जीवात्मा और परमात्मा में क्या भेद है?

सबसे पहले तो क्षमा याचना कि इस विषय पर कुछ भी बोलने-लिखने में मैं स्वयं को सर्वथा अनधिकारी मानता हूं.कारण भी प्राय: स्पष्ट हीं है;चंद धार्मिक पुस्तक पढ़ कर एवं उसी का आश्रय लेकर कुछ लिख देने या बोल लेने का यह आशय कदापि नहीं हो सकता है कि मैं इन गूढ़ तत्वों को यथार्थत: उसके सूक्ष्मांश में भी कुछ जानता हूं. फिर भेद की बात कौन कहे! इन तत्वों का परमार्थिक ज्ञान उन्हीं को हो सका है जिनका जीवन ही साधनामय रहा है. साधना का स्वरुप चाहे उनका ज्ञान हो, भक्ति हो अथवा शास्त्रचिंतन एवं शास्त्रोक्त आचरण.
मेरे जैसे विषयचिंतक का इस पर कुछ लिखना बुद्धि का व्यायाम मात्र हीं है.अस्तु.
एक दृष्टि तो यह भी कहती है कि इन दोनों में कोई भेद है हीं नहीं. प्रखर,प्रवर एवं अनुपम सन्यासी आचार्य शंकर तो यहां तक कहते हैं कि "मैं हीं ब्रह्म हूं" (अहम् ब्रह्मास्मि).
इसे उनकी साधना एवं ज्ञान की पराकाष्ठा ही कहना उचित होगा कि उन्होंने भेदाभेद से परे स्वयं को हीं ब्रह्म माना. यों तो तात्विक रूप से यह संसार अभेदमूलक हीं है तथा जो भेद भासित है उसका हेतु वही है जिसे ज्ञानी माया कहते हैं.
इस प्रकार तत्वज्ञ की दृष्टि में सब कुछ ब्रह्म हीं है-"सर्वं खल्विदं ब्रह्मम्"(छान्दोग्योपनिषद् ३/१४/१). फिर क्या जीवात्मा और क्या परमात्मा!वेदोक्त महावाक्य "तत्वमऽसि" से भी यही अभीष्ट है.
लेकिन यह बताना प्रासंगिक है कि ज्ञानी जिसे ब्रह्म (सर्वं खल्विदं ब्रह्मं)कहता है उसे ही एक भगवद्भक्त परमात्मा या ईश्वर कहता है-वासुदेव:सर्वमिति(श्रीमद्भगवद्गीता ७/१९). इस प्रकार दोनों का गंतव्य एक हीं है. एक की वृत्ति आत्मस्वरूप के अनुसंधान के माध्यम से ब्रह्म की प्राप्ति की चेष्टा है तो दूसरे की उस परमात्मा ईश्वर के प्रति आत्मनिवेदन एवं आत्मसमर्पण की.
लेकिन यहां प्रश्न भेद मान कर किया गया है, अतः इस दृष्टि से निवेदन है कि
जीवात्मा और परमात्मा में वही भेद है जो सूक्ष्मकाय और महाकाय में है; अर्थात् भेद परिमाण का है स्वरुप का नहीं.क्या बाल्टी में संचित जल समुद्र द्वारा धारित जल की बराबरी कर सकता है? शायद इसी को लक्ष्य कर परम तत्वज्ञानी,भक्तमाल के सुमेरू गोस्वामीजी ने मानस में कहा है-
मायाबस परिछिन्न जड़ जीव की ईस समान.
                                          उत्तरकाण्ड,१११(ख).
सच है क्या जीव कभी ईश हो सकता है?  किन्तु  चेतनांश में दोनों हीं एक हैं. जैसे बाल्टी का पानी भी पानी और समुद्र का पानी भी पानी.
ईश्वर और जीव दोनों हीं चेतन,आनन्दस्वरुप और अविनाशी हैं.अन्तर इतना हीं है कि जीव अंश है और ईश्वर अंशी.जीव परतंत्र है और ईश्वर स्वतंत्र.जीव दास है और ईश्वर स्वामी.जीव अल्पज्ञ है और ईश्वर सर्वज्ञ.जीव की शक्ति सीमित है और ईश्वर की असीम.जीव माया के अधीन है और ईश्वर माया के अधिपति.जीव अपने को, माया को तथा ईश्वर को भी नहीं जानता और ईश्वर सबके ज्ञाता,प्रेरक तथा बन्ध-मोक्ष के दाता हैं.ईश्वर एक है और जीव अनेक.ईश्वर परम महान् है और जीव अणु. जीव कर्मों के अधीन हो जन्म-मृत्यु के चक्कर में पड़ता है और ईश्वर अजन्मा तथा अव्ययात्मा हैं.
इस प्रकार चेतनांश में एकता को यदि बाद कर दिया जाय तो जीव और ईश्वर में भारी भेद है.
राजीव रंजन प्रभाकर.
गुरु पूर्णिमा
०५.०७.२०२०.

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