देवर्षि नारद का अभिमान भंग
देवर्षि नारदजी भगवान के अन्यतम भक्त थे किन्तु उन्हें भी भगवान की माया ने प्रताड़ित नहीं किया हो;ऐसा नहीं है. हालांकि इसके साथ ही यह भी सत्य है कि सच्चे भक्त को मोहाभिमान से बचाना भी भगवान् का हीं जिम्मा है.यह उनका प्रथम कर्त्तव्य है.
हम सभी जानते हैं कि कैसे एक बार मुनि को यह अभिमान हो चला कि वे कामविजयी हो गये हैं और अभिमानवश इसकी चर्चा उन्होंने कैलाश जाकर भगवान शंकर से की थी. कामारि भगवान् शंकर ने तब मुनि को यह नेक सलाह जरूर दिया कि- 'मुनिवर! अपने इस कामविजयविषयक प्रसंग की चर्चा भूल से भी करूणा-वरूणालय परमकौतुकी श्रीहरि से नहीं कीजियेगा;वे पूछे तब भी नहीं.'
किन्तु देवर्षि के अभिमान का परिमाण इतना हो गया था कि नारद स्वयं को संयत नहीं कर पाये.सलाह के विपरीत उन्होंने अपने कामविजयगाथा का बखान जाकर विश्वपालक भगवान विष्णु से कर हीं दिया.नारदजी का अहंकार-अभिमान प्रभु ताड़ गये.परिणाम क्या हुआ, ये हम जानते हैं. अपने कामविजय से फूले नारद एकबारगी हीं कामातुर हो गये. एक राजकुमारी को पाने के लिए कैसे हरि से व्यग्र हो दीनयाचना की, कैसे वही नारद ने राजकुमारी के स्वयम्बर में भाग लिया, हरि से कपिमुख पाकर कैसे वे उपहास के पात्र बने ,क्रोधावेश में आकर किस प्रकार उन्होंने भगवान को हीं शाप दे डाला आदि आदि. ये एक अलग कथा है.
भगवान भी परमकौतुकी हैं किन्तु भगवान भक्त का कल्याण जिसमें होता है, वही करते हैं चाहे इसके लिये उन्हें नादान भक्त का शाप हीं क्यों न ग्रहण करना पड़े,नानाविध कष्ट हीं क्यों न उठाना पड़े.
तुलसीकृत मानस में इस प्रसंग का बहुत हीं सुरूचिपूर्ण वर्णन है. अस्तु.
गर्ग संहिता में नारदजी के अभिमानग्रस्त होने का एक दूसरा प्रसंग भी है. इसी की चर्चा अभी करना प्रस्तुत निवेदन का उद्देश्य है.
भगवान की लीला; देवर्षि को पुनः एक बार मन में दर्प हो आया कि सम्पूर्ण त्रिलोकी में उनके जैसा संगीतज्ञ कोई नहीं है. घमंडार्णव में निमग्न नारद सम्पूर्ण त्रिलोकी में त्रिकालाबाधित गति से वीणावादन करते अहंभाव से विचरण करते रहते. इसी घमंड भ्रमण के क्रम में नारदजी को कष्ट से व्याकुल हो रहे दिव्य देव-देवीगण जिनके हाथ और पैर क्षत-विक्षत थे,रास्ते में कराहते हुए मिले.
परिचय पूछने पर उन्होंने नारदजी से कहा, " हम राग-रागिनियां हैं. हमारी दुर्दशा का कारण कोई नारद नामक संगीतानभिज्ञ है जिसने अपने त्रुटिपूर्ण गायन वादन से हमारे सारे अंगों को क्षत-विक्षत कर डाला है.
सो हे मुनिवर! यदि आप विष्णु लोक को जा रहे हों तो भगवान नारायण से मेरी प्रार्थना कहियेगा जिससे मेरे ये छिन्न-भिन्न हुए अंग पुन: मेरे शरीर में जुट जायें; अब और कष्ट सहा नहीं जाता."
नारदजी स्वयं के बारे में ये वचन सुन मन ही मन क्रुद्ध तो हुए हीं साथ हीं खिन्न भी हुए. विष्णु लोक पहुंचने पर भगवान ने खिन्नमना नारद से उनकी उदासी एवं व्यथा का कारण पूछा.
