसी आशा है.)
राजीव रंजन प्रभाकर.
२५.१२.२०२१.
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