महाप्रयत्नशील महानशक्तिशाली राजा विश्वामित्र के ब्रह्मर्षि बनने की कथा

               विश्वामित्र को राजा कहना सुनने में थोड़ा अस्वाभाविक लगता है क्योंकि जनमानस में वे ऋषि के रूप में हीं जाने जाते हैं.ऋषि भी ऐसे वैसे नहीं बल्कि ब्रह्मर्षि वशिष्ठ के समकक्ष!
न उनसे जरा भी कम न ज्यादा.
अपने चिरविरोधी वशिष्ठ के मुख से उन्होंने अपने लिए ब्रह्मर्षि कहलवा के ही अपने तप की पूर्णाहुति की.
               यही इस कथा का climax है
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किंतु उनकी कथा का आरंभ उन्हें राजा कह के ही हो सकता है क्योंकि विश्वामित्र जन्म से एक क्षत्रिय वंशज राजा ही थे. यह उनका दुर्धष तप हीं था जिसके बदौलत वे ब्रह्मर्षि कहलाये.
विश्वामित्र के एक प्रतापी क्षत्रिय वंशज राजा से ब्रह्मर्षि होने की कहानी उनकी ब्रह्मर्षि वशिष्ठ से सुदीर्घ संघर्ष और उसमें उन्हें मिली पराजय की कहानी है.        
            बाल्मीकि रामायण में इसका विस्तार से किंतु सुंदर वर्णन है.
यह संघर्ष कथा अत्यंत रोचक तो है ही इससे यह भी सीख लिया जा सकता है कि तपोबल (वर्तमान में इसे कठिन साधना, परिश्रम,कड़ी मेहनत इत्यादि कहना अधिक सामयिक होगा) से व्यक्ति क्या कुछ नहीं हासिल कर सकता है!
साथ हीं यह भी कि किसी व्यक्ति द्वारा किसी अभीष्ट को प्राप्त करने में किस प्रकार उसका काम,क्रोध और लोभ उसके बरसों की मेहनत पर पानी फेर देता है या यूं कहें कि उसके तप को तार-तार कर देता है.
     इससे यह भी प्रेरणा मिलती है कि बार-बार असफल होने के बावजूद कैसे फिर से बची हुई ऊर्जा और क्षमता को संचित और व्यवस्थित कर यदि व्यक्ति पुनः उत्साह के साथ प्रयत्न करे तो लक्ष्य की प्राप्ति हो ही जाती है.
            आवश्यकता है तो दृढ़ इच्छाशक्ति और चयन किए गए लक्ष्य के प्रति लगन के साथ प्रयत्न करने की. अस्तु.
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  गाधिसुत विश्वामित्र पहले राजा कौशिक थे. सपरिवार एवं ससेन पर्यटन एवं विहार करते नृप कौशिक एक बार ब्रह्मर्षि वशिष्ठजी के आश्रम में पधारे. राजा ने पत्नी एवं पुत्रों सहित मुनिवर वशिष्ठ को दंडवत किया. मुनि ने भी राजा को आशीर्वाद दिया. मुनि से पाद्य-अर्घ्य पाकर राजा अपने को अत्यंत सम्मानित महसूस कर रहे थे. आसन ग्रहण कराने के पश्चात मुनि ने राजा से उसके देश-कोष-दुर्ग आदि की चर्चा कुशल क्षेम के तौर पर किया.

          राजा ने कहा-मुनिवर!आपके आशीर्वाद से मेरा राज्य धन-धान्य से परिपूर्ण है. प्रजा सुखी है.उन्हें किसी चीज की कोई कमी नही है.राज्य में सर्वत्र सुख-शांति एवं समृद्धि का वातावरण है. किसी शत्रु की हिम्मत नहीं जो हमारे राज्य पर कोई कुदृष्टि भी डाल सके;आक्रमण तो बहुत दूर की बात है.
संक्षेप में मुनिवर! यही कहना चाहूंगा कि आपके आशीर्वाद और मेरे बाहुबल के अधीन मेरा सम्पूर्ण राज्य सुरक्षित एवं पूर्ण विकसित हो चुका है.
यह कहते हुए राजा का गर्व दर्शनीय था.
मुनि बोले-आपके मुख से ये सुन मैं अत्यंत प्रसन्न हुआ कि आप प्रजा वत्सल हैं तथा आपके राज में सर्वत्र सुख, शांति, समृद्धि व्याप्त है.और सबसे महत्वपूर्ण बात कि आपने सदैव प्रजा के कल्याण को हीं अपने शासन का लक्ष्य बना रखा है.
        राजन! सुनिए; मेरी इच्छा है कि आज रात्रि का विश्राम आप परिवार और सेना सहित मेरे आश्रम में करें और मेरा आतिथ्य निमंत्रण स्वीकार करें.
इससे मुझे अत्यन्त प्रसन्नता होगी.
इतना कह मुनि मौन हो गये.
