Posts

Showing posts from June, 2025

कस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता?

कस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता?       वशे हि यस्य इन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता.                                      (२/६१)       इन्द्रियाणि इन्द्रियार्थेभ्य: तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता.                                      (२/५८) (२/६८)       न अभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता.                                      (२/५७)                         From the Bhagavad Gita. 

Did You Know?

Knowing these words is not necessary at all.           However knowing them may be interesting to those who are driven by the passion to enrich their vocabulary. So here is the list- Did you know? 1. The cry of a new born baby is called 'vagitus'. 2. The space between your eyebrows is called 'glabella'. 3. The little toe or finger is called 'minimus'. 4. The sick feeling that you get after eating and drinking too much is called 'crapulence'. 5. The space between your nostrils is called 'columella nasi'. 6. The sheen of light that you see when you close your eyes and press your hands on them is called 'phosphenes'. 7. When your stomach rumbles, that's 'wamble'. 8. Finding it difficult to get out of bed in the morning is called 'dysania'. 9. The space just below the columella nasi is covered by the ridge called philtral ridge. 10. The plastic or metallic coating at the end of your shoe laces is called 'aglet'. 11...

My Seven Personal Laws of Proportion.

My Personal Law of Proportion ********************************* 1. The more I speak the more stupid I feel afterwards.                     *** 2. The less I speak the more I am misunderstood as learned or knowledgeable.                     *** 3. The more I amend myself the more mistakes I create by such amendments.                     *** 4. The more I remain by my nature the more peace I find within me.                     *** 5. The more imposing I try to become the more ludicrous I appear to be.                     *** 6. The more I write the more I get to know the flaws that such writings have.                     *** 7. The more I observe the happenings around me the more I get to know ...

Current International Scenario.

Competition-Cut throat  Cooperation-Strategic  Confrontation-Meter Meter                       from here-there  War- Decimetre from                             Everywhere  MAD(Mutually Assured Destruction)- Milimeter Between the Berserkers. Peace- Kilometres from                                   Anywhere  Willingness to coexist-Light-Year                      ~R.R.Prabhakar.

संस्कृत के कतिपय छात्रोपयोगी श्लोक **************************************

छात्र जीवन किसी व्यक्ति के जीवन का एक स्वर्णिम काल होता है, ऐसा मेरा मानना है. यही वह काल है जो किसी छात्र को भविष्य में समाज के एक जिम्मेदार एवं उपयोगी सदस्य के रूप में न्यूनाधिक रूप से निर्धारित करता है.  यह इसलिए भी कि किसी के चरित्र निर्माण में इस काल की महत्ता निर्विवाद है. चरित्र का विद्या से सीधा सरोकार होता है. कदाचित इसी लिए छात्र के लिए हम विद्यार्थी शब्द का भी उपयोग करते हैं.  छात्र जीवन वह काल है जिसमें व्यक्ति शिक्षा और विद्या दोनों को साधता है. आजकल छात्र अपना अधिकांश समय क्षेत्र विशेष से सम्बंधित पाठ्यक्रम में सन्निहित शिक्षा जिसे विषय ज्ञान कहना अधिक उपयुक्त होगा,को हीं पढ़ने और समझने में व्यतीत कर देते हैं किन्तु उनके विद्या अर्जन का उद्योग अधूरा हीं रह जाता है. परिणामस्वरूप छात्र जीवन में जिस प्रकार का व्यक्तित्व निर्माण होना चाहिए वह हो नहीं पाता है. उसका ज्ञान पात्रता से रहित हो जाता है.  पात्रता से रहित जो भी चीज चाहे वह धन हो या पद अनिष्टकारी होता है; स्वयं व्यक्ति के लिए तथा समाज के लिए भी.  विषय मात्र का ज्ञान एवं दक्षता अर्जित करते व्यक्ति को...

