पापों का चेकलिस्ट.
पापों का चेक-लिस्ट
शास्त्र गर्हित-वर्जित या निषिद्ध-अवांछित कर्मों में लिप्त रहने को हीं पाप मानता है. मोटे तौर पर जो कर्म दूसरे से छुपाकर या छिप कर किया जाय; विश्लेषण से अवांछित या फिर पापकर्म हो सकता है. वैसे प्रत्यक्षतः किए गए कुछ कार्य भी पापश्रेणी में आते हैं. द्रौपदी का चीरहरण भी तो प्रत्यक्षतः भरी सभा में सत्ता के बल पर किया गया था.
मेरे विचार से यदि आप स्वयं को इन कर्मों में लिप्त नहीं पाते हैं और अपना कर्तव्यकर्म राग-द्वेष से मुक्त होने का प्रयास करते हुए पूरी निष्ठा एवं क्षमता से किए जा रहे हैं तो आपका जीवन पापमय से इतर होने के कारण तब इसे अनायास पुण्यमय हीं कहा जाएगा.
पुण्य अलग से कोई चीज नहीं है. इसके लिए पूजा-अर्चना,जप-योग, तीर्थ करने की आवश्यकता नहीं है.
वैसे संक्षेप में पाप और पुण्य की व्याख्या व्यासरचित एक प्रसिद्ध श्लोक से बेहतर नहीं हो सकती जिसमें उन्होंने कहा है-
अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् ।
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ।।
इस "कलियुग" की तो मुनि-महात्मा से लेकर आमजन सभी विभिन्न रूपों में आलोचना करते हैं किन्तु इसकी विशेषता पर लोगों का ध्यान कम हीं आकृष्ट कराया गया है. शास्त्र कहता है कि जो सिद्धि अन्ययुगों में कठोर तप आदि से प्राप्त की जाती थी वह कलियुग में मात्र नामस्मरण से प्राप्तव्य है.
इसके अतिरिक्त गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में कलियुग की एक जबरदस्त खूबी के बारे में बताया है.
उनका आशय है कि वही दुष्चिंतन पापरूप में फलित होता है जिसे कर्म द्वारा प्रकाशित कर दिया जाय.
अर्थात् आपके द्वारा यदि मन ही मन में कोई अपकर्म वा कुकर्म किया गया है तो वह मानसिक पाप तो है लेकिन फलदाई नहीं है. वहीं यदि आप मन से किसी पुण्यात्मक कार्य के बारे में सद्चिन्तन भी रहे हैं तो वह मानसिक पुण्य नानाविध फलदाई-सुखदाई है.
मानस की ये चौपाई देखिए:
कलि कर एक पुनीत प्रतापा।
मानस पुन्य होहिं नहिं पापा।।
अर्थ:-कलियुग का एक पवित्र प्रताप यह है कि इसमें मानसिक पुण्य तो फलदायी होते है, परंतु मानसिक पापों का फल नहीं होता.
किंतु यह जानते हुए कि मानसिक पाप फलदाई नहीं होता है इसका यह अर्थ नहीं हो सकता कि मनोद्योग पापचिंतन में हीं नियोजित रहे क्योंकि तब पूरी सम्भावना होती है कि हमारी इंद्रियां पापकर्म में प्रवृत्त हों जाएं.
उपरोक्त तरीके से जीवन जीते हुए यदि आप भगवान की पूजा-अर्चना भी कर पा रहे हैं या उनके प्रीत्यर्थ उन्हें अपने-अपने तरीके से सुमरते हैं;भजते हैं तो आपका जीवन पुण्यमय हीं नहीं भगवन्मय है.
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तो इससे यह स्पष्ट हुआ कि यदि मन पापचिंतन में लिप्त रहे तो इंद्रियां पाप-कर्म कर बैठ सकती हैं. हालांकि इस सम्पूर्ण संसार में यह कोई दावा नहीं कर सकता कि उसने कभी कोई पाप नहीं किया है. लेकिन इसका यह भी अर्थ नहीं है कि व्यक्ति स्वयं को इससे मुक्त होने का प्रयत्न ही नहीं करे.
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मैंने पापों का एक चेकलिस्ट तैयार किया है जो हमारे इंद्रियों(sense organs & action organs) द्वारा होती हैं. हम सब इस लिस्ट को देख कर पता कर सकते हैं कि पाप के बैरोमीटर पर स्वयं को कहां पाते हैं तथा इसका लाभ यह हो सकता है कि जब हमारी इंद्रियों से ये पाप कर्म हो रहे हों तो हमें इसका पता उसी समय या इसके तुरंत बाद चल जाए ताकि हम आगे अपने कर्म में सुधार ला सकें.
यह भी अंकनीय है कि सभी क्राइम पाप है किन्तु सभी पाप क्राइम नहीं भी हो सकता है जो निम्नांकित चेकलिस्ट से स्पष्ट होगा.
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चेकलिस्ट-
(*) आंखों से किए जाने वाले पाप-
१. नेत्रों से अहंकार प्रेरित किसी की उपेक्षा करना.
२.आंखें तरेरना.
३.स्वेच्छा से भृकुटि को सदैव/प्रायः नेत्रों पर चढ़ाये रखना ताकि समक्ष उपस्थित व्यक्ति को आपसे अकारण भय हो.
४. आंखों से गलत नीयत से इशारा करना.
५.स्वेच्छा से अश्लील दृश्यावलोकन.