राजा ने सोचा कि मुनि औपचारिकता वश ऐसा कह रहे हैं. कहां हजारों की संख्या में मेरी सेना और कुटुम्ब सहित मेरा परिवार! और कहां मुनि का ये छोटा सा आश्रम और उनका सीमित साधन जो उनकेे तपश्चर्यायुक्त जीवनयापन मात्र के लिए भी पर्याप्त नहीं दीखता.
प्रकटत: राजा बोले- मुनिश्रेष्ठ! आपके पाद्य-अर्घ्य से ही मैं अत्यंत सम्मानित हीं नहीं अपितु कृतकृत्य हो चुका हूं;अब आज्ञा दीजिए.
किन्तु वशिष्ठ नहीं माने. आग्रह पर राजा रूकने के लिए विवश थे.
फिर ब्रह्मर्षि वशिष्ठ ने अपने आश्रम में "सबला" नामक गाय की तरफ लक्ष्य कर कहा--राजन! आप चिंता न करें!मेरी सबला बिटिया सब प्रबंध कर देगी.
सबला को बुला कर मुनि बोले-बेटी! राजा कौशिक-विश्वामित्र ने हमारा आतिथ्य स्वीकार कर लिया है. इतने बड़े सम्राट आज हमारे अतिथि बने हैं इससे अधिक सौभाग्य की बात हमलोगों के लिए क्या हो सकती है! तुम इनके सत्कार का प्रबंध कर दो.
  मुनि का इतना कहना था कि क्षण में वहां इतना बड़ा राज प्रासाद और राग भोग की अतुल्य एवं अपूर्व सामग्री उपस्थित हो गयी जो राजा विश्वामित्र और उनके साथ आये परिवार,समाज और सेना के लिए भारी अचरज की बात थी.उस राजकीय बृहत परिवार के लिए आप से आप नाना प्रकार के ढ़ेर के ढ़ेर व्यंजन इकट्ठे हो गए.तरह तरह की सुस्वादु वस्तुएं,अनेक प्रकार के पेय,घी,दही, मक्खन,फूल, सुगंध-लेप अंगराग आदि चीजें क्षण भर में उपस्थित हो ग‌ईं और सबको पहुंच ग‌ईं. राजा कौशिक की पत्नियां,सचिव,बंधुवर्ग, पुरोहित, सैनिक और अन्य सभी कर्मचारी ऋषि के आश्रम में मनोनुकूल खा-पी कर संतुष्ट हो ग‌ए.सभी को वशिष्ठ के तपोबल पर बड़ा आश्चर्य हुआ. आश्चर्य से उनकी वाणी और बुद्धि दोनों कुण्ठित हो चुकी थी.
   संज्ञा लौटने पर नरेश ने स्वयं को व्यवस्थित किया और सबला के प्रताप से सृजित एवं रचित राजसी वितान और भोगैश्वर्य के मध्य अपनी रात्रि व्यतीत की. 
प्रातः काल राजा के प्रस्थान की तैयारी के साथ हीं रात्रि की सम्पूर्ण रचना सबला में विलीन हो गयी.
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सबला प्रकरण: लोभज्वर से पीड़ित विश्वामित्र का वशिष्ठ से युद्ध और उनकी पराजय   
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          नरेश का मन सबला गाय को पाने के लिए मचल उठा था. उसका मन मस्तिष्क सबला को पाने के लोभ से पीड़ित हो चुका था. लोभ-जनित तर्क-वितर्क ने उसके विवेक को बंदी बना लिया था.
एक प्रतापी राजा जिसके पास सब कुछ था; किंतु सबला के द्वारा रचित ऐश्वर्य के सामने उन्हें अपना ऐश्वर्य अत्यंत फीका मालूम दे रहा था.
राजा ने सोचा-ऐसी विलक्षण सम्पत्ति ऋषि-मुनि के पास शोभा नहीं पाती.सबला तो राजा-महाराजा के ऐश्वर्य के अनुकूल है.उसका ऋषि के यहां क्या मोल और क्या प्रयोजन! राजा सबला को मुनि से जबरन ले लेने तक की सीमा तक सोच चुके थे.
राजा ने दर्प के साथ मुनि से कहा-मुनिवर! आप अपनेआश्रम की वह धेनु "सबला" को आप मुझे सौंप दें. ये राज दरबार में रहने योग्य है न कि आपके आश्रम में. मैं "नहीं" नहीं सुनना चाहता हूं. बस इससे आगे मुझे कुछ नहीं कहना है और न हीं सुनना.
मुनि वशिष्ठ ने कहा-राजन!आप सामर्थ्यवान हैं;आप जो कुछ कहेंगे आपको शोभता है. किंतु मैं ये अवश्य कहूंगा कि आप मेरी इच्छा से मेरी सबला को मुझसे दूर नहीं कर सकते हैं.