जिन मुश्किलों में मुस्कुराना हो मना

प्रस्तुत है कविवर गोपाल दास नीरज की एक कविता   **    जिन मुश्किलों में मुस्कुराना हो मना      उन मुश्किलों में मुस्कुराना धर्म है                                                   ** ***************************** जिन मुश्किलों में मुस्कुराना हो मना उन मुश्किलों में मुस्कुराना धर्म है। १. जिस वक़्त जीना ग़ैर मुमकिन सा लगे        उस वक़्त जीना फ़र्ज़ है इंसान का,      लाज़िम लहर के साथ तब है खेलना,       जब हो समन्दर पे नशा तूफान का  जिस वायु का दीपक बुझाना ध्येय हो       उस वायु में दीपक जलाना धर्म है। २. हो नहीं मंज़िल कहीं जिस राह की         उस राह चलना चाहिए इंसान को          जिस दर्द से सारी 'उमर रोते रहे          वह दर्द पाना है ज़रूरी प्यार को     जिस चाह का हस्ती मिटाना न...

चाहे कोई कुछ अच्छा करे न करे

चाहे कोई कुछ अच्छा करे न करे लेकिन        वैसा कुछ भी न करे जिसे करने के बाद दिल में अफसोस हो और        वैसा तो बिल्कुल न करे जिसे करने के बाद दिल में शर्मिन्दगी पैदा हो  और       वैसा तो किसी भी सूरत में नहीं करे जिसे करने के बाद मन ग्लानि से भर जाए और        वैसा तो किसी हाल में न करे जो खुद के मन को हीं ला'नत भेजे और        वैसा तो हरगिज़ न करे जिससे दिल को चोट के साथ जिस्म को भी चोट पहुॅंचे. ** वैसा करने का नाम होता है                  कभी ग़ैर ज़िम्मेदारी                 कभी बेअदबी                 कभी बेहूदगी                 कभी बेमुरव्वती                 कभी बेरहमी                 कभी दुनियादारी             ...

Business Partner, Strategic Partner and Friendship-some reflections in recent context.

               I don't know whether ‘Distancement’ is a word let alone a diplomatic term. However if the word is not proper or doesn't exist as a diplomatic term as such, it needs to be coined and given currency as a distinct policy choice.                  It's because of the situation found to have been deliberately caused by Trump ever since he assumed the oval office for the second time with self-confidence that appears to be more a ruse than it being something real and permanent.  The way Trump has been acting in the name MAGA(Make America Great Again) diplomacy is a blatant demonstration of the attempt to make diplomacy devoid of decency and also display power with hubris.             Trump's altercation with Ukrainian President Jelenski to reach a dictated ceasefire with Russia, his brawl with his ally now turned foe Elon Musk and his exit from the Departm...

प्रकृत्यैव मनुष्यानां प्रवृतिर्मूले.

प्रकृत्यैव मनुष्यानां प्रवृतिर्मूले ********************************** यथा यस्य प्रकृति: तथा तस्य स्वभाव:  यथा यस्य स्वभाव: तथा तस्य आहार: यथा यस्य आहार: तथा तस्य विहार: यथा यस्य विहार: तथा तस्य विचार: यथा यस्य विचार: तथा तस्य व्यवहार: यथा यस्य व्यवहार: तथा तस्य सत्कार:  यथा यस्य सत्कार: तथा तस्य आकार: यथा यस्य आकार: तथा तस्य विकार: यथा यस्य विकार: तथा तस्य अहंकार: यथा यस्य अहंकार: तथा तस्य संहार:                                            (स्वरचित) *********************************             मनुष्य की सभी प्रवृति के मूल में उसकी अपनी प्रकृति हीं है---------- जैसी जिसकी प्रकृति होती है उसी तरह का उसका स्वभाव होता है.                                    ***  जैसा उसका स्वभाव होता है उसी प्रकार का उसका आहार होता है.         ...