सम्पूर्ण वृतांत सुन भगवान ने कहा, "नारद! संगीत जैसे ललितकला का मुझे तो कोई विशेष ज्ञान है नहीं कि मैं इनके कष्ट का निवारण कर सकूं. उनका क्षत विक्षत अंग तभी उनके शरीर में जुड़ सकता है जब संगीत विद्या में कोई निपुणातिनिपुण इसका गायन वादन करे. इस गायन के प्रभाव से हीं राग रागिनियों के ये अंग जुट सकते हैं और कोई उपाय मुझे नहीं सूझता. तुम ऐसा करो कैलास पर्वत पर विराजमान शांतरस का पान कर रहे शंकर की शरण में जाकर उनसे निवेदन करो कि वे कुछ गायन करें ताकि इन राग रागिनी का कष्ट दूर हो सके."
भगवान के मुख से ये बातें सुन नारद मन ही मन और कुढ़ गये. भला देखिये तो भगवान ऐसी बातें कह रहे हैं जैसे मुझे संगीत की कोई समझ ही नहीं हो!मेरे जैसे संगीतशिरोमणि के रहते मुझे गाने की आज्ञा न देकर शंकर के समीप जाने को कह रहे हैं. और तो और मैंने तो शंकरजी को कभी गाते नहीं देखा.कभी कभी भगवान भी न! खैर.
इस तरह से नारदजी प्रभु को कोसते कैलास को चले.
सारी कथा सुनने के पश्चात शंकरजी बोले, "वो तो ठीक है कि यदि मैं गायन करूं तो इनके हाथ-पांव जुड़ जायें किन्तु मेरे गायन का कोई उत्तम अधिकारी श्रोता भी तो होना चाहिये."
नारदजी को यहां भी झटका लगा.
वे संगीत के उत्तम- अधिकारी श्रोता भी नहीं है, ये जान नारदजी का रहा सहा अभिमान भी जाता रहा. चित्त को व्यवस्थित कर उन्होंने शंकरजी से हीं पूछा कि प्रभु बताया जाय कि आपके गायन-वादन का अधिकारी एवं उत्तम श्रोता कौन हैं तथा वे कहां मिलेंगे तो शिवजी बोले," मेरे संगीत का उत्तम एवं अधिकारी श्रोता तो सम्पूर्ण त्रिलोकी में एकमात्र नारायण श्रीविष्णु हीं हैं;यदि श्रोता के रूप श्रीहरि स्वयं यहां पधारे तो ये उनकी महती कृपा होगी."
महादेव के मुख से ये वचन सुन नारदजी का दर्प चूर-चूर हो गया. इससे उन्हें पता चल गया कि वे न तो संगीत के विषारद हैं न हीं संगीत के योग्य उत्तम- अधिकारी श्रोता.
लज्जित एवं नमितमुख नारद ने भगवान से क्षमा मांगी और श्रीहरि को निवेदनपूर्वक कैलाश लिवा लाये जहां महादेव ने संगीत की तान छेड़ी जिसके श्रीहरि श्रोता बने. इस अपूर्व तान का जैसे-जैसे विस्तार होता गया राग-रागिनियों के कटे अंग आपस में जुड़ते चले गये.
इस तरह भगवान ने राग-रागिनियों के कष्ट का निवारण तो किया हीं,भक्त नारद को भी अपने अभिमान से मुक्त कर दिया.
कभी कभी बड़े से बड़े भक्त भी भगवान की भुवनमोहिनी माया के वशीभूत हो स्वयं को कुछ का कुछ समझ बैठते हैं जब कि वास्तव में उनके पास जो कुछ भी श्रेष्ठ, श्री या ऐश्वर्य है, वह उनका अपना नहीं हैै;बल्कि वह तो उसी गुणागार गोविन्द के अगणित गुणों का अंशमात्र हैं. प्रमादवश इसे हम अपनी उपलब्धि मान बैठते हैं.इस भ्रम से हम जितनी जल्दी निकल लें ये हमारे अहं को गलित होने में उतना हीं सहायक होगा.
शेष भगवत्कृपा.
राजीव रंजन प्रभाकर.
१२.०७.२०२०.
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