राजा नहीं माने.उन्होने अपने सैनिक को आदेश दिया. कहा-सबला को बांध कर ले चलो.
बलात् लिये जा रही सबला ने मुनि वशिष्ठ की ओर आर्त नेत्रों से देखते हुए मुनि से पूछा- मुनिवर! ये मुझे क्यों बलपूर्वक लिए जा रहे हैं!आप इन्हें कुछ कहते और रोकते क्यों नहीं? यदि इसमें आपकी भी सहमति है तो मैं चली जाऊंगी लेकिन इसके लिए मुझे आप स्पष्ट आज्ञा दें मुनिवर!
वशिष्ठ रोते हुए बोले-नहीं बेटी ऐसी बात नहीं है.भला मैं ऐसा क्यों सोचूं! राजा और उसकी सेना तुम्हें बलपूर्वक ले जाना चाहते हैं जिससे मेरा ह्रदय विदीर्ण हुआ जा रहा है.राजाज्ञा के समक्ष मेरी क्या हस्ती है
सबला ने कहा- यदि आपकी ऐसी इच्छा नहीं है तब तो मुझे ये यहां से सपने में भी नहीं ले जा सकेंगे.
इतना कहना था कि सबला ने हुंकार भरी और उस हुंकार से क्षण में असंख्य सैनिक उत्पन्न हो गये जिन्होंने बिना किसी परिश्रम के राजा के समस्त सैनिक को बुरी तरह परास्त कर दिया. 
          इसे देख विश्वामित्र के पुत्रगण वशिष्ठ के पुत्रों को मारने दौड़े. वशिष्ठ के एक डांट से वे जहां थे वहीं जड़वत हो गये. सबला से उत्पन्न सैनिकों ने राजा विश्वामित्र को सपरिवार बंदी बना कर मुनि वशिष्ठ के समक्ष उपस्थित कर दिया. ब्रह्मर्षि वशिष्ठ जो इस समय ब्रह्मतेज से दैदीप्यमान थे, ने मुनि धर्म का पालन करते हुए तुरंत राजा और उनके परिवार को बंधन से मुक्त कर उन्हें लौटने का निर्देश दिया.           
  चकित विश्वामित्र की बुद्धि हीं मानो कुंठित हो गयी थी. वशिष्ठ के तेज ने राजा को निस्तेज बना दिया था. उनकी वाणी मूक और बुद्धि शून्य हो चुकी थी.
एक मुनि के हाथ मिली ऐसी अभूतपूर्व पराजय से राजा विश्वामित्र अत्यंत लज्जित हुए.
किंतु इस पराजय ने उनके जीवन की दिशा ही बदल दी. चेतना लौटने पर राजा ने सोचा: यदि तप की इतनी बड़ी महिमा है कि एक प्रतापी राजा को वह पल में पराजित कर दे तो धिक्कार है राजा होना. उनका ये राजसी जीवन तथा ऐश्वर्य मुनि के तपोबल के समक्ष अभी-अभी तुच्छ साबित हो गया.
"नरेश विश्वामित्र! तुम इस वशिष्ठ के सामने कुछ भी नहीं, कुछ भी नहीं"-अपनी पराजय से दर्प-दलित विश्वामित्र मन ही मन स्वयं को संबोधित कर रहे थे.
"नहीं! नहीं! मैं भी तप करूंगा और अपने तप से प्राप्त दिव्यास्त्र से मैं इस घमंडी वशिष्ठ को उसी के आश्रम में पुनः आकर उसे युद्ध के लिए चुनौती दूंगा."
राजा विश्वामित्र वहीं अपना राजपाट अपने पुत्र को सौंप तत्क्षण तप करने हिमालय की तरफ चले गए.
         हिमांचल में विश्वामित्र ने देवाधिदेव महादेव की तपस्या करने का व्रत लिया. सहस्त्रों वर्ष की घोर तपस्या से आशुतोष शंकर प्रकट हुए और उन्होंने कहा-वत्स! मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूं.मांगो क्या मांगते हो?
विश्वामित्र जो वशिष्ठ के हाथ हुए अपनी पराजय से दग्ध थे, ने भगवान शंकर से कहा- प्रभु!आप यदि मेरी तपस्या से प्रसन्न हैं तो आप अपने वे समस्त दिव्यास्त्र मुझे दे दिजिए और साथ ही उन अस्त्रों के प्रयोग का ज्ञान एवं कौशल भी ताकि मैं उसका कुशलतापूर्वक अपने शत्रु पर प्रयोग कर पाउं. एक क्षत्रिय को स्वभाव से ही अस्त्र-शस्त्र प्रिय होता है तो यदि विश्वामित्र ने भगवान से मिले वर का दिव्यास्त्र मांगने में किया तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं! तपस्या से अभी उनका रजोगुण समाप्त नहीं हुआ था.
भगवान बोले-तथास्तु.
धनुर्वेद एवं नाना प्रकार के दिव्यास्त्रों से लैस विश्वामित्र का अहंकार अब बरसाती नदी की तरह उफन रहा था.