राम दरबार के अध्यक्ष श्रीराजारामचंद्रजी की वंदना

राम दरबार के अध्यक्ष श्रीराजारामचंद्रजी की वंदना  ******************************* यस्य वामे सुशोभितोऽस्ति सर्वश्रेयस्करी माताजानकी  सेवायाम् पुरतो पवनपुत्रश्च दक्षिणे सौमित्र लक्ष्मण: पार्श्वे स्थित यश्चंद्र भरत: चरणेषु शूरवीर अनुज शत्रुघ्न: वंदेऽहं तम् अध्यक्ष: रामदरबार: श्रीराजारामचन्द्र:                                            (स्वरचित) ********************************** जिनके वाम भाग में सर्वश्रेयस्करी माता जानकी जी सुशोभित हैं; सामने सेवा में तत्पर हनुमानजी, दायें सौमित्र लक्ष्मणजी तथा पार्श्व में यशचंद्र भरत जी तथा चरणों में शूरवीर भ्राता शत्रुघ्न हैं, उस राम दरबार के अध्यक्ष श्रीराजारामचंद्रजी की मैं वंदना करता हूॅं.                                🙏🙏                     ~राजीव रंजन प्रभाकर

स्वामीरुपी मनुष्य का अपने सेवकरुपी अन्य जीवधारियों के प्रति व्यवहार.

इस धरती पर मनुष्य का व्यवहार कुछ इस तरह का हो गया है मानो सम्पूर्ण धरा से लेकर अनंत गगन तक का वह एकमात्र स्वामी हो. उसने विकास तथा प्रतिस्पर्धा के नाम पर अपने क्रियाकलापों को इस प्रकार विद्रूप कर लिया है जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि उसे छोड़कर किसी अन्य जलचर थलचर और नभचर जीव को इस जीव-जगत में रहने का कोई अधिकार हीं नहीं है.  हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि जितना इस जगत में रहने का अधिकार मनुष्य को है उससे रत्ती भर कम अन्य जीवों को नहीं है.  किंतु अफसोस मनुष्य ने जीव के ईश्वर प्रदत्त इस अधिकार का अपहरण कर लिया है. यदि ऐसा न होता तो आज सिर्फ और सिर्फ अपने स्वार्थ की पूर्ति हेतु विकास की गाथा लिखने के नाम पर न तो वृक्षों की निर्ममतापूर्ण कटाई होती न हीं पहाड़ एवं जंगलों को क्रूरतापूर्ण ढंग से नष्ट करने का उपक्रम जारी रहता और न हीं समुद्र एवं नदियों में कचरा गिरा-गिरा कर उसे दूषित किया जाता. नीला आकाश भी ज़हरीले धुएं से दूषित न होता.  सारांश यह है कि हमारे क्रियाकलापों ने इस सम्पूर्ण वायुमंडल में जीवों को अपना जीवन जीने का अधिकार छीन लिया है.  हमें विकास की ऐसी गाथा लिखने वा...

सुभाषितानि(स्वरचित)

१ अर्जित् विद्या वा संचित् धनम्।   अप्रयुक्ते चेत प्राप्नोति नाशम्।। अर्जित विद्या हो या संचित धन; यदि इसे प्रयोग में नहीं लाया  जाए तो यह अंततः नाश को हीं प्राप्त होता है. (Acquired knowledge and preserved wealth, if left unused, go to waste) २. कुरू कर्मैव सिद्ध्यर्थे भुक्त्यर्थे वा मुक्त्यर्थे।   भगवद्घोषित्वाक्यास्ति कर्मण्येवाधिकारस्ते।। (सिद्धि के लिए या राज्य के लिए अथवा मुक्ति के लिए हीं सही कर्म तो हीं करना पड़ेगा क्योंकि भगवान ने भी यही घोषित किया है कि तुम्हारा अधिकार सिर्फ कर्म करने में हीं है) (Action is the only option either for achievement of external success and pleasure or attainment of internal peace and liberation; for God too has clarified that your right is to work only.) ३.यदा मानव: विन्दति सिद्धि: स्वे कर्मणि।   स्वार्थेकृततस्य कार्याणि परार्थे परिवर्तति।। (मनुष्य जब अपने कर्मों से सिद्धि को प्राप्त कर लेता है तब अपने स्वार्थ को ध्यान में रख कर किए गए कर्म भी दूसरों के कल्याण करने में परिवर्तित हो जाते हैं.) When men by his action attain perfe...