धार्मिक अनुष्ठान में स्नान का महत्व और उसके प्रकार

हमारा धर्म तन की शुद्धि और भाव की शुद्धि पर समान रुप से बल देता है।प्रातः काल स्नान करने के पश्चात मनुष्य शुद्ध होकर जप पूजा-पाठ आदि समस्त कर्मों के योग्य हो जाता है। दक्षस्मृति में प्रातः स्नान का महत्व निम्नरूपेण वर्णित है - प्रातः स्नानं प्रशंसन्ति दृष्टादृष्टकरं हि तत्। सर्वमर्हति शुद्धात्मा प्रातः स्नायी जपादिकम्।। ऐसी मान्यता है कि स्नान तन एवं मन दोनों की शुद्धि में सहायक होता है।तन की शुद्धि के लिए तो यह परमावश्यक है ही यदि साधक का ऐसा अभ्यास हो तो मात्र आपो हि ष्ठा० के श्रद्धापूर्वक उच्चारण मात्र से स्नान सम्पन्न समझा जाता है। धार्मिक मान्यता यही कहती है। ऐसा कदाचित् आपको भी अनुभव हो सकता है कि बिना स्नान के तन में उस निर्मलता का अहसास नहीं होता है जो भगवान् के पूजन अथवा आराधन में हम जरुरी समझते हैं। वेद स्मृति में कहे गये समस्त कार्य स्नानमूलक हैं, अतएव लक्ष्मी, पुष्टि एवं आरोग्य की वृद्धि चाहनेवाले मनुष्य को स्नान में प्रमाद कभी नहीं करना चाहिये। स्नानमूलाः क्रियाः सर्वाः श्रुतिस्मृत्युदिता नृणाम्। तस्मात् स्नान निषेवेत श्रीपुष्ट्यारोग्यवर्धनम्।। अस्तु। पूजा एवं...