वह सीधे वशिष्ठ के आश्रम में पहुंच उन्होंने ऋषि को युद्ध के लिए चुनौती और ललकारना प्रारंभ कर दिया.
क्रुद्ध महाकाल की तरह आते हुए विश्वामित्र को देखकर वशिष्ठ के आश्रमवासी शिष्यगण डर के मारे इधर-उधर भागकर छिपने लगे.यह देख कर वशिष्ठ दु:खी हुए; उन्होंने सोचा कि अब इस विश्वामित्र के गर्व का खण्डन करना ही पड़ेगा. उन्होंने अपना ब्रह्मदंड अपने सामने रख लिया.
क्रोधाग्नि से तप्त विश्वामित्र ने वशिष्ठ पर अनेक अस्त्रों का प्रयोग किया, किंतु आश्चर्य! सभी अस्त्र वशिष्ठ के ब्रह्मदंड के समक्ष आते हीं निष्प्रभावी हो जा रहे थे.
अंत में क्रोधमूर्छित विश्वामित्र ने वशिष्ठ के उपर ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया. देव और ऋषिगण भयभीत हो गए.उन्होने सोचा कि अब अनर्थ हो गया.ब्रम्हास्त्र का सामना भला कौन कर सकता है? किंतु वशिष्ठ का ब्रह्मदंड ब्रह्मास्त्र से भी शक्तिशाली साबित हुआ. देवगण और ऋषिगण ने देखा वशिष्ठ ने अपने दायें हाथ से ब्रह्मदंड को मात्र उपर उठाया और अग्नि की ज्वाला से चमकता वह ब्रह्मास्त्र उस ब्रह्मदंड में विलीन हो गया. सभी आश्चर्य से देखते रहे ग‌ए.
अपनी इस पुनर्पराजय से विश्वामित्र अत्यंत निराश हो गए. उन्हें लगा कि अब वे वशिष्ठ की बराबरी नहीं कर सकते.
 किंतु अभी भी वे ऐसे हार मानने को तैयार नहीं थे.
अगले ही पल उन्होंने सोचा कि वह भी तप कर के वशिष्ठ की तरह "ब्रम्हर्षि"पद हासिल करेंगे.
अभी तक उनके तप का उद्देश्य नाना प्रकार के दिव्यास्त्रों की प्राप्ति कर वशिष्ठ को उन्हें युद्ध में पराजित करना था किन्तु अब इस तप का लक्ष्य उनको तप से पराजित करने में परिवर्तित हो गया.
             वशिष्ठ ब्रह्मापुत्र हैं तो क्या! मैं भी जगतपिता ब्रह्मा को अपने तप से प्रसन्न करूंगा और उनसे "ब्रह्मर्षि" की उपाधि पाकर ही रहूंगा. मैं तप से उनके पुत्रस्वरूप जो ब्रह्मर्षि का पद वशिष्ठ को मिला है उसे मैं भी प्राप्त करके हीं छोड़ूंगा. ब्रह्मा को मुझे भी अपना पुत्र स्वीकार कर ब्रम्हर्षि की उपाधि देना होगा.
विश्वामित्र सीधे वहां से पुष्कर चले गये और संकल्प के साथ वे ब्रह्मा को ध्यान में रख तप करते रहे. सहस्त्रों वर्ष की कठोर साधना के पश्चात ब्रह्मा जी प्रकट हुए और बोले-उठो राजन!आज से तुम 'राजर्षि' कहलाओगे.
         विश्वामित्र को बड़ा आघात पहुंचा.
इतनी कठिन तपस्या के पश्चात मात्र राजर्षि का पद! नहीं मैं और तप करूंगा.
उन्होंने अपनी तपश्चर्या को जारी रखा.
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त्रिशंकु प्रकरण : क्रोध का आक्रमण और क्रोधान्ध विश्वामित्र का नयी सृष्टि की रचना को उद्यत होना
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विश्वामित्र की तपश्चर्या निर्विघ्न चल रही थी. इसी बीच सूर्यकुल में एक राजा हुए.उनका नाम था त्रिशंकु. त्रिशंकु अत्यंत हीं प्रतापी एवं शक्तिशाली नरेश थे. एक बार राजा त्रिशंकु के मन में विचार आया कि मेरे जैसे शक्तिशाली राजा ने अपने जीवन काल में कुछ विलक्षण नहीं किया तो फिर इतने शक्तिशाली और प्रतापी होने का क्या लाभ! सूर्यकुल ने तो पहले भी एक से बढ़कर एक प्रतापी राजा इस पृथ्वी को दिया है.
मैं ऐसा यज्ञ करूंगा कि जिससे मैं सदेह स्वर्ग पहुंच जाऊं.
इसी मन: स्थिति के साथ राजा पहुंचे कुलगुरू वशिष्ठ के पास.