(*) कानों से किए जाने वाले पाप- किसी की निन्दा सुनना- निंदा में लोगों को अपूर्व रस मिलता है. निन्दा सुनना निंदा करने से भी गर्हित है. विद्वान लोग प्रायः बहुत चतुराई से इस पाप को करते देखे जाते हैं. कोई-कोई दुर्धष विद्वान तो अपनी विद्वत्ता से ईश्वर की भी निंदा करने से बाज़ नहीं आते हैं.
उनके सम्बंध में गोस्वामीजी ने कहा है-
ईश्वर की निन्दा करना गोहत्या के बराबर है.
हरिहर निंदा सुनइ जो काना।
होहि पाप गोघात समाना।।
(*) नासिका (नाक) से होने वाले पाप-सुगंधित द्रव्य,लेप,अंजन तथा अंगराग के प्रति सदैव रसबुद्धि-रसासक्ति एवं रसास्वादन.
(*) मुख से किए जाने वाले पाप-१. किसी का मज़ाक या खिल्ली उड़ाना अथवा उपहास करना.
२. किसी की निन्दा करना/ चुगली खाना.
चुगलखोर को लक्ष्य कर गोस्वामीजी कहते हैं-"अघ कि पिसुनता सम कछु आना."
३.किसी को शाप देना.
४. अपने धन,बल,कद एवं पद के मद में किसी को दुर्वचन/कठोर वचन कहना.
५. अपने से निर्बल अधीनस्थ की गलतियों को सुधारने के नाम पर भांति-भांति से उसे नन-फिजीकली प्रताड़ित करना. माफ कीजिएगा ये आजकल के बड़े-बड़े हुक्काम का शौक हो चला है.और यदि अधीनस्थ महिला हुईं तो उसकी मुसीबत और बढ़ जाती है क्योंकि परपस कुछ और रहता है.
६. किसी को अपशब्द कहना अथवा उद्वेगपूर्ण वचन कहना.
७. भक्ष्याभक्ष्य का विचार त्याग स्वाद का दास बनना.
८. सुरासेवन/मद्यपान.
९.अपनी वाणी/वाक्चातुर्य/वक्तृता का गलत इस्तेमाल कर समाज में अशांति कायम करना/rumour फैलाना.
(*) हाथों से होने वाले पाप-१. मारपीट में रसबुद्धि.
२.स्वत्वहरण- जो आपका नहीं है उसे लोभ,काम या क्रोधवश किसी कमजोर से छीन लेना.
३. किसी को धोखा देने की नीयत से निर्धारित संख्या, मात्रा या परिमाण से कम देना/लौटाना
४.उत्कोचग्रहणवृत्ति-अर्थात् घूस लेना.
५. किसी पक्षी को बलपूर्वक कैद किए रहना/ रखना. मनुष्य की तो बात ही क्या!
६.अपना क्रोध पेड़-पौधे एवं बाल-बच्चे या फिर किसी निरीह जीव/ प्राणी या वस्तु पर उतारना.
७.द्यूत-क्रीड़ा.
८. किसी महिला के पति को प्रेमजाल में फांस कर/ उससे उक्त प्रेमप्रेरित अनर्गल विवाह कर उस महिला की बसी-बसाई गृहस्थी को उजाड़ देना.
९.शीलहरण/चीरहरण-
नारी या कन्या की स्थिति/परिस्थिति का फायदा उठाकर दुष्कर्म से इतर शीलहरण या चीरहरण खातिर अपने हाथों का इस्तेमाल.
१०.गोहत्या/जीव हत्या/नृहत्या.
११. किसी के घर में आग लगा देना.
१२.विध्वंसात्मक अनुसंधान/सामग्री निर्माण/अनैतिक अनुप्रयोग जिससे सम्पूर्ण जीवजगत खतरे की गोद में चला जाए.
(*) पैरों से होने वाले पाप- १. किसी जीव को या फिर किसी वस्तु को हीं (मैं खेल अथवा फुटबॉल की बात नहीं कर रहा हूं) जानबूझकर लात से ठोकर मारना.
रावण ने भी विभीषण को भरी सभा में लात हीं मारा था. कदाचित इसके बदले यदि हाथों से हीं वह अपने अनुज को मारता तो स्थिति दूसरी हो सकती थी. विभीषण ने स्वयं रणक्षेत्र में रावण की तरफ से लड़ने आए बड़े भाई कुम्भकर्ण को रोकर अपने अपमान की व्यथा सुनाई थी.
मानस में गोस्वामीजी ने लिखा है-
विभीषण अपने अग्रज कुम्भकर्ण को कहते हैं-
तात लात रावन मोहि मारा।
कहत परम हित मंत्र बिचारा॥
तेहिं गलानि रघुपति पहिं आयउँ।
देखि दीन प्रभु के मन भायउँ।।
२. परस्त्रीगमन हेतु पैरों का इस्तेमाल.
(*) गुदा-उपस्थ से होने वाले पाप- १.दुष्कर्म.
२.अप्राकृतिक यौन-संबंध.
३. अवैध/अस्वीकार्य यौन-संबंध
जहां तक अपनी बात है आज तक प्रयास के बावजूद मैं आंख,कान,नाक और मुंह से होने वाले अधिकांश पापों से उबर नहीं पाया हूं.
अपने प्रयास से तो मैं अब तक असफल हीं रहा हूं. अब तो हरि का हीं सहारा बचा है.
हरि रक्षा करें.
राजीव रंजन प्रभाकर.
१९.०३.२०२२.
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