युवा त्रिशंकु की बात सुन वशिष्ठ ने कहा-राजन! तुम्हारा ये सदेह स्वर्ग जाने का स्वप्न देखना उचित नहीं है.यह प्रकृति के नियम के विरुद्ध है. चाहे कोई कितना भी शक्तिशाली बन जाये उसे प्रकृति के नियम का आदर करना चाहिए. यह संभव है या नहीं इस पर बिना बहस किये मैं तुम्हें इतना ही कहूंगा कि ऐसे विचार को त्याग देना हीं तुम्हारे हित में है और यह भी कि मैं ऐसे किसी यज्ञ जो तुम इस निमित्त करना चाहते हो उसका अधिष्ठापन नहीं कर सकता. 
इतना कह वशिष्ठ चुप हो गए.
त्रिशंकु को स्पष्ट हो गया कि कुलगुरू वशिष्ठ इस यज्ञ करने में उसकी कोई मदद नहीं करेंगे. तब वे वशिष्ठ के पुत्रों के पास गये और उनसे ऐसे यज्ञ कराने का दुराग्रह करने लगे.
वशिष्ठ पुत्रों ने साफ कह दिया कि जब उनके पिता ही उन्हें मना कर चुके हैं तो हमलोगों से भी जो आप ऐसी अपेक्षा लेकर आये हैं अनर्गल है. पिता ने जिसका निषेध कर दिया हो उसके पुत्र का ऐसे यज्ञ को सम्पादित करना पिता के अपमान के अतिरिक्त और कुछ भी है क्या? राजन आपकी इच्छा पूरी होने वाली नहीं है.
यह सुन त्रिशंकु मन-ही-मन कुपित हो गये और वशिष्ठ पुत्रों को कहने लगे- हे ब्राह्मण कुमार! मैंने तो आपके कुलगुरु होने का मान रखते हुए आपसे ऐसा अनुरोध किया किंतु यदि आप ऐसा सोच रहे हैं कि आप और आपके पिता हीं ऐसे यज्ञ करा सकते हैं तो ये आपकी भूल है. मैं दूसरे ऋषि से ऐसा यज्ञ कराउंगा. वे मेरी चिर अभिलषित इच्छा की अवश्य पूर्ति करेंगे. मुनिवर विश्वामित्र भी आप लोगों से कुछ कम नहीं हैं.
          उस समय तक साक्षात् तप की मूर्ति बने विश्वामित्र की कीर्ति तीनों लोकों में फैल चुकी थी.
त्रिशंकु के मुख से अपने पिता वशिष्ठ और स्वयं के विषय में ऐसी अनर्गल बातें सुन वशिष्ठ पुत्र कुपित हो गये और क्रोध में आकर उसे शाप दे डाला- मूर्ख राजा! तूने अपने कुलगुरू का अपमान किया है! तूं शीघ्र ही चांडाल हो जायेगा.
अगले दिन ही त्रिशंकु ने देखा कि उसका चेहरा भयावह एवं कुरूप हो गया है;शरीर पर के सारे आभूषण पता नहीं कहां गायब हो गये.सारे रेशमी वस्त्र मैले कुचैले एवं जीर्ण-शीर्ण कपड़े में बदल गये. ज्योंहि राजा दूसरे आभूषणादि पहनते वह क्षण में गायब हो जाते; शरीर पर जो भी लकदक वस्त्र धारण करते वही मैले एवं फटे पुराने कपड़ों में बदल जाते.
लोग उसे देख दूर से ही भागने लगते.
दीन और दुःखी त्रिशंकु जब विश्वामित्र के पास पहुंचे तो सारा वृत्तांत जान उन्हें त्रिशंकु पर दया और वशिष्ठ पुत्रों पर क्रोध आ गया; साथ ही उन्हें वशिष्ठ जिन्हें अपना वे चिर-प्रतिद्वंद्वी समझते थे,से सूक्ष्म रूप से बदला लेने का अवसर मिल गया.

विश्वामित्र बोले-त्रिशंकु!तुम दुःखी मत हो.तुम्हारी इच्छा अवश्य पूरी होगी. तुम सदेह स्वर्ग जाओ इसके लिए मैं तुम्हारा यज्ञ सम्पन्न कराउंगा. तुम व्यर्थ ही वशिष्ठ के पास गये और शापित होकर अपने शरीर की कांति गंवा बैठे. खैर! कोई हानि नहीं;तुम यज्ञ की तैयारी शुरू करो मैं कल से हीं तुम्हारे सदेह स्वर्ग जाने हेतु विधिपूर्वक यज्ञ प्रारम्भ करना चाहता हूं.
नियत समय और विधिपूर्वक यज्ञ जब सम्पन्न हुआ तो विश्वामित्र ने देवताओं को यज्ञ की हवि लेने हेतु आमंत्रित किया; किंतु हवि ग्रहण करने कोई देवता विश्वामित्र के लगातार आह्वान के बावजूद उपस्थित नहीं हुए. जो मुनि महात्मा विश्वामित्र के भय से यज्ञ में पहुंचे भी थे,वे ठठा कर हंस पड़े. स्वयं को उपहास का पात्र बनते और देवताओं द्वारा स्वयं को सद्य: अपमानित होता देख विश्वामित्र के क्रोध की सीमा नहीं रही.
उन्होंने त्रिशंकु से कहा- इन देवताओं की इतनी हिम्मत जो मेरे द्वारा विधिपूर्वक सम्पन्न कराये यज्ञ की हवि ग्रहण न करें! त्रिशंकु! यदि मेरे तप में कोई शक्ति है तो तुम अभी और इसी क्षण सदेह स्वर्ग जाओगे. ये अभिमानी देवगण और यहां उपस्थित ऋषि और मुनि समुदाय भी मेरे तप का प्रभाव साक्षात् अपने नेत्रों से देख लें.
और विश्वामित्र ने स्त्रुवा से हवि को उठाया.मंत्रोच्चार सहित जैसे-जैसे उनका हाथ आकाश की तरह उठता गया त्रिशंकु बैठे-बैठे आकाशोन्मुख उपर उठते ग‌ए. सभी आश्चर्य से चकित थे और त्रिशंकु लगातार वेग से आकाश में उपर चढ़े जा रहे थे और देखते ही देखते सभी की दृष्टि से ओझल होते स्वर्ग में प्रवेश कर गये.
स्वर्ग में सदेह जीवित एक मनुष्य के पहुंचने की देरी थी कि वहां जबरदस्त हलचल मच गया. जब देवराज इंद्र को यह सूचना दी गई कि अनंत काल से चली आ रही व्यवस्था को धता बता कर विश्वामित्र ने एक चांडाल को जीवित हीं स्वर्ग में प्रवेश करा दिया तो उसे यह बड़ा ही नागवार गुजरा. उन्होंने अत्यंत क्रुद्ध होकर त्रिशंकु को वापस नीचे धकेल दिया और त्रिशंकु से कहा-नीच चांडाल राजा! स्वर्ग के सपने देखता है!चल हट यहां से!
त्रिशंकु बचाओ-बचाओ कहते हुए औंधे मुंह नीचे गिरने लगे. विश्वामित्र को जब पता चला कि देवराज ने त्रिशंकु को स्वर्ग से नीचे गिरा दिया और त्रिशंकु औंधे मुंह नीचे गिरे जा रहा है तो उसने त्रिशंकु को पृथ्वी पर से हीं संबोधित करते हुए कहा- त्रिशंकु! तुम वहीं रूको. मैं वहीं स्वर्ग का निर्माण किये देता हूं जहां तुम अभी-अभी हो.मैं तुम्हारे लिए नया इंद्र पैदा कर देता हूं,नये नक्षत्रों का निर्माण कर दूंगा इत्यादि. ये देवगण ऐसे नहीं मानेंगे.
        मैं नये सृष्टि का हीं सृजन किये दे रहा हूं.तुम चिंता नहीं करो.
     और सचमुच विश्वामित्र नये सृष्टि के निर्माण में जुट गए. त्रिशंकु आकाश में जहां थे उसे उन्होंने वहीं स्थिर कर नये नक्षत्रों की रचना शुरू कर दी. नये स्वर्ग का निर्माण उसी स्थान पर होने लगा जहां विश्वामित्र ने त्रिशंकु को स्थापित कर दिया था.
नये स्वर्ग की रचना शुरू होते हीं देव और ऋषिगण घबरा गये.उन्होंने सोचा-जैसे भी हो विश्वामित्र के क्रोध को शांत किया जाय.
विश्वामित्र के समीप जाकर उन्होंने विनम्रतापूर्वक प्रार्थना की कि मुनिवर ऐसा कार्य न करें जिससे सृष्टि के नियम का उल्लंघन होता हो.त्रिशंकु और उनके इर्द-गिर्द जो नक्षत्र का सृजन आपने कर दिया है वे सभी वहीं यथास्थान अनंत काल तक बने रहेंगे किंतु मुनिनाथ!अब आगे अपने इस सृजनोद्योग को विराम देने की कृपा कीजिए.
  विश्वामित्र बड़ी मुश्किल से माने.
तब से त्रिशंकु वहीं आकाश में लटके हैं जिसके बारे में हम पौराणिक कथा कहानियों और बड़े-बुजुर्ग से सुनते आये हैं कि "फलां कि हालत तो समझो त्रिशंकु जैसी हो गई है";तब समझ में नहीं आता था कि वास्तव में इसका यथार्थ क्या है,बस अपने बालबुद्धि के आधार पर अनुमान लगाते थे कि स्थिति ठीक नहीं रहना त्रिशंकु जैसा होना है या फिर तीन शंकुओं का कुछ ऐसा मेल होता है जो व्यक्ति को विवश अथवा असमर्थ बना देता है इत्यादि.
          कहते हैं जब कोई कार्य क्रोध वश किया जाता है तो वह संचित उर्जा का दुर्विनियोग तो है ही वह व्यक्ति को उसके अभीष्ट से अथवा लक्ष्य से दूर भटका देता है. विश्वामित्र के साथ भी वही हुआ. कहां वे ब्रह्मर्षि पद पाने के लिए तपश्चर्या कर रहे थे और न जाने किस मुहूर्त में त्रिशंकु ने आकर न केवल उसने अपनी दुर्गति कराई बल्कि विश्वामित्र को भी लक्ष्यभ्रष्ट कर दिया. त्रिशंकु को क्रोधवश स्वर्ग पहुंचाने के प्रकरण में उनकी तप:शक्ति ख़र्च हो गई.
               
एक बार लोभ के कारण (सबला धेनु को पाने का लोभ) अपनी पराजय तथा इस बार क्रोध से उत्पन्न मन: स्थिति का विश्वामित्र कटु अनुभव कर चुके थे.क्रोध का वेग शांत होने पर विश्वामित्र बहुत दुःखी हुए. विश्वामित्र ने सोच लिया कि अब चाहे जो हो वे अपने ह्रदय में क्रोध को कभी स्थान नहीं देंगे.
      एक बार फिर विश्वामित्र ने तप करना शुरू किया.
किंतु अभी उनके साथ कुछ और होना था. देवताओं को उनका तप फूटी आंख नहीं सुहा रहा था.
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   काम का आक्रमण: मेनका एवं रम्भा प्रकरण और ब्रह्मर्षि पद की प्राप्ति
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इस बार विश्वामित्र ने पहले से भी कठोर साधना प्रारंभ कर दी. इनके तप से चारो दिशाएं दोलायमान हो चली. देवराज इन्द्र को अपना सिंहासन असुरक्षित जान पड़ने लगा.
पता नहीं क्यों जब-जब कोई मनु की सन्तान में से कोई अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कठिन साधना कर सिद्धि के समीप आने लगता है तो देवराज इन्द्र की परेशानी बढ़ जाती है; क्यों उन्हें ऐसा लगने लगता है कि तप से कोई मेरा आसन न छीन ले जबकि तप करने वाले का न तो वह ध्येय रहता है न ही उद्देश्य.
देवेन्द्र ने अपनी अप्सरा मेनका को पुष्कर में उतार दिया.उसे जिम्मेदारी दी गई कि जैसे ही हो वह विश्वामित्र के तप को भंग करे. अपूर्व सुंदरी मेनका अपने उद्देश्य में सफल हो ग‌ई.उसने विश्वामित्र को अपने मोहक कामपाश में बांध लिया. विश्वामित्र के दस वर्ष मेनका के साथ इस तरह विहार में व्यतीत हो गये कि उन्हें कुछ पता ही नहीं चला. संज्ञा लौटने पर उन्हें अपने ऊपर घोर पश्चाताप हुआ और वे ग्लानि से भर गये.उन्हें यह भी पता चल गया कि मेनका को देवेन्द्र ने उसके तप को खंडित करने हेतु भेजा था.भेद खुल जाने पर मेनका भय से थर-थर कांप रही थी.
किंतु विश्वामित्र ने उस पर क्रोध करने के बजाय उसे आदर से विदा कर दिया और पुनः तप करने का संकल्प ले एकबार फिर ध्यानमग्न हो ग‌ए.
उनके इस भीषण तपश्चर्या से उनका सम्पूर्ण शरीर बालसूर्य की तरह लाल हो गया था.
तभी पितामह ब्रह्मा जी प्रकट हुए और बोले-उठो वत्स. मैंने देखा कि तुमने मेनका पर क्रोध न कर उसे आदरपूर्वक विदा कर पुनः अपने तप में लग गए. 
साक्षात् तपोमूर्ति विश्वामित्र! आज से तुम "महर्षि" कहलाओगे. तुम्हारी कीर्ति सूर्य के किरण की तरह तीनों लोकों को आलोकित करेगी. महर्षि विश्वामित्र! तुम तप के साक्षात् विग्रह हो. भद्रं ते.
"महर्षि" का पद पाकर विश्वामित्र को प्रसन्नता तो हुई किंतु उनकी ब्रह्मर्षि पद पाने की अभिलाषा अधूरी हीं रही.
उन्होंने सोचा मेरे तप में जरूर कोई कसर रह गया है तभी तो ब्रह्मा ने उसके लिए सिर्फ महर्षि कह सम्बोधित किया.
विश्वामित्र पुनः तप करने बैठ गये. इस बार जो उनका तप वह कठोरतम था. प्राण चलते रहे मात्र इस निमित्त वे वायुसेवन कर जीवनरेखा को कायम किए हुए थे. उनके इस उग्र तप से देवगण छटपटाने लगे.
देवराज इन्द्र ने फिर एक बार स्वर्ग की अप्सरा रंभा को विश्वामित्र के तप को बिगाड़ने के लिए भेजा.
रंभा डर रही थी किंतु देवराज के आदेश को टाला भी नहीं जा सकता था.
जैसे ही रंभा ने अपने कामकला का जाल बिछाना आरंभ किया ध्यानमग्न विश्वामित्र ने शिव के समान अपने नेत्र खोल दिए और रंभा प्रस्तर प्रतिमा में परिवर्तित हो गई.
विश्वामित्र को इसका अथाह अफसोस हुआ. उनके मन में क्रोध के मात्र भाव उत्पन्न होने से रंभा का ये हाल हो गया.उन्हें बहुत दु:ख हुआ. तपस्वी के मन में क्रोध के भाव मात्र आने से रंभा शिला में बदल गई इसका उन्हें भारी क्षोभ और ग्लानि था.उनका तप एक बार फिर दूषित हो गया था.
विश्वामित्र ने पुनः एक बार स्वयं को तप करने के लिए तैयार किया.मन में संकल्प लिया कि वे क्रोध को मन में सूक्ष्मरुप में भी आने नहीं देंगे.
 काम,लोभ और स्थूल क्रोध पर तो उनका चित्त नियंत्रित हो ही चुका था.
   इस बार वे इस सूक्ष्म क्रोध और दूषित मनोभाव के प्रवेश का द्वार भी बंद कर पुनः तप करने हेतु बैठ ग‌ए.
इस बार का उनका तप अत्यंत उग्र था. शरीर उनका तप से अगोचर हो चुका था. ऐसा मालूम दे रहा था कि वह अरूण तपोमूर्ति अग्निपिंड में परिवर्तित हो गया हो.
सम्पूर्ण देवलोक में हाहाकार मचा हुआ था. घबराये देवगण ब्रह्माजी के पास पहुंचे और उनसे कहा- पितामह! विश्वामित्र जो चाहते हैं उन्हें दे दीजिए.सहस्त्रों वर्ष से वे आपकी साधना-आराधना कर रहे हैं. हमलोगो ने अनेक बार उनकेे तप में व्यवधान डालने का प्रयत्न किया किंतु तप खंडित होने के बावजूद वे दुगुने उत्साह से पुनः तप करने लग जाते हैं. इस बार के उनके उग्र तप से हमारा लोक इतना तप्त हो चुका है कि हमसभी देवगण इससे दग्ध हो चुके हैं.
प्रभु वे जिस उद्देश्य के लिए वे तप कर रहे हैं, उनकी पूर्ति कर दीजीए.इसी में हम सभी का कल्याण है.
ब्रह्मा जी बोले-तथास्तु. वैसे भी वह ब्रह्मर्षि पद का अधिकारी हो चुका है. अब विश्वामित्र क्षत्रिय नहीं रहे. राजा तो वे कब के नहीं रहे. वे अब ब्राह्मण से भी आगे मेरे पुत्रवत होकर ब्रह्मर्षि हो चुके हैं.
अब उसके मन मस्तिष्क में काम क्रोध और लोभ रंचमात्र शेष नहीं है. उसने हमें क्या बल्कि नारायण हरि को भी प्रसन्न कर लिया है. आनेवाले समय में नारायण हरि स्वयं जब मनुष्य होकर पृथ्वी पर अवतार ग्रहण करेंगे तो इसी विश्वामित्र की सहायता से अपनी चिरसंगिनी लक्ष्मी को पत्नी रूप में प्राप्त कर पृथ्वी पर लीला करेंगे.
       पितामह ब्रह्मा प्रकट हुए.
उन्होंने स्वयं विश्वामित्र को प्यार से उठाया और कहा- उठो पुत्र! आज से तुम ब्रह्मर्षि हो ग‌ए.
यह सुन विश्वामित्र को अत्यंत प्रसन्नता हुई.किंतु उन्होंने आगे कहा. जब तक ब्रह्मर्षि वशिष्ठ मुझे ऐसा कह सम्बोधित नहीं करेंगे तब तक मेरा ब्रह्मर्षि कहलाना अधूरा रहेगा.
उसी क्षण वशिष्ठ जी प्रकट हुए और बोले- उठिए ब्रह्मर्षि विश्वामित्र! आज आपने यह साबित कर दिया कि तप से ब्राह्मणेतर कुल से उत्पन्न व्यक्ति भी ब्राह्मण तो क्या ब्रह्मापुत्र तथा उससे भी आगे ब्रह्मर्षि पद का अधिकारी हो जाता है.
यही है विश्वामित्र की एक क्षत्रियकुल नरेश से ब्रह्मर्षि विश्वामित्र होने की कहानी.
कहानी कुछ लंबी हो गई, इसका खेद है.
राजीव रंजन प्रभाकर
१९.०९.२०२१.

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